ATMA
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैव आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।। (कठोपनिषद-1/2/23) (मुंडकोपनिषद-3/2/3)
(यह आत्मा (परमात्मा) धर्मोपदेश करनेसे या बुद्धिसे या वेदों के ज्ञान को सुनने से प्राप्त नहीं होनेवाला है। केवल वह हि आत्मा (परमात्मा) प्राप्त करने के योग्य बनता है, जिसको परमात्मा ने (वरदान के लिये) चयनित किया है; उनके सामने परमात्मा अपने स्वरुपको स्वयं ही प्रकट कर देते है।) (कठोपनिषद-1/2/23) (मुंडकोपनिषद-3/2/3)
(This Atmaa (Parmatma) is neither obtainable by spiritual preaching nor by intellect nor by severely listening knowledge of Vedas; only he becomes capable of obtaining Atmaa (Parmatma), whom Parmatma picks out (for granting him boon), before him Parmatma Himself unsheathes His own form.). (Katha Upanishad-1/2/23) (Mundaka Upanishad-3/2/3).
नित्य: सर्वगतो ह्यात्मा कूटस्थो दोषवर्जित:।
एक: संभिद्यते भ्रान्त्या मायया न स्वरुपत:।। (जाबालदर्शनोपनिषद-10/2)
(आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल और सर्वदोषरहित ही है। एकही है फीरभी माया द्वारा उत्पन्न भ्रमके कारण अलग-अलग दिखते है, वास्तवमें अलग-अलग नहीं है।) (जाबालदर्शनोपनिषद-10/2)
(Atmaa is eternal, omnipresent, changeless and with the exception of any defects. In reality it is one alone and not individual; but sounds individual because of confusion born out of illusion.) (Jabaldarshana Upanishad-10/2)
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थित:।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचंद्रवत।। ( ब्रह्मबिंदुउपनिषद-12)
(अलग अलग प्राणि में एक हि आत्मा रहा हुआ है; एक होते हुए भी अलग अलग दिखते है,
जीस तरह एक ही चंद्र अलग अलग जलपात्र में अलग अलग दिखता है, वैसे ही।) ( ब्रह्मबिंदुउपनिषद-12)
(The one and alone Atmaa pervades in each individual creature; in spite of being one, sounds to be individual; as the one alone moon is seen separate in each individual water pot.) (Brahmabindu Upanishad-12)
चिदचैत्या किलात्मेति सर्वसिद्धान्तसंग्रह:। (महोनिपषद-6/78)चित् अचैत्या किल आत्मा इति (किल=निश्चयपूर्वक)
( विषयरहित हुआ चित्तही आत्मा (परमात्मा) है।यहि निश्चयपूर्वक समग्र( वेदोंके) सिद्धान्तों का सार है) “Subjectless rendered Chitta itself is Atman (Brahmn). This is comprehensive knowledge of all Vedas together”. (Maha Upanishad-6/78).
अस्ति खल्वन्योऽपरो भूतात्मा योऽयं सितासितै: कर्मफलैरभिभूयमान: सदसद्योनिमापद्यत इत्यवाचीं
वोर्ध्वागतिं। (मैत्रायण्युपनिषद-3/2)
(जो शुभ- अशुभ कर्मोंके कारण अधेगामी हुआ है, वो(आत्मा नही है पर वो) तो अन्य भूतात्मा (जीवात्मा) है। वह कर्मानुसार अच्छी बुरी योनीयोंमें गमन करता हैऔर उँची या नीची गतीयोंको प्राप्त होता है।
चितो रुपमिदं ब्रह्मन्क्षेत्रज्ञ इति कथ्यते।
वासना: कल्पयन्सोऽपि यात्यहंकारतां पुन:।। 5/124
अहंकारो विनिर्णेता कलंकी बुद्धिरुच्यते।
बुद्धि: संकल्पिताकारा प्रयाति मननास्पदम्।। 5/125
मनो धनविकल्पं तु गच्छतीन्द्रियतां शने:।
पाणिपादमयं देहमिन्द्रियाणि विदुर्बुधा:।। 5/126 (महोपनिषद-5/124-126)
(हे ब्रह्मन! चेतनशक्ति जब नाम (रुप, देश, काल) विगेरे प्राप्त करती है, तो क्षेत्रज्ञ कहलाती है। वह (क्षेत्रज्ञ) फिरसे जब वासनाकी कल्पना करता है तो वह अहंकार हो जाता है। जब अहंकार निश्चयात्मक और दोषयुक्त होता है तब वह बुद्धि कहलाता है। बुद्धि जब संकल्प और मनन करने लगती है तो मनरुप हो जाती है। मन जब गहरे विकल्पमें डूबता है तो धीरे-धीरे इन्द्रियत्वको प्राप्त करता है। मेधावी पुरुषों (भी) अपनेको हस्तपादयुक्त इन्द्रियोंवाला शरीर ही मानते है.) (महोपनिषद-5/124-126)
येनेक्षते श्रृणोतीदं जिध्रति व्याकरोति च ।
स्वाद्वस्वादु विजानाति तत्प्रज्ञानमुदिरितम्।। (शुकरहस्योपनिषद-31)
(प्राणी जिससे देखता है, सूनता है, सुगंध ग्रहण करता है, बोलता है, स्वाद-अस्वादका अनुभव करता है, उसे प्रज्ञान कहते है।)
कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः ।
कायॅकारणतां हित्वा पूणॅबोधोअवशिष्यते । (शुकरहस्योपनिषद-42)
(कायॅ उपाधिसे यह जीव है और कारण उपाधिसे ईश्वर है। कायॅकारण उपाधिआेंका त्याग कर देनेसे पूणॅज्ञानरुप ब्रह्म ही शेष रहते है।)
अस्ति खल्वन्योऽपरो भूतात्मा योऽयं सितासितै: कर्मफलैरभिभूयमान: सदसद्योनिमापद्यत इत्यवाचीं वोर्ध्वागतिं। (मैत्रायण्युपनिषद-3/2)
(जो शुभ-अशुभ कर्मोंके कारण अधेगामी हुआ है, वो(आत्मा नही है पर वो) तो अन्य भूतात्मा (जीवात्मा)है। वह कर्मानुसार अच्छी बुरी योनीयोंमें गमन करता हैऔर उँची या नीची गतीयोंको प्राप्त होता है।)
चतुरशीतिलक्षयोनिपरिणतम् । (मैत्रायण्युपनिषद-3/3)
(चोराशी लाख योनियोमें भ्रमण करता रहता है । )
AUMKAR
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च तद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचयँ चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेणब्रवीम्योमित्येतत्।। (कठोपनिषद-1/2/15)
(सवॅ वेदों जीस पदका वारंवार वणॅन करते है, सवॅ तपों जीसकी प्राप्तिकेसाधन है, जीसकी प्राप्तिकी इच्छाके लिये ब्रह्मचयॅका पालन करा जाता है, वह मैं पद टूंकमें कहता हुँ। ॐ ही वह पद है) (कठोपनिषद)
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।। (कठोपनिषद-1/2/16)
(यह ॐ अक्षर ही ब्रह्म है, यह ॐ अक्षर ही परम है, यह ॐ अक्षरको जान लेनेसे वह जो इच्छता है, उनका वो हो जाता है।)
परं चापरं च ब्रह्म यदोंकार:। (प्रश्नोपनिषद-5/2) (यह ॐ परा एवं अपरा एवं ब्रह्म है । )
(पिप्पलादने सत्यकामको जवाब दिया।
जब सत्यकामने ॐ की आराधना कर शकतेहै ऐसा पूछा)
ओमिति ब्रह्म। ओमितीदंसवॅम्। (तैत्तिरीय उपनिषद-1/8/1) (ॐ ही ब्रह्म छे । ॐ ही प्रत्यक्ष जगत है)
स्थिता: सर्वे त्रयाक्षरे। (योगतत्वोपनिषद-135)( बधुं ((ॐ) यह तीन अक्षरमें सब स्थित रहा हुआ है। )
सर्वविघ्नहरो मन्त्र: प्रणव: सर्वदोषहा। (योगतत्वोपनिषद-64) (ॐ मंत्र सर्वप्रकारके विघ्न और दोष हरनार है)
AVIDYA
एष एव मनोनाशस्त्वविद्यानाश एव च। (महोपनिषद-4/109)
(जो मनका विनाश है, उसको ही अविद्याका नाश कहा जाता है।)
अविद्या विद्यमानैव नष्टप्रज्ञेषु दृश्यते । (महोपनिषद-4/110) (जो प्रज्ञा रहित है, उसमें ही अविद्या रहती है।)
या तदभिमानं कारयति सा अविद्या ।
सोअभिमानो ययानिवतॅते सा विद्या । (सवॅसारोपनिषद-3)
(जो अहंभावकी जन्मदात्री है, वह अविद्या है और जिसके द्वारा अिभमानका नाश हो जाता है, वह विद्या है।)
(yaa tadbhimanam karyati saa Avidya- Sarvasaropanishad-3) That which begets ego in person is Avidya, ignorance, the illusion).
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरुपकम्। विक्षेपशक्तिर्लिंगादि ब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत्।।
अन्तर्द्रृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयो:। आवृणोत्यपरा शक्ति: सा संसारस्य कारणम्।।
(सरस्वतीरहस्योपनिषद-52-53)
(विक्षेप और आवरण नामक मायाकी दो शक्तियाँ है। विक्षेप शक्ति लींगदेहसे ब्रह्मांड पर्यन्त जगतकी संरचना करती है। आवरण नामक अपरा शक्ति अंदरके दृष्टा-दृश्यके भेदको और बहारके परमात्मा-सृष्टिके भेदको आवृत करती है। यह आवरण शक्ति ही संसारके बंधनका कारण है।)
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्यं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।। (ईशावास्योपनिषद-11)
(विद्या और अविद्याको दोनोंको एक साथ जानों। अविद्या (भौतिक ज्ञान) द्वारा मृत्युको पार करके, विद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) द्वारा अमरत्वकी प्राप्ति हो सकती है।)
BIRTH TO DEATH AND DEATH TO BIRTH
जायते म्रृतये लोको म्रियते जननाय च। (महोपनिषद-3/4)
(लोगों मरने के लिये जन्मते है और जन्मनेके लिये मरते है । )
सस्यमिव मर्त्य: पच्यते सस्यमिवाजायते पुन:।। (कठोपनिषद-1/1/6)
(मरणधर्मा मनुष्य फसलके समान पकता है (वृद्ध होकर मृत्युको प्राप्त होता है) और पुन: कालक्रमानुसार फसलके समान उत्पन्न होता है)
BODY IS ALWAYS DEAD
शकटमिवाचेतनमिदं शरीरम्। (मैत्रायण्युपनिषद-2/3)
(यह शरीर गाडेकी तरह अचेतन है) (मैत्रायण्युपनिषद-2/3)
(This body is inanimate just like a cart)(Meitranya Upanishad-2/3)
आत्मेन चेतनेनेदं शरीरं चेतनवत्। (मैत्रायण्युपनिषद-2/5)
(आत्माके चैतन्यसे यह शरीर चेतनवंत (दिखता) है) (मैत्रायण्युपनिषद-2/5)
(This body (sounds) animate because of the consciousness of Atmaa)
(Meitranyu Upanishad-2/5).
मत्सान्निध्यात्प्रवतॅन्ते देहाद्या अजडा इव । (सवॅसारोपनिषद-18)
(मेरी (परमात्मा की) उपस्थितिसे देह (मन, बुद्धि, अहंकार) वग़ैरह जीवित हो वैसे वर्तते है।) (सवॅसारोपनिषद-18)
(Because of my (Parmatma) proximity the body (Mind, Intellect, Ego) etc, are behaving as if they are animate) (Sarvasaar Upanishad-18).
मनो ह वा आयतनम्। (छांदोग्योपनिषद- 5/1/5) (अवश्य मन ही आयतन (आश्रय) शरीर है). (Verily the Mind itself is a body) (Chhandogya Upanishad-5/1/5).
नाहं भवामि । अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो बुद्धियादीनां हिसवॅदा । नाहं कर्ता नैव भोक्ता प्रकृतैः साक्षिरुपकः ।
मत्सान्निध्यात्प्रवतॅन्ते देहाद्या अजडा इव । आत्माहंसवॅभूतानां विभुः साक्षी न संशयः।
ब्रह्मैवाहं सच्चिदानन्दरुपम् । (सवॅसारोपनिषद-16TO20)
(मुझे जन्म नहीं है। मैं बिना प्राण, मन और बुद्धि ही हंमेश शुद्धस्वरुप हुँ । मैं कर्ता या भोक्ता भी नहीं हुँ बल्कि स्वभावसे साक्षीरुप ही हुँ । मेरी उपस्थितिसे ही देह (मन, बुद्धि, अहंकार) वग़ैरह जीवित हो वैसे बर्तते है। मैं सब प्राणीओंमें व्याप्त साक्षीरुप आत्मा हुँ, इसमें कोइ शंका नहीं है। मैं सत् चित् आनंदरुप ब्रह्म हुं।)
BRAHMN PARMATMA
एकमेवाद्वितियं ब्रह्म।(मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
(शकरहस्योपनिषद-20).
(यहाँ केवल परमात्मा एक ही है, बिना किसी दुसरे के।)(मैत्रेय्युपनिषद-2/15)(शकरहस्योपनिषद-20)।
(Parmatma alone is here, only one without any second) (Meitriya Upanishad-2/15). (Shukarahasya Upanishad-20).
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1)(सवॅसारोपनिषद-12)
(परमात्मा सत्य, ज्ञान, अनन्त रुप है।)
(तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1)(सवॅसारोपनिषद-12)
(Parmatma is embodied as Truth, Knowledge, infinity.) (Teittariya Upanishad-2/1/1) (Sarvasara Upanishad-12).
प्रज्ञानं ब्रह्म।ऋग्वेद(ऐतरैयोपनिषद-3/1/1) (आत्मबोधोपनिषद-6)
तत्वमसि ।सामवेद (छांदोग्योपनिषद-6/8/7)
अहं ब्रह्मास्मि।यजुर्वेद(ब़ह्दारण्यकोपनिषद-1/4/10)
अयमात्मा ब्रह्म।अथर्ववेद।(मांडुक्योपनिषद-2)
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। (ऋग्वेद-1/164/46)
(सत्य तो एक ही है। पंडितों अनेकविध दर्शाते है।)
सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो।(छांदोग्योपनिषद-6/8/7)
(वह सब सत्य ही है, वही आत्मा है, और श्वेतकेतु, वही तुम भी हो।)
सोऽहमिति। (नारद परिव्राजकोपनिषद-6/4)
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म। (बृहदारण्यकोपनिषद-3/9/28)
सवॅं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । (निरालंबोपनिषद-9)
(यह पूरा विश्व वास्तव में ब्रह्म ही है। उससे भिन्न और पृथक जैसा यहाँ कुछ भी नहीं है।)(निरालंबोपनिषद-9).(In reality this entire universe is a form of Parmatma only. There is nothing like different or separate from Him.). (Niralamba
Upanishad-9).
यत्पश्यति तु तत्सर्वं ब्रह्म।(जाबालदर्शनोपनिषद7/2) (मनुष्य जो कंई दिखता है वह सब ब्रह्म ही है)
नेह नानास्ति किंचन। (कठोपनिषद-2/1/11) (जगतमें ब्रह्मके सिवाय कुछभी नहीं है।)
ब्रह्मैव परमात्मा । (निरालंबोपनिषद-7)
एकमेवाद्वितीयम्। एतदेकान्तमित्युक्तं न मठो न वनान्तरम्।। (मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
(यहाँ केवल (ब्रह्म) एकही है, दूसरा कुछ है ही नहीं। इस भावनाको ही एकांत कहा गया है, नहीं की मठको या जंगलके मध्यभागको।))
सोऽस्म्यहम्। (मैत्रेय्युपनिषद-3/1) (I am that)
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या । (निरालंबोपनिषद-35)
ब्रह्मैवाहमस्मि । (निरालंबोपनिषद-39) (मैं ब्रह्म ही हुँ ।)
नैव च तस्य लिंगम्। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/9)
(उस (परमात्मा) का कोई लिंग (स्त्री, पुरुष या नपुंसक) नहीं है।)
मृत्यु: यस्य उपसेचनम्। (कठोपनिषद-1/2/25)
मृत्युर्यस्योपसेचनम्।
(मृत्युतो उस(ब्रह्म )का चटनी जैसा व्यंजन है । )
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर: ।
पुरुषान्न परं किचिंत्सा काष्ठा सा परा गति:।। (कठोपनिषद-1/3/11)
(बुद्धिसे प्रकृति श्रेष्ठ है, प्रकृतिसे परमात्मा श्रेष्ठ है और परमात्मासे श्रेष्ठ कुछभी नहीं है। वह सबकी पराकाष्ठा और परमगति है।)
नेह नानास्ति किंचन। (कठोपनिषद-2/1/11) (जगतमें ब्रह्मके सिवाय कुछभी नहीं है।)
एष आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति। (मैत्रायण्युपनिषद-2/2)
जीवो ब्रह्मेति। (शुकरहस्योपनिषद-28) (जीव ही ब्रह्म है)
सोऽस्म्यहम्। (मैत्रेय्युपनिषद-3/1) (I am that)
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जिवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।तद्विजिज्ञासस्व। तद्ब्रह्मेति।। ( तैत्तिरीयोपनिषद-3/1/1)
(जिसमेसे यह सब प्राणियोंजन्मतेहै, और जन्म लेकर जिससे वो जीतेहै, औरप्रलयके वक़्त जिसमें जाकर लय हो जातेहै, उसकोजाननेकी जिज्ञासा करो । वह ब्रह्म है । )
जीवेश्वरौ मायिकौ विज्ञाय सर्वविशेषं नेति नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म।
(अद्वयतारकोपनिषद-3)
(जीव और ईश्वरको मायिक जानकर, जो विशेषकर है उस सबको “नेति नेति” कहते हुए उसको त्यागकर, जो शेष रहता है, वही अद्वय ब्रह्म (कहलाता) है।)
“After taking Jiva and Ishwara as illusive, after abdicating all that which is some or other way any special, terming it as “Not this, not this”, what remains is the Nondual Brahmn (that is the form of bliss).
पुरुष एवेदं विश्वम्।।(मुंडकोपनिषद-2/1/10)
(यह विश्व पुरुषोत्तम ही है।)(मुंडकोपनिषद-2/1/10)
(This universe is Parmatma only)(Mundaka Upanishad-2/1/10)
BRAHMN AND ISHWAR
चैतन्यं ब्रह्म । ईश्वर इति च। ब्रह्मैव स्वशक्तिं प्रकृत्यभिधेयामाश्रित्यलोकान्सृष्टवा प्रविश्यान्तर्यामीत्वेन ब्रह्मादीनां बुद्धिन्द्रियनियन्तृत्वादीश्वरः।
(निरालंबोपनिषद-4)
(चैतन्य ब्रह्म हि है। अब ईश्वके स्वरुपका कथन करते है। यह ब्रह्म हि जब अपनी प्रकृति नामकी स्वशक्ति के सहारे लोकोंका सजॅन करके अंतर्यामीरुपसे उसमें प्रवेशकर ब्रह्मा, (विष्णु, महेश), आदी तथा बुद्धि और इन्द्रियों को नियंत्रित करते है, तब (वे) ईश्वर (कहलाते) है।) (निरालंबोपनिषद-4)
(The very Consciousness is Brahmn. Now we say about Ishwara. When this Brahmn creates the Universe with the help of Nature, that is His Energy, and enters into His Creation as its intrinsic inbuilt mechanism and controls and administrates the entire Universe including Brahma, (Vishnu and Mahesh) etc, as well as Intellect and Sense organs; then (He) is called Ishwara.) (Niralanba Upanishad-4)
कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः ।
कायॅकारणतां हित्वा पूणॅबोधोअवशिष्यते । (शुकरहस्योपनिषद-42)
(कायॅ उपाधिथी आ जीव छे कारण उपाधिथी ईश्वर छे। कायॅकारण उपाधिआेने छोडवाथी पूणॅज्ञानरुप ब्रह्म ज शेष रहेछे)
जीवेश्वरौ मायिकौ विज्ञाय सर्वविशेषं नेति नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म।
(अद्वयतारकोपनिषद-3)
(जीव और ईश्वरको मायिक जानकर, जो विशेषकर है उस सबको “नेति नेति” कहते हुए उसको त्यागकर, जो शेष रहता है, वही अद्वय ब्रह्म (कहलाता) है।)
“After taking Jiva and Ishwara as illusive, after abdicating all that which is some or other way any special, terming it as “Not this, not this”, what remains is the Nondual Brahmn (that is the form of bliss).
BRAHM CAN BE SEEN ONLY THROUGH GYANCHAKSHU
सर्वगं सच्चिदानन्दं ज्ञानचक्षुर्निरीक्षते। (महोपनिषद-4/80)
(सर्वव्यापी सच्चिदानंदस्वरुप परमात्माको ज्ञानरुप चक्षुओं से दिखा जाता है।)
स बाह्यमभ्यन्तरनिश्चलात्मा ज्ञानोल्कया पश्यति चान्तरात्मा। (पेंगलोपनिषद-4/18)
(आत्मा बाहरसे और भीतरसे निश्चल है। आत्माको ज्ञानरुपी उल्कासे ही देखा जा सक्ता है।)
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:।। (कठोपनिषद-1/3/12)
(संपूर्ण भूतोंमें छीपा यह परमात्मा दृष्यमान नहीं होता। यह तो सूक्ष्मदर्शि पुरुषों द्वारा अपनी सूक्ष्म बुद्धिसे ही देखा जाता है।)
BRAHM CANNOT BE SEEN BY THE PHYSICAL EYES
न तस्य प्रतिमा अस्ति। o(श्वेताश्वतरोपनिषद-4/19) (यजुर्वेद- 32/3)
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्। (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/20) (कठोपनिषद -2/3/9)
(Na chakshusa pasyati kaschaneinam-Kathopanishad-2/3/9)(None can see That(Brahman) with eyes).
यतो वाचो निवर्तन्ते यो मुक्तैरवगम्यते। यस्य चात्मादिका: संज्ञा: कल्पिता न स्वभावगत:।। (महोपनिषद-4/57)
(जहाँसे वाणि परत होती है, जीसको मूक्त पुरुष द्वाराही जाना जा सकता है; जीसकी आत्मा वग़ैरह संज्ञायें कल्पनामात्र है, वास्तविक नहीं है,(वो ही अविनाशी ब्रह्म कहलाता है))
न शक्यते वणॅयितुं गिरा तदा । (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/I) (त्यारे तेनुं वणॅन वाणीद्वाराकरवा कोइ समथॅ नथी । )
यतो वाचो निवतॅन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान न बिभेति कदाचन्।।(तैत्तिरीयोपनिषद-2/4/1)
(ज्यां (ब्रह्मना वणॅन करवामां) थी मन सहित वाणी असमथॅ बनी पाछी फरेछे तेब्रह्मना आनंदनो अनुभव करनार विद्वान क्यारेय भयग्रस्तथतो नथी । )
BRAHMAN IS EVERYWHERE
ॐ ईशावास्यंमिदं सवॅं यत्किंच जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनं ।(ईशावास्योपनिषद-1)
(Ishaavasyam idam sarvam yatkinchjagatyamjagat- Ishavasyopanishad-1). Whatever live or dead is visible here, in this world, is Brahm.)
(यह लोकमें जो कुछभी है, वह सब ईशमय है । केवल उनके द्वारा जो त्यागा हुआ है, उसका ही उपयोग करो । लालच न करो । धन कभी किसीका हुआ है?)
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थित:।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचंद्रवत।। ( ब्रह्मबिंदुउपनिषद-12)
(जीसतरह अेकही चंद्र अलग अलग जलपात्रमें अलगअलग दिखतेहै वैसे अेक ही परमात्मा अलग अलगप्राणीओमें अलग अलग दिखतेहै । )
यत्पश्यति तु तत्सर्वं ब्रह्म। (जाबालदर्शनोपनिषद7/2) (मनुष्य जो कंई दिखता है वह सब ब्रह्म ही है)
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रुपं रुपं प्रतिरुपो बहिश्च।। (कठोपनिषद-2/2/10)
(समस्त प्राणिओंमें विद्यमान परमात्मा एकही होनेपर भी विभिन्न रुपों वाले दिखते है, बहार भी वही है।)
सर्वगं सच्चिदानन्दं ज्ञानचक्षुर्निरीक्षते। (महोपनिषद-4/80)
(सर्वव्यापी सच्चिदानंदस्वरुप परमात्माको ज्ञानरुप चक्षुओं से दिखा जाता है।)
चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु मनुष्याश्वगवादिषु। चैतन्यमेकं ब्रह्मात: प्रज्ञानं ब्रह्म मय्यपि।। (शुकरहस्योपनिषद-32)
(चतुर्मुख ब्रह्मा, इन्द्रदेव, सब देवों , मनुष्य , अश्व, गाय वगेरे सब पशुओंमें एकही चैतन्य सत्ता ब्रह्म रही हुइ है। वही प्रज्ञान ब्रह्म मेरेमें भी समाहित है। )
नाहं भवामि । अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो बुद्धियादीनां हिसवॅदा । नाहं कर्ता नैव भोक्ता प्रकृतैः साक्षिरुपकः ।मत्सान्निध्यात्प्रवतॅन्ते देहाद्या अजडा इव । आत्माहंसवॅभूतानां विभुः साक्षी न संशयः। ब्रह्मैवाहं सच्चिदानन्दरुपम् । (सवॅसारोपनिषद-16TO20)
(मुझे जन्म नहीं है। मैं बिना प्राण, मन और बुद्धि ही हंमेश शुद्धस्ररुप हुँ । मैं कर्ता या भोक्ता भी नहीं हुँ बल्कि स्वभावसे साक्षीरुप ही हुँ । मेरी उपस्थितिसे ही देह, मन वग़ैरह जीवित जैसे बर्तते है। मैं सब प्राणीओंमें व्याप्त साक्षीरुप आत्मा हुँ, इसमें कोइ शंका नहीं है। मैं सत् चित् आनंदरुप ब्रह्म हुं।)
एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़:सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-6/11)
(सब प्राणीओंमें एकही परमात्मा गुप्त रहा हुआ है, वही वहसर्वव्यापी और सभी प्राणीओंके अंतरात्मा है।)
स एव आत्मान्तर्बहिश्चान्तर्बहिश्च। (मैत्रायण्युपनिषद-4/5)
(यह (परमात्मा) आत्माके रुपमें अंदर बाहर अंदर बाहर विद्यमान है)
सवॅशरीरस्थचैतन्यब्रह्मप्रापको गुरुरुपास्य । (निरालंबोपनिषद-30)
बधां शरीरोमां रहेल चैतन्यरुप ब्रह्मने प्राप्त करावनार गुरुज उपास्य छे ।
पुरुष एवेदं विश्वम्।।(मुंडकोपनिषद-2/1/10)
(यह विश्व पुरुषोत्तम ही है।)(मुंडकोपनिषद-2/1/10)
(This universe is Parmatma only)(Mundaka Upanishad-2/1/10)
GIST OF VEDAS
तावदेव निरोद्धव्यं ह्रदि यावत्क्षयं गतं ।
एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रंथ विस्तरा ।। (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/H) (ब्रह्मबिंदूपनिषद-5)
(मनका ह्रदयमें तबतक ही निरोध करना चाहिये जबतक उनका क्षय (यानि मनकी उन्मनी स्थिति) न हो जाय। (संपूर्ण शास्त्रोंका साररुप) यही ज्ञान है और यही मोक्ष है, बाक़ी सबतो ग्रंथका (बिनजरुरी) विस्तार ही है।)
(Only so long must the mind be detained in the heart, until it is annihilated; this only is the knowledge as well as Salvation; the rest is nothing but pedantic superfluity.)
(जयांसुधी मननो क्षय नथाय त्यांसुधीज ह्रदयमां अेनो निरोध करवो जोइए । मात्र आज ज्ञान अने मोक्ष छे बाकी बीजुंतो ग्रंथनो विस्तारज छे । )
चिदचैत्या किलात्मेति सर्वसिद्धान्तसंग्रह:। (महोनिपषद-6/78)
(चित्तवृत्ति रहित हुआ चित्तही आत्मा (परमात्मा) है।यहि निश्चयपूर्वक समग्र( वेदोंके) सिद्धान्तों का सार है) (महोनिपषद-6/78)
(The Chitta that has rendered without Chittavritti, itself is Atmaa (Brahmn). This certainly is comprehensive knowledge of all the Vedas together). (Maha Upanishad-6/78).
GYAN
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो दर्शनेन श्रवणेन मत्वा विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्।। (बृहदारण्यकोपनिषद-2/4/5, 4/5/6).
(हे मैत्रेयी! यह आत्मा ही दर्शन करवा योग्य, श्रवण करवा योग्य, मनन करवा योग्य, निदिध्यासन (अनुभव, ध्यान) करवा योग्य है। यह आत्माके दर्शन, श्रवण, मनन और ज्ञानसे सबका ज्ञान हो जाता है।)
जायते म्रृतये लोको म्रियते जननाय च। (महोपनिषद-3/4) (लोको मरवा माटे जन्मे छे अने जन्मवामाटे मरेछे । )
भारो विवेकिन: शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिण: ।
अशांतस्य मनो भारो भारोअनात्मविदो वपु: ।। (महोपनिषद-3/15)
(जो विवेकी है उनको शास्त्र भाररुप है, रागी पुरुषके लिये ज्ञान भाररुप है। अशांत पुरुषके लिये मन भाररुप है ओर जिसको आत्मज्ञान नहीं हुआ उनके लिये शरीर भाररुप है।)
तस्मान्मुमुक्षुभिर्नैव मतिर्जीवेशवादयो:। कार्या किंतु ब्रह्मतत्त्वं निश्चलेन विचार्यताम्।। (महोपनिषद-4/75)
(अत: जो पुरुष मोक्षकी आकांक्षा रखता है, वह जीव-ईश्वरके विवादमें अपनी बुद्धिको भ्रमित न करते हुए द्रढतासे ब्रह्मतत्त्वका ही चिंतन करे)
भिद्यते ह्रदयग्रन्थिछिद्यन्ते सवॅसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। (महोपनिषद-4/82) (मुंडकोपनिषद-2/2/8) (सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
(जब प्रकृतिके तंत्रका ज्ञान हो जाता है, तो (देह होने के) सब संशयों का छेदन हो जाता है, सब प्रकारके कर्मोंका नाश हो जाता है, और सूक्ष्म शरीर (ह्रदयग्रंथी) का विसर्जन हो जाता है।
भवादुत्तारयात्मानं नासावन्येन तार्यते। (महोपनिषद-4/106)
(you can cross this Bhavsagar on your own only, none can make you cross)
मा भवाज्ञो भव ज्ञस्त्वं जहि संसारभावनाम् ।(महोपनिषद-4/128)
(तुम अज्ञानी न हो। ज्ञानी बनके संसारिक बंधनकी सभी भावनाओंका नाश कर दे।)
सबाह्याभ्यन्तरं दृश्यं मा गृहाण विमुच मा । (महोपनिषद-5/172)
(जो बहार अंदर दृश्यमान जगत है उनको न तो पकडो और न त्यागो भी।)
तांडुलस्य यथा चमॅ पुरुषस्य तथा मलं सहजम् ।नश्यति क्रियया न संदेह ।। (महोपनिषद-5/185-186)
(जेवीरीते चोखाने फोतरुं होयछे तेम माणसने अविद्यासहजज होयछे । योग्य क्रियाथी तेनो नाश थइ शकेछे तेमां संदेह नथी । )
जीव: शिव: शिवो जीव: स जीव: केवल: शिव:।
तुषेण बद्धो व्रिहि: स्यात्तुषाभावेन तन्डुल: । (स्कंदोपनिषद-6)
(जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। जीव जब कैवल्य प्राप्त होता है तो शिव ही बन जाता है; जैसे छिलकेसे बद्ध होती है तो डांगर और अगर बिना छिलकेकी होती है तो चोखा कहलाती है।)
स्वसंकल्पे क्षयं याते समतैवावशिष्यते । (महोपनिषद-6/3)
(सर्वसंकल्पोंका क्षय होते ही समत्वभाव ही बाक़ी रहता है।)
सवॅं त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्त्यज । (महोपनिषद-6/5-6)
(सबका त्याग करके (अंतमें) जिससे सब छोड़ते हो उनका भी त्याग कर दो।)
ज्ञस्य संसारो गोष्पदाकृतिः । (महोपनिषद-6/9) (ज्ञानीनोसंसार गायना पगलाथी बनता खाबोचिया जेवोछे । )
न तदस्ति न यत्राहं न तदस्ति न तन्मयम् । योअसिसोअसि ।।(महोपनिषद-6/11)
(यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसमें मैं न रहा हूँ।
और यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरेसे व्याप्त नहीं है। यहाँ जो कुछ भी है, वह मैं ही हूँ।)
त्यागादानपरित्यागी विज्वरो भव सर्वदा।। (महोपनिषद-6/15)
((कीसीभी वस्तुका) न तो त्याग करो और न हीं ग्रहण करो। इसी तरह संतापरहित होकर जीयो।)
मा खेदं भज हेयेषु नोपादेयपरो भव । (महोपनिषद-6/28) गुमावेलमां खेद नकर । मलेलमां आसक्त नथा ।
नाहं नेदमिति । (महोपनिषद-6/36)
(मैं भी नहीं हूँ और यह (जगत) भी नहीं है)
कुवॅतो लिलया क्रियाम् । (महोपनिषद-6/43) (सब क्रियायें लीलावत करो ।)
अभेददशॅनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मन: ।
स्नानं मनोमलत्यागं शौचमिन्द़िय निग्रह:।।(मैत्रेय्युपनिषद-2/2) (स्कंदोपनिषद-11)
अद्वैतभावना भैक्षमभक्ष्यं द्वैतभावनम् । (मैत्रेय्युपनिषद-2/10)
(अद्वैतनी भावनाही भिक्षावृति है और द्वैतभावना अभक्ष्य वस्तु है।)
मृता मोहमयिमाता जातो बोधमय: सुत: ।
सूतकद्वयसंप्राप्तौ कथं संध्यामुपास्महे ।। (मैत्रेय्युपनिषद-2/13)
एकमेवाद्वितीयम्। एतदेकान्तमित्युक्तं न मठो न वनान्तरम्।। (मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
[(यहाँ) केवल (परमात्मा) एक ही है, बिना किसी दुसरे के। इस (भावना) को ही एकांत कहा गया है; नहीं कि मठको या तो वन के मध्यभाग को।] (मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
[Parmatma alone is here, the only one without any second. This (notion) is what is called to be solitude, and not the cloister or the middle of the forest.]. (Meitreya Upanishad-2/15)
एकमेव अद्वितीयं । (मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
(यहाँ केवल परमात्मा एक ही है, बिना किसी दुसरे के।) Parmatma alone is here, only one without any second.
(यहाँ केवल (ब्रह्म) एक ही है, दूसरा कुछ है ही नहीं। इस भावनाको ही एकांत कहा गया है, नहीं की मठको या जंगलके मध्यभागको।)
धनवृद्धा वयोवृद्धा विद्यावृद्धास्तथैव च ।
ते सर्वे ज्ञानवृद्धस्य किंकरा शिस्यकिंकरा। (मैत्रेय्युपनिषद-2/24)
(जो धनमें बड़ा है, वयमें बड़ा है, विद्यामें बड़ा है; वे सब भी जो ज्ञानमें बड़ा है, उनके सामने नौकर या शिष्यके नौकरके समान ही है।)
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।। (मुंडकोपनिषद-3/1/1) (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/6)
(समान उम्रवाले, मैत्रीभाववाले दो पक्षी अेकही क़िस्मके (दो) वृक्षकी पर बैठे है । उसमेंसे एक पक्षी पिप्पलके वृक्षके फलोंको अति खाता है; जबकी दूसरा बिना खाये सिर्फ़ देखा करता है। )
स्वात्मानं ज्ञात्वा वेदै: प्रयोजनं किं भवति। (पेंगलोपनिषद-4/13)
(आत्मज्ञान हो जाननेके बाद वेदोंसे क्या प्रयोजन रहता है?)
अस्ति भाति प्रियं रुपं नाम चेत्यंशपंचकम् । आद्यत्रयं ब्रह्मरुपं जगद्रूपं ततो द्वयम् । (सरस्वतीरहस्योपनिषद-58)
(अस्ति (है), भाति (आभास होता है), प्रिय (आनंदस्वरुप) , रुप अौर नाम यह पाँच अंश कहे गये है । पहेले तीन ब्रह्म रुप अौर पीछले दो जगतरुप कहे गये है । )
हरि: ॐ ब्रह्मवादिनो वदन्ति- किं कारणं ब्रह्म कुत:स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा:। अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदोव्यवस्थाम्।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-1/1)
(जगतका कारण जो ब्रह्म है वो ब्रह्म क्या है? कैसाहै? हम कहाँसे उत्पन्न हुएहै? किससे जीतेहै? और अंतमें हम किसमे रहतेहै? किसके नियमके तहत रह कर हम सुख-दु:खकी इस व्यवस्थाको मानते है?)
भ्राम्यते चक्रे पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा। (श्वेताश्वतरोपनिषद-1/6)
(अपनेको और ईश्वरको अलग अलग समजता है वह जीवन-मृत्युके चक्रमें घूमते रहते है ।)
वह्नेयॅथा योनिगतस्य मूतिॅनॅ दृश्यते नैव च लिन्गनाश:।
स भूय एवेन्धनयोनिगृह्यस्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-1/13)
(जैसे (लकडेके) गभॅमें छीपे अग्निको देख नहीं शकाते फीरभी सूक्ष्मरुपसे अग्नि नहीं है ऐसा कह भी नहीं शकाते; अौर जब (लकडेको) इन्धनके रुपमें (जलानेसे) फीर अग्निको प्राप्त भी कर शकते है; यह दोनों (रुपकोकी) तरह (देहमें इश्वर होते हुए भी देख नहीं शकते अौर ईश्वर नहीं है ऐसा कह भी नहीं सकते और) ऊँकार द्वारा देह मेंसे प्राप्त कर शकते हैा)
Vahneryatha yonigatasya murtirna drushyate neiv cha lingnashaha. Sa bhuya evendhanyonigruhyastadvobhayam vei pranven dehe-Shvetashvataropanishad-1/13) (As fire is an integral part (of wood), but yet is not visible (in wood), but same time we can’t say it is not there, as (fire) is again grasped when it is used as a fuel, same way the Brahmn (is an integral part of body, but not grasped) unless meditated with ॐ).
एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/1) (एतद् विदु: अमृता: ते भवन्ति)
(उस (परम पुरुष)को जाननेवाले अमर हो जाते है।)
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्य: पंथा विद्यतेअयनाय।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/8 and 6/15) (नारद परिव्राजकोपनिषद-9/1)
(उस (परमात्मा) को जानकर मृत्युरूपी बंधनको विद्वान पार कर जाता है, परमपदकी प्राप्तिके लिये इसके अलावा दुसरा रास्ता ही नहि है।)
एको हँसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्नि: सलिले संनिविष्ट:।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/15)
(यह शरीरमध्ये एक ही हंस (परमात्मा) है, जो पानीमें छीपे अग्निके भाँति अगोचर है। उसको जानकर साधक मृत्युरुपबंधनको पार कर देता है, इससे अलग मोक्षप्राप्तिका अन्य कोई मार्ग नहीं है।)
Water is made of Hydrogen and Oxygen. Hydrogen is inflammable. Rishis knew this thousands of years back.
जीव: शिव: शिवो जीव: स जीव: केवल: शिव:।
तुषेण बद्धो व्रिहि: स्यात्तुषाभावेन तन्डुल: । (स्कंदोपनिषद-6)
(जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। जीव जब कैवल्य प्राप्त होता है तो शिव ही बन जाता है; जैसे छिलकेसे बद्ध होती है तो डांगर और अगर बिना छिलकेकी होती है तो चोखा कहलाती है।)
ब्रह्मविदाप्नोति परम्। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1) (ब्रह्मवेत्ता परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। )
तत्सत्यमित्याचक्षते । (तैत्तिरीय उपनिषद-2/6/1) ([तत्सत्यम् इति आचक्षते । ]
(जो कुछ अनुभवमें आता है, वह सत्य ही है।) करतलामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य । (वज्रसूचिकोपनिषद-9)
(अपरोक्ष अनुभूति (मूक्ति), हथेलीमें रखा आमला (देखना) सरल है, (उतनी सरल है)) Experiencing Realisation to of God is as easy as to behold an Aamla in hand-(Vrajsoochikopanishad-9).
HOW SHRUSTI CAME INTO BEING?
सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितियं।
(छांदोग्योपनिषद-6/2/1)
(हे सोम्य प्रारंभमें एक मात्र अद्वितीय सत ही था।)
स एकाकी न रमते। (महोपनिषद-1/3)
(उस (ब्रह्म) को (यहाँ) अकेला (होना) पसंद न आया।) (महोपनिषद-1/3)
तद्वैक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति। (छांदोग्योपनिषद-6/2/3)
(उसने संकल्प कियाकि मैं विभिन्न रुपोंमें उत्पन्न होजाउ।) (छांदोग्योपनिषद-6/2/3)
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: संभूत: आकाशाद्वायु: वायोरग्नि:। अग्नेराप:। अद्भय: पृथिवी। पृथिव्याओषधय:ओषधिभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरुष:। स वा एषपुरुषोऽन्नरसमय:। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1) (पेंगलोपनिषद-1/6)(निश्चयज तब इस परमात्मा में से आकाश उठा था।आकाशमेंसे वायु, वायुमेंसे अग्नि, अग्निमेंसे जल, पाणीमेंसे पृथ्वि, पृथ्वीमेंसे औषधियाँ, औषधियोंमेंसे अन्न, अन्नमेंसे पुरुष।यह पुरुष निश्चय ही अन्नरसमय है।)(तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1). (पेंगलोपनिषद-1/6)(Certainly then the Akaash was arisen from the Parmatma. The Air from the Akaash, the Fire from the Air, the Water from the Air, the Earth from the Water. All the vegetation were arisen from the Earth, the grain from the vegetation, the man is result of grain, thus certainly this man is an extract of Grain.)(Teittiriya Upanishad-2/1/1).(पेंगलोपनिषद-1/6)
द्वितीयाद्वै भयं भवति। (बृहदारण्यकोपनिषद-1/4/2)
(दूसरा आनेसे भय होता है।) (बृहदारण्यकोपनिषद-1/4/2)
आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसिन्नान्यत्किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।
(ऐतरयोपनिषद-1/1/1)
(सृष्टिकी शुरुआतमें एकमात्र आत्मा ही था। इसके अलावा सचेष्ट जैसा और कुछ भी नहीं था। तब उस (परमात्मा) ने सोचा की मैं लोकोंका सृजन करुं।)
नैवेह किंचनाग्र आसीत। (ब़ह्दारण्यकोपनिषद-1/2/1)
(पहेले यहाँ कुछ भी नहीं था।)
स एकाकी न रमते। (महोपनिषद-1/3)
(उस (ब्रह्म) को (यहाँ) अकेला (होना) पसंद न आया।)
सोअकामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति।। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/6/1)
(उस परमात्माने अनेक रुपमें प्रगट होनेकी इच्छा की)
असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत । (तैत्तिरीयोपनिषद-2/7/1)
(इससे पहेले यहाँ असत् ही था, उसमेंसे सत् उत्पन्न हुआ।)
(There was in-existence, existence came out of it)
ब्रह्मणोऽव्यक्तं । अव्यक्तान्महत् । महतोऽहंकार: ।अहंकारात्पंचतन्मात्राणि । पंचतन्मात्रेभ्य: पंचमहाभूतानि। पंचमहाभूतेभ्योऽखिलं जगत ।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-1/3)
(ब्रह्ममेंसे अव्यक्त, अव्यक्तमेंसे महत्तत्त्व, महत्तत्वमेंसे अहंकार, अहंकारमेंसे पाँच तन्मात्रायें, पाँच तन्मात्राओंसे पाँचमहाभूतों, पाँच महाभूतोमेंसे, समग्र जगत उत्पन्न हुआ है।)
सदेव सोम्येदमग्र आसीत्। तन्नित्यमुक्त्तमविक्रियं सत्यज्ञानानन्दं परिपूर्णं सनातनमेकमेवाद्वितियं ब्रह्म।। (पेंगलोपनिषद-1/2)
(“Before the Universe came into being, there was only Truth. The same is Brahmn which is only one without second and is beginningess, eternal, free, pure and full of existence, knowledge and bliss”. Pengalopanishad-1/2).
ल्लोहितशुक्लकृष्णगुणमयी गुणसाम्यानिर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत्। (पेंगलोपनिषद-1/3)
(जिसका वर्णन नहीं हो सक्ता है, जिसमें सत्त्व, रजस और तमस तीनों गुण समान है वैसी मूलप्रकृति (ब्रह्ममेंसे) उत्पन्न हुइ।) (पेंगलोपनिषद-1/3)
(This primordial Nature, which has the equanimity of Sattva (existence or Neutron), Rajas (procreation or Proton), and Tamas (elimination or Electron); was born (from the Parmatma). (Pengal Upanishad-1/3).
सा पुनर्विकृतिं प्राप्य सत्त्वोद्रित्त्काऽव्यक्ताख्यावरणशक्त्तिरासीत्। तत्प्रतिबिम्बितं यत्तदीश्वरचैतन्यमासीत्।
स स्वाधीनमाय: सर्वज्ञ: सृष्टिस्थितिलयानामादिकर्ता जगदअंकुररुपो भवति स्वस्मिन्विलीनं सकलं जगदाविर्भावयति।
प्राणीकर्मवशादेष पटो यद्वत् प्रसारित: प्राणीकर्मक्षयात् पुनस्तिरोभावयति। तस्मन्नेवाखिलं विश्वं संकोचितपटवद्वर्तते।।(पेंगलोपनिषद-1/4) ( जब वह ( मूल प्रकृति) फिरसे विकार युक्त हो गइ तो उसे स्त्त्वगुणयुक्त अव्यक्त आवरण शक्ति कहा जाने लगा। उसमें जो चैतन्य प्रतिबिम्बित हुआ वह ईश्वर है। वह (ब्रह्म) मायाको अपने आधीन रखते है, वह सर्वज्ञ है, वह सृष्टि, स्थिति और प्रलय आदिके कर्ता है, (प्रलयके वक़्त) उस (ब्रह्म)में जगत अंकुररुपमें हो जाता है। वह ब्रह्म प्राणीओंके कर्मानुसार (फल देने हेतु जरुरत होनेनेपर) अपनेमें (अंकुररुप) विलिन रहे यह संपूर्ण जगतका आविर्भाव करके वस्त्रके पटकी तरह प्रसारते है, और प्राणीओंके कर्म नष्ट होनेपर फिरसे (जरुरत न रहनेपर यह विश्वरुपी पटको वस्त्रकी तरह ) अपनेमें सिमट भी लेते है। बादमें पूरा विश्व (उस ब्रह्म)में हि समेटे हुए वस्त्रकी भाँति रहता है)
तस्मादात्मन आकाश: संभूत:। आाकाशाद्वायु:। वायोरग्नि:। अग्नेराप:। अद्भय: पृथिवी।तानि पंच तन्मात्राणि त्रिगुणानि भवन्ति। (पेंगलोपनिषद-1/6)
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जिवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति।। ( तैत्तिरीयोपनिषद-3/1/1)
(जिसमेसे यह सब प्राणियों जन्मते है, और जन्म लेकर जिससे वे जीतेहै, और प्रलयके वक़्त जिसमें जाकर वे लय हो जातेहै, उसको जाननेकी जिज्ञासा करो । वह ब्रह्म है । )
सर्वदाऽनविच्छिन्नं परं ब्रह्म तस्माज्जाता परा शक्ति: स्वयंज्योतिरात्मिका।आत्मन आकाश: संभूत:।आकाशाद्वायु:।वायोरग्नि:।आग्नेराप:।अद्भय: पृथिवि।।(योगचूडामण्युपनिषद-72)
राजसो ब्रह्मा सात्विको विष्णुस्तामसो रुद्र इति एते त्रयो गुणयुक्ता:।।(योगचूडामण्युपनिषद-72)
(मैत्राण्युपनिषद-4/5)(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद-पूर्वकांड-10)
प्रकृतित्वं तत: सृष्टं सत्त्वादिगुणसाम्यत:। (सरस्वती रहस्योपनिषद-47) (तत् पच्याद् सत्त्व, रजस, तमस गुणके साम्यावस्था वाली यह प्रकृतिकी रचना संपन्न हुई।). (सरस्वती रहस्योपनिषद-47) (Then the creation of Nature, which has the equanimity of Sattva (existence or Neutron), Rajas (procreation or Proton), and Tamas (eliminating or Electron); was completed). (Saraswati Rahasya Upanishad-47)
IF YOU SAY YOU KNOW PARMATMA, YOU DON’T KNOW
यदि मन्यसे सुवेदेति दभ्रमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रुपम्। (केनोपनिषद-2/1)
(अगर आपकी मान्यता है की मैंने ब्रह्मको अच्छी तरहसे जान लिया है , तो निश्चित ही आपने ब्रह्मका अल्प अंश ही जानाहै।)
यस्यामतं तस्यमतं मतं यस्य न वेद स:। (केनोपनिषद-2/3)
(जीसका मानना है की वह ब्रह्मको नहीं जानता, वह ब्रह्मको जानता है; और जीसका मानना है मैं ब्रह्मको जानता हूँ , वह ब्रह्मको नहीं जानता।)
JIVA BHAVNA
स्थूलोअहमिति मिथ्याध्यासवशाज्जीवः । (निरालंबोपनिषद-5)
(मैं स्थूल हुँ ऐसा जब मिथ्याभिमान हो जाता है तब वह जीव है ऐसा कहलाता है। )
अहंकाराभिमानेन जीवः । (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/16)
इत्यहं सो ममेदमित्येवं मन्यमानो भूतात्मा । (मैत्रायण्युपनिषद-3/2)
(यह मैं हुँ , वह मेरा है, ऐसा माना हुआ ही जीवात्मा है।) (मैत्रायण्युपनिषद-3/2)
(Jiva is one who has believed: “I am this, that is mine”.) (Meitrani Upanishad-3/2).
देहाभिमानेन जीवो भवती।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-6/3)
(देह होने की भावना होने से जीव बन जाता है) (नारद परिव्राजकोपनिषद-6/3)
(By creating a sense of being body, one becomes Jiva.). (Narada Parivrajika Upanishad-6/3).
शरीराभिमानेन जीवत्वम्।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-6/4)
मोहितो जीवत्वमगमत्। (पेंगलोपनिषद-1/12) (मोहके कारण जीवत्वको प्राप्त हूआ ।)
जीवो ब्रह्मेति। (शुकरहस्योपनिषद-28)
(जीव ही ब्रह्म है)
सविकारस्तथा जीवो निर्विकारस्तथा शिव:। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/12)
अहंकाराभिमानेन जीवः । (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/16)
इत्यहं सो ममेदमित्येवं मन्यमानो भूतात्मा ।
मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो न हि। इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशय:।। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-68)
(मेरेमें जीवत्व-इशत्व कल्पित है, वास्तवमें नहीं है। यह जो जान लेता है, वह मूक्त ही है; इसमें कोई संशय नहीं है।)
पशुपतिरहंकाराविष्ट: संसारी जीव: स एव पशु:। (जाबाल्युपनिषद-11)
( पशुपति स्वयम् अहंकारयुक्त हो जानेसे संसारी जीव हो जाता है, वही पशु भी है।)
सत्त्वान्तर्वर्तिनो देवा: कर्त्रहंकारचेतना:।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/7)
(और उस (ह्रदय) की अंदर वह देवता (जीवात्मा) रहा हुआ है, जीसकी अंदर कर्तापणाका अभिमान दिखने मिलता है)
(अहंकारका स्थान ह्रदय बताया है। यही अहंकारसे कर्तापणाका भाव पैदा होता है। इसीलिये जीवात्मा ह्रदयमें है ऐसा कहा जाता होगा।)
अंत:करणप्रतिबिंम्बितचैतन्यं यत्तदेवावस्थात्रयभाग्भवति। स जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्था: प्राप्य घटियन्त्रवदुद्विग्नो जातो मृत इव स्थितो भवति।। (पेंगलोपनिषद-2/10)
(अंत:करणमें जो चैतन्य प्रतिबिंबित (उपद्रष्टा या जीव) होता है, वही अवस्था त्रय (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का भागीदार होता है। वही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाको प्राप्त होता है, वही रहेंटके समान उद्विग्न होता है, वही निरंतर जन्म मृत्युको प्राप्त होता रहता है।)
जीवेश्वरौ मायिकौ विज्ञाय सर्वविशेषं नेति नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म।
(अद्वयतारकोपनिषद-3)
(जीव और ईश्वरको मायिक जानकर, जो विशेषकर है उस सबको “नेति नेति” कहते हुए उसको त्यागकर, जो शेष रहता है, वही अद्वय ब्रह्म (कहलाता) है।)
KARMA FAL
विद्वान्ब्रह्मज्ञानाग्निना कर्मबन्धं निर्दहेत्। (पेंगलोपनिषद-4/16)
(विद्वान पुरुष ब्रह्मज्ञानरुपी अग्निसे कर्म बन्धनको भस्म कर देता है।)
यो विदधाति कामान्। (कठोपनिषद-2/2/13) (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/13)
(वह (परमात्मा मनुष्योंको उसके) कर्मानुसार (लाभ या हानि) देनेवाला है।) (कठोपनिषद-2/2/13) (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/13)
(That (Parmatma) is to distribute (the gains and losses to the people) according to their actions.) (Katha Upanishad-2/2/13) (Shwetashwatar Upanishad-6/13).
अजायते यथाकर्म यथाविद्यम्। (कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-1/2)
(जिस प्रकारके कर्म और जिस प्रकारकी विद्या, उसके अनुसार (प्राप्त शरीरमें) जन्म लेता है)
वर्णाश्रमाचारयुता विमूढा: कर्मानुसारेण फलं लभन्ते।
वर्णादिधर्म हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा: भवन्ति। (मैत्रेय्युपनिषद-1/17)
(जाति और आश्रमके (आधार पर ही आध्यात्मिकतामें) आचरण करनेवाले पूरी तरहसे मूर्खों ही कर्मानुसार फल भोगते है।
The completely morons, behaving (in spirituality on the basis of) possessed of caste and order, have to be afflicted according to the Karmafal.परंतु जो पुरुषों वणॅ विगेरे धर्मों त्याग देते है, वे अपने नीजानंदमें तृप्त रहते है।)
जाग्रदवस्था गतो जीव: क्रियाकर्ता भवति
लोकान्तरगत: कर्मार्जितफलं स एव भुंक्ते। (पेंगलोपनिषद-2/11)
(जाग्रदवस्था प्राप्त जीवों करताहंकारसे क्रिया करते है। वे ही अपने किये हुए कर्मोंके प्राप्त फलोंको परलोकमें भी भोगते है।)
सकलं जगदाविर्भावयति। प्राणीकर्मवशादेष पटो यद्वत् प्रसारित: प्राणीकर्मक्षयात् पुनस्तिरोभावयति। तस्मिन्नेवाखिलं विश्वं संकोचितपटवद्वर्तते।।(पेंगलोपनिषद-1/4)
[(वह ब्रह्म) प्राणीओंके कर्मानुसार फल देने हेतु संपूर्ण जगतका आविर्भाव करके वस्त्रके पटकी तरह प्रसारते है, और प्राणीओंके कर्म नष्ट होनेपर फिरसे विश्व को (अपनेमें) सिमट भी लेते है। बादमें पूरा विश्व (उस ब्रह्म)में हि सिमेटे हुए वस्त्रकी भाँति रहता है] (पेंगलोपनिषद-1/4)
[(That Parmatma) to deliver the Karmafal to the creatures according to their Karmas spreads forth the entire universe before us like a piece of cloth, and with the diminishing of the Karmas of the creatures, again causes it to disappear (in the self). Thereafter the entire universe remains in Parmatma like a folded piece of cloth.] (Pengal Upanishad-1/4).
सा पुनर्विकृतिं प्राप्य सत्त्वोद्रित्त्काऽव्यक्ताख्यावरणशक्त्तिरासीत्। तत्प्रतिबिम्बितं यत्तदीश्वरचैतन्यमासीत्।तत्प्रतिबिम्बितं यत्तदीश्वरचैतन्यमासीत।
स स्वाधीनमाय: सर्वज्ञ: सृष्टिस्थितिलयानामादिकर्ता जगदअंकुररुपो भवति स्वस्मिन्विलीनं सकलं जगदाविर्भावयति।
प्राणीकर्मवशादेष पटो यद्वत् प्रसारित: प्राणीकर्मक्षयात् पुनस्तिरोभावयति। तस्मिन्नेवाखिलं विश्वं संकोचितपटवद्वर्तते।।(पेंगलोपनिषद-1/4) ( जब वह ( मूल प्रकृति) फिरसे विकार युक्त हो गइ तो उसे सत्त्वगुणयुक्त अव्यक्त आवरण शक्ति कहा जाने लगा। उसमें जो चैतन्य प्रतिबिम्बित हुआ वह ईश्वर है। वह (ब्रह्म) मायाको अपने आधीन रखते है, वह सर्वज्ञ है, वह सृष्टि, स्थिति और प्रलय आदिके कर्ता है, (प्रलयके वक़्त) उस (ब्रह्म)में जगत अंकुररुपमें हो जाता है। वह ब्रह्म प्राणीओंके कर्मानुसार (फल देने हेतु जरुरत होनेनेपर) अपनेमें (अंकुररुप विलिन रहे) संपूर्ण जगतका आविर्भाव करके वस्त्रके पटकी तरह प्रसारते है, और प्राणीओंके कर्म नष्ट होनेपर फिरसे (जरुरत न रहनेपर यह विश्वरुपी पटको वस्त्रकी तरह ) अपनेमें सिमट भी लेते है। बादमें पूरा विश्व (उस ब्रह्म)में हि समेटे हुए वस्त्रकी भाँति रहता है)
प्राणाधिप: संचरति स्वकर्मभि:।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-5/7)
(जीवात्मा अपने कर्मोंके अनुसार विविध योनीयोंमें गमन करता रहता है।) (श्वेताश्वतरोपनिषद-5/7)
The Jiva keeps visiting different species according to his Karmas. (Shwetashwatara Upanishad-5/7).
कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रुपाण्यभिसंप्रद्यते। (श्वेताश्वतरोपनिषद-5/11)
(जीवात्मा अपने किये हुए कर्मोंके फलानुसार भिन्न भिन्न स्थानोंमें भिन्न भिन्न रुपोंको वारंवार लेता है।)
अस्ति खल्वन्योऽपरो भूतात्मा योऽयं सितासितै: कर्मफलैरभिभूयमान: सदसद्योनिमापद्यत इत्यवाचीं वोर्ध्वागतिं। (मैत्रायण्युपनिषद-3/2)
(जो शुभ- अशुभ कर्मोंके कारण अधेगामी हुआ है, वो(आत्मा नही है पर वो) तो अन्य भूतात्मा (जीवात्मा) है। वह कर्मानुसार अच्छी बुरी योनीयोंमें गमन करता हैऔर उँची या नीची गतीयोंको प्राप्त होता है।)
यस्माज्जातो भगात्पूर्वं तस्मिन्नेव भगे रमन्।या माता सा पुनर्भार्या या भार्या मातरेव हि।
एवं संसारचक्रेण कूपचक्रे घटा इव।।
(योगतत्वोपनिषद-132-133)
जिस पूर्व बीज (योनि)के कारणरुप (मनुष्य इस जन्ममें) पैदा हुआ है, उस बीज (योनि)में (वह अब) क्रिडा नहीं करता।जैसे कि जो माता (सत्त्वगुण) होती है वह (बादके जन्ममें) फिरसे पत्नि (रजसगुण या तमसगुण बन जाती है और) जो पत्नि होती है, वह (बादके जन्ममें) माता। वैसे हि संसारचक्र (के क़िस्से) में होता है, रेंटचक्रमें रहे घटोंकी तरह।(योगतत्वोपनिषद-132-133)
One doesn’t frolic in that seed, because of which past seed he has been born (in this life). As who is mother (Sattva Guna in this life) now, again becomes wife (Rajas or Tamas Guna in later life). Same happens in (the case of) Wheel of Sansaar, as (it happens) with the pots in the wheel for raising water from the well.
(Yogatattva Upanishad-132-133)
कर्मेति च क्रियमाणेन्द्रियै: कर्माण्यहं करोमीत्यध्यात्मनिष्ठतया कृतं कर्मैव कर्म।(निरालंबोपनिषद-11)
(जो कार्यों “मैं यह कर्मों करता हुँ”, ऐसे अपने एहसास के भाव के साथ, कर्मेन्द्रियों के द्वारा किया गया है, वही कर्म है।)(निरालंबोपनिषद-11)
(The action is that only which is done by the sense organs of action, with one’s Realisation that, “I am doing these actions”.) (Niralamba Upanishad-11).
KUNDALINI
कुणडलिनि
तत: परिचयावस्था जायतेऽभ्यासयोगत:।।
वायु: परिचितो यत्नादग्निना सह कुण्डलीम्।भावयित्वा सुषुम्नायां प्रविशेदनिरोधत:।।
(योगतत्वोपनिषद-81-82)
(तब अभ्यासयोगसे कुंभकावस्था पैदा हो जाती है।प्रयत्नों से इकठ्ठा किया वायुकी अग्नि के साथ कुंडलिनी सुषुम्ना नाड़ी में विरोध रहित प्रवेश करती है, ऐसी भावना (कल्पना) कि जाय।)
आपोऽर्धचन्द्रं शुक्लं च वंबीजं परिकिर्तितम्।।(योगतत्त्वोपनिषद-82)
जल स्थानमें अर्द्धचंद्रके रुप में वं बीज का होना माना गया है।
अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वगं कुरुते बलात्।आकुंचनेन तं प्राहुर्मूलबन्धोऽयमुच्यते।। (योगकुंडल्युपनिषद-1/42)
इत्यधोर्ध्वरज: शुक्लं शिवे तदनु मारुत:।(योगकुंडल्युपनिषद-1/75)
इस तरह नीचे रही रज और ऊर्ध्व मां रहा शुक्र वायुके वेग से शिव में लीन हो जाते है।
इति तं स्वरुपा हि मती रज्जुभुजंगवत्।
(योगकुंडल्युपनिषद-1/79)
उस (साधक) को अपने स्वरुप की समज मीलजाती है, जैसे रस्सीमें दिखते सर्प की भाँति।
मन एव हि बिन्दु।।(योगकुंडल्युपनिषद-3/5)
आकुंचनेन तं प्राहुर्मूलबन्धोऽयमुच्यते। अपानश्चोर्ध्वगो भूत्वा वह्निना सह गच्छति।।(योगकुण्डल्युपनिषद-1/64)
प्राणस्थानं ततो वह्नि: प्राणापानौ च सत्वरम्। मिलित्वा कुण्डली याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृति:।। तेनाग्निना च संतप्ता पवनेनैव चालिता।
प्रसार्य स्वशरीरं तु सुषुम्ना वदनान्तरे।।
(योगकुण्डल्युपनिषद-1/65-66)
प्रकृत्यष्टकरुपं च स्थानं गच्छति कुण्डली। क्रोडीकृत्य शिवं याति क्रोडीकृत्य विलियते।।(योगकुण्डल्युपनिषद-1/74)
(गुदाके आकुचनके द्वारा (अपानको उर्ध्व गामी बनानेकी प्रक्रियाको मूलबन्ध कहते है। अपान उर्ध्व गामी होकर अग्नि के साथ संयुक्त होकर जब वह अग्नि प्राण के स्थान में पहोंचता है, तब प्राण और अपान दोनों मिलकर सर्पाकृति में रही कुण्डली की पास आते है। तब उस अग्निसे संतप्त होकर और (प्राणायामके) वायु (के आघात) से ही चालित होकर कुण्डली अपना शरीर पसार के सुषुम्ना के मुखके छेड़े में से उर्ध्वगमन कर के (ब्रह्मग्रंथी, विष्णुग्रंथी और रुद्रग्रंथी को भेदकर) यह अष्टधाप्रकृतिरुप (पंच तत्त्वों और मन, बुद्धि अहंकार) और (अष्टधाप्रकृतिरुप) स्थानवाली कुंडलिनी शक्ति गती कर के शिव की ओर आती है और शिव को आलिंगन कर के शिव में एकाकार हो जाती है।)
स पुनर्द्विविधो बिन्दु: पाण्डरो लोहितस्तथा।पाण्डरं शुक्लमित्याहुर्लोहिताख्यं महाराज:।।
(योग चूड़ामणि उपनिषद-60)
बिंदुओं के फिरसे दो प्रकार है: सफ़ेद और लाल।सफ़ेद को शुक्र और लाल को महारज कहा गया है।
रविस्थानस्थितं रज:। शशिस्थानस्थितं शुक्लं। तयोरैक्यं सुदुर्लभम्।।(योग चूड़ामणि उपनिषद-61)
रविस्थान में रज का निवास है, शशिस्थान में शुक्ल का निवास है; दोनों का संयोग बहुत दुर्लभ है।
वायुना शक्तिचालेन प्रेरितं च यथा रज:। याति बिन्दु: सदैकत्वं भवेद्दिव्यवपुस्तदा।।
(योग चूड़ामणि उपनिषद-63)
बिन्दुर्ब्रह्म रज: शक्तिर्बिन्दुरिन्दु रजो रवि:।उभयो: संगमादेव प्राप्यते परमं पदम्।।
(योग चूड़ामणि उपनिषद-62)
बिंदु परमात्मा है, रज शक्ति है; बिन्दु चंद्ररुप है, रज सूर्यरुप है। दोनों का मिलन होने से ही परम पद प्राप्त होता है।
स एव र्द्विविधो बिन्दु: पाण्डरो लोहितस्तथा।पाण्डरं शुक्रमित्याहुर्लोहिताख्यं महाराज:।।
योनिस्थाने स्थितं रज:।। शशिस्थाने वसेद्बिन्दुस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम्।
बिन्दु: शिवो रज: शक्तिर्बिन्दु रजो रवि:।।
(ध्यानबिंदूपनिषद-86-88)
विर्य दो प्रकार के होते है: सफ़ेद और लाल।सफ़ेद को शुक्र और लाल को महारज कहा है। रज का निवास योनि स्थान में और बिन्दु चंन्द्र स्थान में निवास करता है। दोनोंका संयोग अतिदुर्लभ माना गया है।बिन्दु शिव और रज शक्ति है; बिन्दु चंन्द्र और रज को सूर्य कहा गया है।
LEAVE THE MEDIUM TOO THAT HELPED YOU TO LEAVE EVERYTHING
सवॅं त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्त्यज । (महोपनिषद-6/5-6)
((सबका त्याग करके (अंतमें) जिससे सब छोड़ते हो उनका भी त्याग कर दो।)
(After renunciating everything, leave that, too by which you renunciated everything.- Mahopanishad-6/5-6).
MAYA
माया नाम अनादिरन्तवती प्रमाणाप्रमाणसाधारणा न सती नासती न सदसती स्वयमधिका विकाररहिता निरुप्यमाणा सतीतरलक्षनशून्या सा मायेत्युच्यते।अज्ञानं तुच्छाप्यसती कालत्रयेऽपि पामराणां वास्तवी च सत्त्वबुद्धिर्लौकिकानामिदमित्यनिवॅचनीया वक्तुं न शक्यते।। (सवॅसारोपनिषद-15)
(माया नाम अनादि है, विनष्टप्राय है। वह न सत है, न असत है और नहीं सतअसत है। वह स्वयं ही अधिका है, विकार रहिता है।जैसे कि अन्य लक्षणों से रहित है ऐसा निरुपण हो सकता है, उसे माया ऐसा कहा जाता है। यह मायाशक्ति तुच्छ, अज्ञानरुप और मिथ्या भी है, फिर भी मूढ़ों को जैसे कि वह तीनों कालों में (हंमेशा) वास्तविक है, ऐसी दिखती है।अत: “वह इस प्रकारकी है”, ऐसा सुनिश्चितया बताना शक्य नहीं है।) (सवॅसारोपनिषद-15)
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तुमहेश्वरम्।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-4/10)
(प्रकृतिको तुम माया समजो और महेश्वरको मायापति। उसकेही अंगभूतोंसे यह समग्र विश्व व्याप्त है।)
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरुपकम्। विक्षेपशक्तिर्लिंगादि ब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत्।।
अन्तर्द्रृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयो:। आवृणोत्यपरा शक्ति: सा संसारस्य कारणम्।।
(सरस्वतीरहस्योपनिषद-52-53)
(विक्षेप और आवरण नामक मायाकी दो शक्तियाँ है। विक्षेप शक्ति लींगदेहसे ब्रह्मांड पर्यन्त जगतकी संरचना करती है। आवरण नामक अपरा शक्ति अंदरके दृष्टा-दृश्यके भेदको और बहारके परमात्मा-सृष्टिके भेदको आवृत करती है। यह आवरण शक्ति ही संसारके बंधनका कारण है।)
MEDITATION
अभेददशॅनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मन: ।
स्नानं मनोमलत्यागं शौचमिन्द़िय निग्रह:।।(मैत्रेय्युपनिषद-2/2) (स्कंदोपनिषद-11)
[(सृष्टिमें ब्रह्मका) अभेदरुप दर्शन (करना ही यथार्थ) ज्ञान है। मनका विषय रहित हो जाना हि ध्यान है। मनके (द्वन्द्वात्मक) मल का त्याग हो जाना ही स्नान है। इन्द्रियोंका (पूरा) वशमें होना ही पवित्रता है।](मैत्रेय्युपनिषद-2/2) (स्कंदोपनिषद-11)
[The perception of oneness (of Parmatma in the Creation) is called (real) Knowledge, the Meditation means the Mind that has turned devoid of subject, the renunciation of (dualistic) filth of Mind is called Bath and the Purity means the (complete) restraint on the sense organs.) (Meitriya Upanishad-2/2) (Skanda Upanishad-11).
देहेन्द्रियेषु वैराग्यं यम इत्युच्यते बुधै:।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/28)
(देह और इन्द्रियोंके प्रति पूर्ण वैराग्यको प्रबुद्धों यम कहते है।)
अनुरक्ति: परे तत्त्वे सततं नियम: स्मृत:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/29)
(परमात्म तत्त्वमें निरंतर सहज अनुराग रहे, उसको हि नियम कहते है।)
सर्ववस्तुन्युदासीनभावमासनमुत्तमम्।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/29)
(सर्व दृश्य पदार्थों प्रति चित्तमें हंमेश सहज उदासीन भाव रहे, उसको हि श्रेष्ठ आसन कहते है।)
जगत्सर्वमिदं मिथ्याप्रतीति: प्राणसंयम:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/30)
(यह जगत सब प्रकारसे मिथ्या प्रतीत होने लगे, वहि प्राणायाम है।)
चित्तस्यान्तर्मुखीभाव: प्रत्याहारस्तु सत्तम।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/30)
(चित्तके अंतर्मुखी भावको हि अत्युत्तम प्रत्याहार कहा गया है।)
चित्तस्य निश्चलीभावो धारणा धारणं विदु:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/31)
(चित्तका अचल भाव धारण करलेना हि धारणा जानी जाती है।)
सोऽहं चिन्मात्रमेवेति चिन्तनं ध्यानमुच्यते।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/31)
(परमात्मा मैं हि हुँ, ऐसे अविरत चिन्तनको (ध्येयको) हि ध्यान कहते है।)
ध्यानस्य विस्मृति: सम्यक्समाधिरभिधीयते।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/32)
(ध्यान (और ध्याता) की विस्मृति (होकर केवल ज्योतिरुप ध्येय हि बचता है तब उस स्थिति) को सम्यक् समाधि कहते है।)
स्वरुपव्याप्तरुपस्य ध्यानं कैवल्यसिद्धिदम्।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/148)
(अपने अंत:करणमें व्याप्त परमात्म तत्त्वका ध्यान कैवल्य सिद्धिकी प्राप्ति कराता है।)
समाधि: स तु विज्ञेय: सर्ववृत्तिविवर्जित:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/162)
(सर्व वृत्तियोंके त्यागको समाधि जानी जाती है।)
वेदादेव विनिर्मोक्ष: संसारस्य न चान्यथा। इति विज्ञाननिष्पत्तिर्धृति: प्रोक्ता हि वैदिके:। अहमात्मा न चान्योऽस्मीत्येवमप्रच्युता मति:। (जाबालदर्शनोपनिषद-1/18)
(वेद ज्ञानसे हि मोक्ष प्राप्त होता है, अन्य कोई कारणसे नहीं, ऐसा जो दृढ़ संकल्प है, उसको हि वेदज्ञोंने धृति कहा है। अथवा “मैं आत्मा हि हुँ, आत्मासे अलग कुछ भी नहीं हुं”, ऐसी विचलित व होनेवाली मतिको धृति कहते है।)
रागाद्यपेतं ह्रदयं वागदुष्टानृतादिना।
हिंसादिरहितं कर्म यत्तदीश्वरपूजनम्।। (जाबालदर्शनोपनिषद-2/8)
(राग आदि विकारोंसे मूक्त ह्रदय, असत्य भाषन आदि दोषोंसे मूक्त वाणी, हिंसा आदि दोषोंसे मूक्त कर्म हि ईश्वरपूजन है।)
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु स्वभावत:। बलादाहरणं तेषां प्रत्याहार: स उच्यते। यत्पश्यति तु तत्सर्वं ब्रह्म पश्यन्समाहित:।। प्रत्याहारो भवेदेष ब्रह्मविद्भि: पुरोदित:। (जाबालदर्शनोपनिषद7/1-3)
(विषय भोगोंमें स्वभाववश विचरने वाली सभी इन्द्रियोंको वहाँसे बलपूर्वक पुन: खिंचनेका जो प्रयास है, उसको प्रत्याहार कहा जाता है। मनुष्य जो कंई दिखता है वह सब ब्रह्म ही है, इस तरह जानकर उस ब्रह्ममें चित्त एकाग्र करना हि प्रत्याहार है, ऐसा ब्रह्मवेत्ता कहते है।)
मन: संकल्पकं ध्यात्वा संक्षिप्यात्मनि बुद्धिमान्।
धारयित्वा तथात्मानं धारणा परिकीर्तिता।।
(अमृतनादोपनिषद-16)
(मनको संकल्पात्मक समजकर बुद्धिमान मनुष्य मनका आत्मामें लय करके तथा (लय किये हुए मनको अपने) आत्मामें हि धारण किये रखता है (उसी क्रिया को) धारणा कहते है।)
आगमस्याविरोधेन ऊहनं तर्क उच्यते।
समं मन्येत यल्लब्ध्वा स समाधि प्रकीर्तित:।।
(अमृतनादोपनिषद-17)
(शास्त्रानुकुल शंका उपस्थित करना उसको तर्क कहते है। (ऐसी शंका के मदेनजर भी) जो भी प्राप्त होता है उसमें समभाव रखना हि समाधि कहलाती है।)
तावदेव निरोद्धव्यं ह्रदि यावत्क्षयं गतं ।
एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रंथ विस्तरा ।। (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/H) (ब्रह्मबिंदूपनिषद-5)
(मनका ह्रदयमें तबतक ही निरोध करना चाहिये जबतक उनका क्षय (यानि मनकी उन्मनी स्थिति) न हो जाय। (संपूर्ण शास्त्रोंका साररुप) यही ज्ञान है और यही मोक्ष है, बाक़ी सबतो ग्रंथका (बिनजरुरी) विस्तार ही है।)
(Only so long must the mind be confined in the heart, until it is annihilated: this truly is the knowledge as well as liberation; the rest is nothing but pedantic superfluity.)
(जयांसुधी मननो क्षय नथाय त्यांसुधीज ह्रदयमां एनो निरोध करवो जोइए । मात्र आज ज्ञान अने मोक्ष छे बाकी बीजुंतो ग्रंथनो विस्तारज छे । )
चिदचैत्या किलात्मेति सर्वसिद्धान्तसंग्रह:। (महोनिपषद-6/78)
चित् अचैत्या किल आत्मा इति (किल=खरेखर)
(निश्चयपूर्वक विषयरहित हुआ चित्तकोही आत्मा कहागया है।यह समग्र वेदोंके सिद्धान्तों का सार है)
देहस्थमनिलं देहसमुद्भूतेन वह्निना। न्यूनं समं वा योगेन कुर्वन्ब्रह्मविदिष्यते।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/55)
(शरीरमें स्थित वायुका (प्राणायाम द्वारा) शरीरमें उत्पन्न हुए अग्निके साथ योग करके उनको न्यून, सम या योग करके ब्रह्मको जाना जा सकता है।)
तस्योर्ध्वे कुण्डलीस्थानं नाभेस्तिर्यगथोर्ध्वत:।। अष्टप्रकृतिरुपा सा चाष्टधा कुण्डलीकृता।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/62-63)
योगकालेन मरुता साग्निना बोधिता सती।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/65)
(योगके अभ्याससे समय आनेपर वायु और अग्निके योगसे वह जाग्रत होती है।)
नासाग्रन्यस्तनयनो दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन।।
रसनां तालुनि न्यस्य स्वस्थचित्तो निरामय:।
आकुंचितशिर: किंचिन्निबन्धन्योगमुद्रया हस्तौ।।
प्राणायाम समाचरेत्।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/92-94)
(नासिकाके अग्रभागपर दृष्टिको जमाकर, दाँतोसे दाँतका स्पर्श न करते हुए, जिह्वाको तालुनिमें लगाकर, स्वस्थ चित्त और निरामय भावसे, शिरको थोड़ासा संकुचन करके, दोनों हाथोंको योगमुद्रामें बाँधकर प्राणायामका अभ्यास करना चाहिये।)
पूरितं कुम्भयेत्पश्चाच्चतु:षष्टया तु मात्रया। द्वात्रिंशन्मात्रया सम्यग्रेचयेत्पिंगलानिलम्।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/97)
(इसतरह यह चार विधियोंसे वायुको गतिशील करनेकी क्रियाको प्राणायाम कहते है। दाहिने हाथसे नासिकाके छिद्रको दबाकर वायुको पिंगलासे बहार निकालो। त्यारबाद सोलह मात्रामें इड़ा (बाँयी) नासिकासे वायुको भितर खेंचो। बाद 64 मात्रासे कुंभक करो। बाद 32 मात्रासे वायुको पिंगला (दाहिने) नासिका द्वारा बहार निकालो। बादमें 16 मात्रातक वायुको बिना लिये रोकेरखो।
इसतरह बारंबार सीधे उल्टे क्रमसे नियमित अभ्यास करिये।)
ध्यायतो योगिनस्तस्य मुक्ति: करतले स्थिता।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/158)
((परब्रह्मका)ध्यान करनेवाले योगीको मूक्ति अपने हाथमें है।)
तपेद्वर्षसहस्त्राणि एकपादस्थितो नर:। एतस्य ध्यानयोगस्य कलां नार्हति षोडशीम्।। (पेंगलोपनिषद-4/21)
(अगर कोइ पुरुष एक पैर पर खड़ा रहकर एक हज़ार वर्षतक तप करता है, फीरभी वह ध्यानयोगकी सोड कलाओं मेंसे एककी भी बराबर नहीं आता।)
तथेन्द्रियकृता दोषा दह्यन्ते प्राणधारणात्।। (अमृतबिंदुपनिषद-7)
(वैसेही समस्त इन्द्रियाँ द्वारा किये दोषों प्राणायाम द्वारा भस्म हो जाते है।)
अहमस्मीत्यभिध्यायेयातीतं विमुक्तये।। (जाबालदर्शनोपनिषद-9/5)
((परमात्मा) मैं स्वयम् ही हूँ , इसतरह किया हुआ ध्यान मोक्ष प्राप्त करानेवाला है।)
ध्यायतो योगिनस्तस्य मुक्ति: करतले स्थिता।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/158)
((परब्रह्मका)ध्यान करनेवाले योगीको मूक्ति अपने हाथमें है।)
ध्यानं निर्विषयं मन:। (मैत्रेय्युपनिषद-2/2) (स्कंदोपनिषद-11) (मनका विषयों से रहित हो जाना हि ध्यान है।) (Meditation means a Mind that turned devoid of subject.) (Skanda Upanishad-11) (Meitreya Upanishad-2/2).
अहमस्मीत्यभिध्यायेयातीतं विमुक्तये।। (जाबालदर्शनोपनिषद9/5)
((परमात्मा) मैं स्वयम् ही हूँ , इसतरह किया हुआ ध्यान मोक्ष प्राप्त करानेवाला है।)
स्वसंकल्पे क्षयं याते समतैवावशिष्यते । (महोपनिषद-6/3) (अपने संकल्पोंका क्षय होते ही समत्वभाव ही बाक़ी रहता है।)
सवॅं त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्त्यज । (महोपनिषद-6/5-6)
(सबका त्याग करके (अंतमें) जिससे सब छोड़ते हो उनका भी त्याग कर दो।)
यथा निर्वाणकाले तु दिपो दग्ध्वा लयं व्रजेत।
तथा सर्वाणि कर्माणि योगी दग्ध्वा लयं व्रजेत।। (क्षुरिकोपनिषद-23)
(जैसे निर्वाणकालमें ( बूझनेके वक़्त) दीप ज्योति (दिपककी बाट और तैल) सबको जलाकर स्वयं परम प्रकाशमें लीन हो जाती है, वैसे ही योगी अपने सभी कर्मोंको भस्म करके परमात्मामें लीन हो जाता है।)
अमृतत्वं समाप्नोति यदा कामात्प्रमुच्यते।
(क्षुरिकोपनिषद-25)
(जब सर्व कामनाओंका त्याग हो जाता है, तब पुरुष अमृतत्वको प्राप्त हो जाता है।)
तालुमूलोर्ध्वभागे महान् ज्योतिर्मयूखो वर्तते।
तद्योगिभिर्ध्येयम्। तस्मादणिमादिसिद्धिर्भवति।।
(अद्वयतारकोपनिषद-11)
(तालुमूलके उर्ध्वभागमें महान ज्योति किरन मंडल स्थित है। योगी उनका ध्यान करते है। उससे हि अणिमा विगेरह सिद्धियाँ प्राप्त होती है।)
MIND
यदेतत् ह्रदयं मनश्चैतत्। (ऐतरयोपनिषद-3/1/2) (जो यह ह्रदय है, मन भी वही है।)
मनो ह वा आयतनम्। (छांदोग्योपनिषद 5/1/5) (अवश्य मन ही आयतन (आश्रय)शरीर है)
प्राणबंधनं हि सोम्य मन । (छांदोग्योपनिषद-6/8/2)
(हे सौम्य! मन प्राणरुप बंधनवाला है)
एष एव मनोनाशस्त्वविद्यानाश एव च। (महोपनिषद-4/109)
(जो मनका विनाश है, उसको ही अविद्याका नाश कहा जाता है।)
मन: समुदितं परमात्मतत्त्वात्। (महोपनिषद-5/52)
(मन परमात्मा में से उत्पन्न हुआ है।)(महोपनिषद-5/52)
(The Mind has born out of Parmatma.)
(Maha Upanishad-5/52).
मनसो विजयान्नान्या गतिरस्ति भवार्णवे। (महोपनिषद-5/76)
(यह संसारसागरमें मनके पर विजय प्राप्त करनेके अलावा (जीवनका) और कोई ध्येय नहीं है।)
भृत्योऽभिमतकर्तृत्वान्मन्त्री सर्वार्थकारणात्।
सामन्तश्चेन्द्रियान्क्रान्तेर्मनो मन्ये विवेकिन:।। (महोपनिषद-5/79)
(विवेकशील मनुष्यों अपने मनको अभिष्टकी सिद्धिके लिये सेवककी तरह, सभी प्रयोजनोंकी पूर्ति हेतु मंत्रीकी तरह और इन्द्रियों पर नियंत्रणके लिये सामंतरुप बना लेते है ऐसा मैं मानता हुँ ।)
मनोबुद्धिरहंकारश्चित्तमित्यन्तःकरणचतुष्टयम् । (शारीरकोपनिषद-4)
(मन बुद्धि चित और अहंकार यह चारोंका समूह अंतःकरण कहलाता है। )
मनःस्थानं गलान्तं बुद्धेवॅदनमहंकारस्य ह्रदयं चित्तस्यनाभिरिति । (शारीरकोपनिषद-4)
(मनका स्थान कंठका अंतिम भाग, बुद्धिका स्थान मुख, चित्तका स्थान नाभी अौर अहंकारका स्थान ह्रदय कहलाता है।)
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपंचकैर्मनसा धिया। शरीरं सप्तदशभि: सुसूक्ष्मं लिंगमुच्यते।। (शारीरकोपनिषद-16)
(ज्ञानेन्द्रिय (पाँच), कर्मेन्द्रि (पाँच), पांच प्राण, मन और बुद्धि यहसतरहका सत्रहका समूह सूक्ष्म शरीर लींग शरीर कहलाता है)
अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राभियुज्यते।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र संजायते मन:।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-2/6)
(जहाँ अग्निका मंथन होता है, जहाँ प्राणवायुका विधिवत निरोध होता है, जहाँ सोमरसका प्रचुर आनंद प्रगट होता है, वहाँ मन हंमेशा शुद्ध हो जाता है।)
मन अेव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयौ: ।
(मन ही मनुष्यके बन्धन या मूक्तिका कारणरुप है।)
(ब्रह्मबिंदुउपनिषद-2) (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/K)
तावदेव निरोद्धव्यं ह्रदि यावत्क्षयं गतं मनो।
एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रंथ विस्तरा।। (ब्रह्मबिंदूपनिषद-5)
(मनका ह्रदयमें तबतक ही निरोध करना चाहिये जबतक उनका क्षय (यानि मनकी उन्मनी स्थिति) न हो जाय। (संपूर्ण शास्त्रोंका साररुप) यही ज्ञान है और यही मोक्ष है, बाक़ी सबतो ग्रंथका (बिनजरुरी) विस्तार ही है।)
यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहु: परमां गतिम्।। (कठोपनिषद-2/3/10)
(जब मनके साथ पाँचो ज्ञानेन्द्रिय (आत्मतत्वमें) स्थिर हो जाती है, और बुद्धिभी चेष्टा रहित हो जाती है, तब वह परम स्थिति कहलाती है।)
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन। मृत्यौ: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
(कठोपनिषद-2/2/11)
मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यौ: स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।।
(बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/19)
MOKSHA
भिद्यते ह्रदयग्रन्थि छिद्यन्ते सवॅसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
(जब साधक प्रकृतिविषयक समझ को आत्मसात कर लेता है, तो उसके सब संशयों का निराकरण हो जाता है, उसके सब कर्मों क्षीण हो जाते है, उसका सूक्ष्म शरीर का विभाजन हो जाता है, (जो तुरन्त हि उसको कैवल्य को उपलब्ध करा देता है।)(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
[When the seeker assimilates the understanding about the Nature, then all his doubts get allayed, all his actions get waned, his Subtle Body gets disunited, (which instantly avails him to Keivalya)]
(Mundaka Upanishad-2/2/8).
(Maha Upanishad-4/82). (Saraswatirahasya Upanishad-67)
सत्कर्मपरिपाकतो बहुनां जन्मनामन्ते नृणां मोक्षेच्छा जायते। (पेंगलोपनिषद-2/17)
(बहुत जन्मोंके बाद जब सदकार्योंका फल मिलता है, तब मोक्षकी इच्छा पेदा होती है।)
तस्मान्मुमुक्षुभिर्नैव मतिर्जीवेशवादयो:।
कार्या किंतु ब्रह्मतत्त्वं निश्चलेन विचार्यताम्।। (महोपनिषद-4/75)
(अत: जो पुरुष मोक्षकी आकांक्षा रखता है, वह जीव-ईश्वरके विवादमें अपनी बुद्धिको भ्रमित न करते हुए द्रढतासे ब्रह्मतत्त्वका ही चिंतन करे)
यथा फेनतरंगादि समुद्रादुत्थितं पुन: समुद्रे लीयते। तद्वज्जगन्मय्यनुलीयते।। (जाबालदर्शनोपनिषद-10/6)
(जैसे समुद्रसे उत्पन्न फिण और लहरें वापस समुद्रमें विलीन हो जाते है, वैसे ही जगत (मेरेमेंसे उत्पन्न होकर) मेरेमें ही विलीन हो जाता है।)
वेदादेव विनिर्मोक्ष: संसारस्य न चान्यथा। (जाबालदर्शनोपनिषद-1/18)
(ज्ञानसे ही संसार से मोक्ष (मिलता) है और अन्य कीसी (मार्ग) से नहीं।) (जाबालदर्शनोपनिषद-1/18)
(The Salvation from the Sansaar happens through the Knowledge only and not through any other (recourse).(Jabaladarshana Upanishad-1/18)
अज्ञानादेव संसारो ज्ञानादेव विमुच्यते। (योगतत्वोपनिषद-16)
(अज्ञानसे हि संसार है, ज्ञानसे ही (संसारसे) मूक्ति हो जाती है)(योगतत्वोपनिषद-16)
(It is because of Ignorance that the Sansaar survives, the Knowledge instantly liberates (from the Sansaar). (Yogatattva Upanishad-16).
किं ब्रह्मस्वरुपमिति। अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति ये विदुस्ते पशवो। तमेवं ज्ञात्वा विद्वान्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (नारद परिव्राजकोपनिषद-9/1) (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/8)
[(ब्रह्माजीने नारदजीको कहा:) ब्रह्म का स्वरुप (हमारे अपने स्वरुप से।) और क्या है? ब्रह्म दूसरा है और मैं दूसरा हूँ, इस प्रकार जो जानता है, वह पशु है; जो स्वभाव से पशु योनि में उत्पन्न हैं, केवल उन्हीं का नाम पशु नहीं है। उन परमात्मा को इस प्रकार (सर्वात्मा और सर्वरूप) जानकर विद्वान लोग मृत्युके मुख से (सदा के लिए) छूट जाते है। (इस ब्रह्म ज्ञान) के सिवा दूसरा कोई मार्ग मोक्ष की प्राप्ति करानेवाला नहीं है।] (नारद परिव्राजकोपनिषद-9/1) (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/8)
[(Brahma Ji replies to Narad Ji:) what else is the form of Parmatma (other than our own form)? Not that who has naturally born in the specie of beast is only a beast; but one who deduces that he and Parmatma are separate from each other is also a beast. The erudite having known Parmatma thus (as all beings together and assuming all forms), frees oneself from the mouth of death. There happens no recourse that is availing Salvation, other than this (Knowledge of Parmatma)]. (Naradaparivrajaka Upanishad- 9/1)(Shwetashwatara Upanishad-3/8).
ब्रह्मविदाप्नोति परम्। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1) (ब्रह्मवेत्ता परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। )
मनोविकल्पसंजातं तद्विकल्पपरिक्षयात् क्षीयते संसारो। (महोपनिषद-2/34)l
(मनके विकल्पमेंसे संसारिक प्रपंचका प्रादुर्भाव होता है, और विकल्पका नाश होते ही इस प्रपंचका भी नाश हो जाता है।)
असंशयवतां मुक्तिः संशयाविश्टचेतसाम् नमुक्तिजॅन्मजन्मान्ते । (मैत्रेय्युपनिषद-2/16)
जे संशय रहित छे ते मुक्ति मेलवी लेँछे । जेने संशयछेते अनेक जन्मोना अंते पण मुक्ति मेलवी शक्ता नथी। )
करतलामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य । (वज्रसूचिकोपनिषद-9)
अपरोक्ष अनुभूति (मूक्ति) हथेलीमें रखा आमला (देखना) सरल है, (उतनी सरल है)) Experiencing Realisation to of God is as easy as to behold an Aamla in hand-(Vrajsoochikopanishad-9).
देहाभिमान गलिते विज्ञाते परमात्मनि। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-66)
(देहाभिमान नष्ट होनेसे अपनेमें ही परमात्माकी अनुभूति संप्राप्त होती है।)
मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो न हि। इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशय:।।
(सरस्वतीरहस्योपनिषद-68)
(मेरेमें जीवत्व-इशत्वका भेद कल्पित है, वास्तवमें नहीं है। यह जो जान लेता है, वह मूक्त ही है; इसमें कोई संशय नहीं है।)
आत्मेश्वरजीवोअनात्मनां देहादीनामात्मत्वेनाभिमन्यतेसोअभिमान आत्मनो बंन्धः। तन्निवृत्तिर्मोक्ष: ।
(सवॅसारोपनिषद-2)
(आत्मा ईश्वर छे अनात्म भाव जीवछे । देहादि विगेरेमां आत्मापणुं मानवुं अेज पोतानुं बंधनछे । तेनी निवृत्ति ज मोक्षछे ।)
यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहु: परमां गतिम्।। (कठोपनिषद-2/3/10)
(जब मनके साथ पाँचो ज्ञानेन्द्रिय (आत्मतत्वमें) स्थिर हो जाती है, और बुद्धिभी चेष्टा रहित हो जाती है, तब वह परम स्थिति कहलाती है।)
संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं मुने। कथं च प्रशमं याति। (महोपनिषद-2/15)
(शुकदेवजी व्यास भगवान से पूछते है की हे मुनी! यह जगतरुपी प्रपंचका प्रगट्य कैसे हुआ और यह कैसे नाश हो जाता है?।)
संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं गुरो। कथं च प्रशममायाति। (महोपनिषद-2/30)
(शुकदेवजी जनक राजा से पूछते है की हे गुरुवर्य! यह जगतरुपी प्रपंचका प्रगट्य कैसे हुआ और यह कैसे नाश हो जाता है?।)
मनोविकल्पसंजातं तद्विकल्पपरिक्षयात् क्षीयते संसारो। (महोपनिषद-2/34)
(मनके विकल्पमेंसे संसारिक प्रपंचका प्रादुर्भाव होता है, और विकल्पका नाश होते ही इस प्रपंचका भी नाश हो जाता है।)
रज्जुबद्धा विमुच्यन्ते । तृष्णाबद्धा न केनचित्।।(महोपनिषद-6/39)
(दोरडीथी बंधायेल छूटी जाय परंतु तृष्णाथी बंधायेलकोइरीते नहिं)
तेषामेव पुनर्भवनं नो इहास्ति। स यथा मृत्पिंडे घटानां तन्तौ पटानां तथैवेति भवति।।(स्वसंवेद्योपनिषद1A)
[(जो ब्रह्मलीन हुए है) उसका इस जगत में पुनर्जन्म नहीं होता।उसकी स्थिति, जैसे माटी के पिंड में कुंभकी और तंतुओंमें कपड़े की होती है, वैसी ही होती है।) (स्वसंवेद्योपनिषद1A)
[Those ( who have been absorbed in Parmatma,) don’t have rebirth in this world. Their position is just like as the earthen pot has in the lump of soil and the cloth has in the yarns](Svasanvedya Upanishad-1A)
PARA VIDYA AND APARA VIDYA
न वै सोम्यास्मत्कुलीनोऽननूच्य ब्रह्मबन्धुरिव भवतीति। (छांदोग्योपनिषद -6/1/1)
(हमारे कुलमें जन्म लेनेवाला बालक ब्रह्मविद्याके बिना अध्ययन किये ब्राह्मण नहीं बनता)
येनाश्रुतंश्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातमिति स उपदेशो भवतीति।(छांदोग्योपनिषद -6/1/3) (( पिता उदालने पुत्र श्वेतकेतुसे पूछा:) जीस उपदेशके द्वारा अश्रुत श्रुत हो जाता है, मनन नहीं किया है वह मननीय और अज्ञानी विशेष ज्ञानी हो जाता है, वह उपदेश तुमने प्राप्त कर लिया है?).
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सवॅमिदं विज्ञातं भवतीती । (मुंडकोपनिषद-1/1/3)
हे भगवान अेवुं शुं छे जे जाणी लेवाथी बधुंज जाणीलीधेलुं थइ जायछे ।
“Oh Lord, what is that which if known, then what is unknown, also becomes known”?
अन्यविद्यापरिज्ञानमवश्यं नश्वरं भवेत्।
ब्रह्मविद्यापरिज्ञानं ब्रह्मप्राप्तिकरं स्थितम्।। (शुकरहस्योपनिषद-44)
(अन्य विद्याका अच्छी तरहसे प्राप्त किया हुआ ज्ञान, अवश्य नश्वर है; किंतु ब्रह्मविद्याका अच्छी तरह प्राप्त किया हुआ ज्ञान ब्रह्म प्राप्तिमें समर्थ है।)
PARMATMA CANNOT BE REALISED THROUGH EPHEMERAL APPLICATIONS.
न ह्यध्रृवै: प्राप्यते हि ध्रुवं तत्। (कठोपनिषद-1/2/10) ( नश्वर साधनोसे उस अनश्वरकी प्राप्ति नहि हो शक्ती)
“What is immortal can’t be achieved by the mortal applications”. (Katha Upanishad-1/2/10.)
PARMATMA LIVES IN MURDHANI, BRAHMRANDHRA.
प्रत्यगानन्दरुपात्मा मूध्निॅ स्थाने परे पदे । (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/9)
(प्रत्यक आनन्दमय आत्मानु परम पद मूर्धा स्थानछे ।)
स एतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषाविदृतिर्नाम द्वारस्तदेतन्नान्दनम्। तस्य त्रय आवसथास्त्रय:स्वप्ना अयमावसथोऽयमावसथोऽयमावसथइति।। (ऐतरयोपनिषद-1/3/12)
(वह परमात्मा मानव शरीरकी सीमा मूर्धा (ब्रह्मरंध्र)कोचीरकर (विदीर्ण करके) उसमें प्रवेश हो गये। विदीर्णकरनेसे उसको विदृति नामका द्वार कहा जाता है, यहद्वार आनंदरुप परमात्माकी प्राप्ति कराता है। उसपरमात्माके तीन आश्रय स्थान है और तीन स्वप्न है।यही उसका आवास स्थल है यही उसका आवासस्थल है यही उसका आवास स्थल है)
(Three places: Body, Nature, Inexhibitive)
(शरीर। प्रकृति। अव्यक्त)
(Three dreams: make efforts through body, get tuned with the Nature, and prepare for the voyage to inexplicable)
ब्रह्मांडब्रह्मरन्ध्राणि समस्तव्यष्टिमस्तकान्विदार्य तदेवानुप्राविशत्। (पेंगलोपनिषद-1/11).
(वह (ब्रह्म) समस्त व्यष्टिके मस्तकको चिरके ब्रह्मांड-ब्रह्मरंध्रसे उसमें ही प्रवेश कर गये।)
PARMATMA RULES OVER THE ENTIRE NATURE
य एको जालवानीशत ईशनीभि: सर्वांल्लोकानीशत ईशनीभि:।
य एवैक उद्भवे संभवे च य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/1)
( जो एक मायापति, अपनी प्रभुता संपन्न शक्तियोंद्वारा संपूर्ण लोकोंपर शासन करता है, जो अकेला ही सृष्टिकी उत्पत्ति और विकासके लिये समर्थ है, उस (परम पुरुष)को जो विद्वान जान लेता है वह अमर हो जाते है।)
भीषाऽस्माद्वातः पवते । भीषोदेति सूयॅ:।भीषाऽस्मादग्निश्चेन्द्रश्च। मृत्युर्धावति पंचम इति । (तैत्तिरीयोपनिषद-2/8/1)
(उसके भयसे वायु वाता है, उसके ही भयसे सूर्य निकलता है, और उनके ही भयसे अग्नि, इन्द्र और पाँचवा मृत्यु दौड़ता है।)
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य:।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचम:।। (कठोपनिषद-2/3/3)
PRAKRUTI, NATURE
ल्लोहितशुक्लकृष्णगुणमयी गुणसाम्यानिर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत्। (पेंगलोपनिषद-1/3)
(जिसका वर्णन नहीं हो सक्ता है, जिसमें सत्त्व, रजस और तमस तीनों गुण की साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) है वैसी मूलप्रकृति (ब्रह्ममेंसे) उत्पन्न हुइ।) “This primordial Nature, which is beyond the description in the words, which has (a System that maintains) the equanimity of Sattva, Rajas, and Tamas Gunas; was born (from the Parmatma)”. (Pengal Upanishad-1/3).
प्रकृतित्वं तत: सृष्टं सत्त्वादिगुणसाम्यत:। (सरस्वती रहस्योपनिषद-47) (तत् पच्याद् सत्त्व, रजस, तमस गुणके साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) वाली यह प्रकृतिकी रचना संपन्न हुई।). “Then the creation of this Nature was accomplished, which has (a System that maintains) the equanimity of Sattva, Rajas, and Tamas”. (Saraswati Rahasya Upanishad-47)
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति:।। (सांख्यदर्शन-1/61). (प्रकृति; (तीनों गुण) सत्त्व, रजस और तमसकी साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) है।) (The Nature (is a System that maintains) the equality of (Three Gunas) Sattva, Rajas, and Tamas). (Sankhyadarshan-1/61.).
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तुमहेश्वरम्।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-4/10)
(प्रकृतिको तुम माया समजो और महेश्वरको मायापति। उसकेही अंगभूतोंसे यह समग्र विश्व व्याप्त है।) (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/10)
(You should find the Nature as Maya (illusion) and Maheshwar as conjurer. This entire universe prevails with their components.) (Shwetashwatar Upanishad-4/10.)
माया नाम अनादिरन्तवती प्रमाणाप्रमाणसाधारणा न सती नासती न सदसती स्वयमधिका विकाररहिता निरुप्यमाणा सतीतरलक्षनशून्या सा मायेत्युच्यते।अज्ञानं तुच्छाप्यसती कालत्रयेऽपि पामराणां वास्तवी च सत्त्वबुद्धिर्लौकिकानामिदमित्यनिवॅचनीया वक्तुं न शक्यते।। (सवॅसारोपनिषद-15)
(माया नाम अनादि है, विनष्टप्राय है। वह न सत है, न असत है और नहीं सतअसत है। वह स्वयं ही अधिका है, विकार रहिता है।जैसे कि अन्य लक्षणों से रहित है ऐसा निरुपण हो सकता है, उसे माया ऐसा कहा जाता है। यह मायाशक्ति तुच्छ, अज्ञानरुप और मिथ्या भी है, फिर भी मूढ़ों को जैसे कि वह तीनों कालों में (हंमेशा) वास्तविक है, ऐसी दिखती है।अत: “वह इस प्रकारकी है”, ऐसा सुनिश्चितया बताना शक्य नहीं है।) (सवॅसारोपनिषद-15)
सा पुनर्विकृतिं प्राप्य सत्त्वोद्रित्त्काऽव्यक्ताख्यावरणशक्त्तिरासीत्। तत्प्रतिबिम्बितं यत्तदीश्वरचैतन्यमासीत्।
प्राणीकर्मवशादेष पटो यद्वत् प्रसारित: प्राणीकर्मक्षयात् पुनस्तिरोभावयति। (पेंगलोपनिषद-1/4)
( जब वह ( प्रकृति) फिरसे विकार युक्त हो गइ तो उसे स्त्त्वगुणयुक्त अव्यक्त आवरण शक्ति कहा जाने लगा। उसमें जो चैतन्य प्रतिबिम्बित हुआ वह ईश्वर है। वह ईश्वर प्राणीओंके कर्मानुसार (फल देने हेतु जरुरत पडनेपर) यह विश्वरुपी पटको वस्त्रकी तरह प्रसारते है, और कर्म नष्ट होनेपर (जरुरत न रहनेपर यह विश्वरुपी पटको वस्त्रकी तरह ) सिमट भी लेते है।)
स्त्रष्टुकामो सूक्ष्मतन्मात्राणि भूतानि स्थूलीकर्तुं सोऽकामयत। (पेंगलोपनिषद-1/7)
(सृष्टिकी रचना हेतु (ईश्वरने) सूक्ष्म तन्मात्राओंको स्थूल पंतत्त्वोंमें स्थापित करनेकी कामना कि।)
चैतन्यं ब्रह्म । ब्रह्मैव स्वशक्तिं प्रकृत्यभिधेयामाश्रित्य लोकान्सृष्टवा प्रविश्यान्तर्यामीत्वेन ब्रह्मादिनां बुद्धिन्द्रियनियन्तृत्वादीश्वरः। (निरालंबोपनिषद-4)
(चैतन्य ब्रह्म है । यह ब्रह्म जब अपनी प्रकृति (शक्ति)के सहारे लोकोंका सजॅन करते है अौर अंतर्यामीरुपे इसमें प्रवेश करके ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा बुद्धि और इन्द्रियोंको वशमें करते है, तब ईश्वर कहलाते है ।)
प्रकृतिरिति च ब्रह्मण: सकाशान्नाविचित्रजगन्निर्माणसामर्थ्यबुद्धिरुपा ब्रह्मशक्तिरेव प्रकृति:।। (निरालंबोपनिषद-6)
(प्रकृति इसको कहते है, जो ब्रह्मके सान्निध्य मात्रसे भिन्न-भिन्न विचित्र जगतके निर्माणके सामर्थ्यकलारुप है। ब्रह्मकी जो शक्ति है, वही प्रकृति है।)
अष्टप्रकृतिरुपा सा कुण्डली मुनिसत्तम।। (जाबालदर्शनोपनिषद-4/11)
(हे मुनि कुंडलिनीको अष्ट प्रकृति रुपा (पृथ्वी, जल, तेज़, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार युक्त) कही जाती है।)
शरीरं षण्णवत्यगुंलात्मकं भवति। शरीरात्प्राणो द्वादशांगुलाधिको भवति।। (शाण्डिल्योपनिषद-1/4/2).
(शरीर छीया नब्बे अंगुली प्रमाणका है। प्राण शरीरसे बारह अंगुली प्रमाण ज़्यादा बड़ा होता है।)
(The length of human body is 96 fingers and the measurement of Vital forces or Pranas from body is 12 fingers.)(Shandilya Upanishad-1/4/2)
देहमानं स्वांगुलिभि: षण्णवत्यअंगुलायतम्। प्राण: शरीरादधिको द्वादशाअंगुलमानत:। । (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/54)
(मनुष्य देहका माप अपनी 96 अंगुलीओं के बराबर होता है।शरीरसे 12 अंगुलीओं ज़्यादा माप प्राणका होता है)
(The length of human body is 96 fingers and the measurement of Vital forces or Pranas from body is 12 fingers.) (Trishikh Brahman Upanishad-2/54)
नाभेस्तिर्यगध ऊर्ध्वं कुण्डलिनी स्थानम्। अष्टप्रकृतिरुपाऽष्टधा कुण्डलीकृता कुण्डलिनी शक्तिर्भवति।। (शाण्डिल्योपनिषद-1/4/8).
(नाभीसे तीरछी नीचे उपर कुण्डलिनी क्षेत्र आया हुआ है। अष्ट प्रकृतिरुपा कुण्डलिनीशक्ति आठ कुंडली बनाकर रही हुइ है।)
तस्योर्ध्वे कुण्डलीस्थानं नाभेस्तिर्यगथोर्ध्वत:।। अष्टप्रकृतिरुपा सा चाष्टधा कुण्डलीकृता।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/62-63)
योगकालेन मरुता साग्निना बोधिता सती।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/65)
सुषुम्नाया: सव्यभागे इड़ा तिष्ठति। दक्षिणभागे पिंगला। इडाया चन्द्रचरति। पिंगलाया रवि:। तमोरुपश्चंन्द्र:। रजोरुप रवि:।। (शाण्डिल्योपनिषद-1/4/11).
(सुषुम्णा नाड़ीके बाँयी और इड़ा नामकी और दाहिनी और पिंगला नामकी नाडी रही है। इड़ामें चन्द्र और पिंगलामें सूर्य संचरित होता है। चन्द्र तमोरुप और सूर्य रजोरुप है।)
प्रकृत्यष्टकरुपं च स्थानं गच्छति कुण्डली। (योगकुण्डल्युपनिषद-1/74)
(और इसतरह यह अष्टधारुप (पंच तत्त्वों और मन, बुद्धि अहंकार) कुंडलिनी शक्ति स्थानकी और गती करती है।)
सुषुम्नाया इड़ा सव्ये दक्षिणे पिंगला स्थिता। (जाबालदर्शनोपनिषद-4/13)
(सुषुम्नाके बांये भागमें इड़ा और दाहिने भागमें पिंगला रही हुइ है।)
सुषुम्नाया: शिवो देव उड़ाया देवता हरि: पिंगलाया विरंचि। (जाबालदर्शनोपनिषद-4/36)
अग्निं विद्धि त्वमेतन्निहितं गुहायाम्।। (कठोपनिषद-1/1/14)
((नचिकेत संसारकी आधाररुप) इस अग्निको तुम गुफ़ामें (गुप्त) रही हुइ समजो)
चित्तका स्थान नाभी है। नाभीको गुफ़ाभी कहा जाता है। कुंडलीनीका स्थान भी नाभी कहा जाता है जो विश्वउर्जा का रुप कही जाती है। यहाँ यम नचिकेतको यह कुंडलिनी विद्या दे रहे है।
ल्लिंगशरीरं ह्रदयग्रन्थिरित्युच्यते। (सवॅसारोपनिषद-7) (लिंग शरीरको ही ह्रदयग्रंथी कहते है।)
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपंचकैर्मनसा धिया। शरीरं सप्तदशभि: सुसूक्ष्मं लिंगमुच्यते।। (शारीरकोपनिषद-16)
(ज्ञानेन्द्रिय (पाँच), कर्मेन्द्रि (पाँच), पांच प्राण, मन और बुद्धि यहसतरहका सत्रहका समूह सूक्ष्म शरीर लींग शरीर कहलाता है)
पृथिव्यादिमहाभूतानां समवायं शरीरं। (शारीरकोपनिषद-1)
(पृथ्वि आदी पाँच महाभूतोनो समुदाय आ शरीरछे । )
तदेव स्थूलशरीरम्। कर्मेन्द्रियै: सह प्राणादिपंचकं प्राणमयकोश:। ज्ञानेन्द्रियै: सह मनो मनोमयकोश:। ज्ञानेन्द्रियै: सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोश:। एतत्कोशत्रयं लिंगशरीरम्। स्वरुपाज्ञानमानन्दमयकोश:। तत् कारणशरीरम्।। (पेंगलोपनिषद-2/4)
(यही स्थूल शरीर है। कर्मेन्द्रियोंके साथ पाँच प्राण मिलकर प्राणमयकोश, ज्ञानेन्द्रियोंके साथ मन मिलकर मनोमयकोश, और ज्ञानेन्द्रियोंके साथ बुद्धि मिलकर विज्ञानमयकोश बनता है। यही तीनों कोश मिलकर लिंग शरीर बनता है। जहाँ अपनेका बोध नहीं रहता वह आनन्दमयकोश है, उसको ही कारण शरीर कहते है।)
मनोबुद्धिरहंकारश्चित्तमित्यन्तःकरणचतुष्टयम् । (शारीरकोपनिषद-4)
(मन बुद्धि चित और अहंकार यह चारोंका समूह अंतःकरण कहलाता है। )
मनःस्थानं गलान्तं बुद्धेवॅदनमहंकारस्य ह्रदयं चित्तस्यनाभिरिति । (शारीरकोपनिषद-4)
(मननुं स्थान गलानो छेल्लो भाग बुद्धिनुं स्थान मुख चित्तनुंस्थान नाभी अने अहंकारनुं स्थान ह्रदय कहेवायछे । )
प्रकृतित्वं तत: सृष्टं सत्त्वादिगुणसाम्यत:। (सरस्वती रहस्योपनिषद-47) (तत् पच्याद् सत्त्व, रजस, तमस गुणके साम्यावस्था वाली यह प्रकृतिकी रचना संपन्न हुई।). (सरस्वती रहस्योपनिषद-47) (Then the creation of Nature, which has the equanimity of Sattva (existence or Neutron), Rajas (procreation or Proton), and Tamas (eliminating or Electron); was completed). (Saraswati Rahasya Upanishad-47)
जगत्कर्तुमकर्तु वा चान्यथा कर्तुमीशते। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-51)
(परमात्मा जगतकी रचना करने न करने और उनसे अलग कुछभी करने समर्थ है)
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरुपकम्। विक्षेपशक्तिर्लिंगादि ब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत्।।
अन्तर्द्रृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयो:। आवृणोत्यपरा शक्ति: सा संसारस्य कारणम्।।
(सरस्वतीरहस्योपनिषद-52-53)
(विक्षेप और आवरण नामक मायाकी दो शक्तियाँ है। विक्षेप शक्ति लींगदेहसे ब्रह्मांड पर्यन्त जगतकी संरचना करती है। आवरण नामक अपरा शक्ति अंदरके दृष्टा-दृश्यके भेदको और बहारके परमात्मा-सृष्टिके भेदको आवृत करती है। यह आवरण शक्ति ही संसारके बंधनका कारण है।)
अस्ति भाति प्रियं रुपं नाम चेत्यंशपंचकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरुपं जगद्रूपं ततो द्वयम् । (सरस्वतीरहस्योपनिषद-58)
(अस्ति (है), भाति (आभास होता है), प्रिय (आनंदस्वरुप) , रुप अौर नाम यह पाँच अंश कहे गये है । पहेले तीन ब्रह्म रुप अौर पीछले दो जगतरुप कहे गये है । )
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तुमहेश्वरम्।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-4/10)
(प्रकृतिको तुम माया समजो और महेश्वरको मायापति। उसकेही अंगभूतोंसे यह समग्र विश्व व्याप्त है।)
तमोमायात्मको रुद्र: सात्विकमायात्मको विष्णू राजसमायात्मको ब्रह्मा।
(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद-पूर्वकांड-10)
(रुद्र तमोगुणी मायारुप है, विष्णु सत्त्वगुणी मायारुप है और ब्रह्मा रजोगुणी मायारुप है।)
(The Shiva is Tamas part of Nature, Vishnu is Sattva part of Nature and Brahma is Rajas part of Nature.)
राजसोंअशोअसौ ब्रह्मा: तामसोंअशोअसौ रुद्र: सात्त्विकोंअशोअसौ स एव विष्णुः । (मैत्रायण्युपनिषद-4/5)(
(उस परमात्माके रजोगुण अंशको ब्रह्मा, तमोगुण अंशको रुद्र और सत्त्वगुण अंशको विष्णु कहते है।) (मैत्राण्युपनिषद-4/5)
(The Parmatma’s Rajas part is known as Brahma, Tamas part is known as Shiva and Satva part is known as Vishnu- Meitrannyyu Upanishad-4/5).
(अे परमात्माना रजोगुण अंशने ब्रह्मा तमोगुण अंशने रुद्रसत्वगुण अंशने विष्णु कहेवायछे । )
सर्वदाऽनविच्छिन्नं परं ब्रह्म तस्माज्जाता परा शक्ति: स्वयंज्योतिरात्मिका।आत्मन आकाश: संभूत:।आकाशाद्वायु:।वायोरग्नि:।आग्नेराप:।अद्भय: पृथिवि।।(योगचूडामण्युपनिषद-72)
राजसो ब्रह्मा सात्विको विष्णुस्तामसो रुद्र इति एते त्रयो गुणयुक्ता:।।(योगचूडामण्युपनिषद-72)
(मैत्राण्युपनिषद-4/5)(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद-पूर्वकांड-10)
RICE AND PADDY
तुषेण बद्धो व्रिहि: स्यात्तुषाभावेन तन्डुल: । (स्कंदोपनिषद-6)
(फोतराथी बद्धछेतो डांगर अने जो फोतरानो अभावछेतोचोखा । )
तांडुलस्य यथा चमॅ पुरुषस्य तथा मलं सहजम् ।नश्यति क्रियया न संदेह ।। (महोपनिषद-5/185-186)
(जेवीरीते चोखाने फोतरुं होयछे तेम माणसने अविद्यासहजज होयछे । योग्य क्रियाथी तेनो नाश थइ शकेछेतेमां संदेह नथी । )
SUBTLE BODY ETC
तदेव स्थूलशरीरम्। कर्मेन्द्रियै: सह प्राणादिपंचकं प्राणमयकोश:। ज्ञानेन्द्रियै: सह मनो मनोमयकोश:। ज्ञानेन्द्रियै: सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोश:। एतत्कोशत्रयं लिंगशरीरम्। स्वरुपाज्ञानमानन्दमयकोश:। तत् कारणशरीरम्।। (पेंगलोपनिषद-2/4)
(यही स्थूल शरीर है। कर्मेन्द्रियोंके साथ पाँच प्राण मिलकर प्राणमयकोश, ज्ञानेन्द्रियोंके साथ मन मिलकर मनोमयकोश, और ज्ञानेन्द्रियोंके साथ बुद्धि मिलकर विज्ञानमयकोश बनता है। यही तीनों कोश मिलकर लिंग शरीर बनता है। जहाँ अपनेका बोध नहीं रहता वह आनन्दमयकोश है, उसको ही कारण शरीर कहते है।)
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपंचकैर्मनसा धिया। शरीरं सप्तदशभि: सुसूक्ष्मं लिंगमुच्यते।। (शारीरकोपनिषद-16)
(ज्ञानेन्द्रिय (पाँच), कर्मेन्द्रि (पाँच), पांच प्राण, मन और बुद्धि यह सतरह का समूह सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर कहलाता है)(शारीरकोपनिषद-16)
(The (five) Gyaanendriyas, (five) Karmendriyas, five Pranas, the Mind and the Intellect; this collection of 17, together form the subtle body or Linga body.) (शारीरकोपनिषद-16)
ल्लिंगशरीरं ह्रदयग्रन्थिरित्युच्यते। (सवॅसारोपनिषद-7)
(लिंग शरीरको ही ह्रदयग्रंथी कहते है।)
भिद्यते ह्रदयग्रन्थिछिद्यन्ते सवॅसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
(महोपनिषद-4/82)(मुंडकोपनिषद-2/2/8)
( ते परातपर ने जाणी लीधा पछी ह्रदयनी गांठ खूली जाय छे अने बधा संशयो नाश पामेछे अने बधा कर्मो नाश पामे छे)
SUBTLEBODY’S TRAVEL AFTER DEATH
यथेतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति धूमोभूत्वाभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति मेघो भूत्वाप्रवर्षति त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इतिजायन्ते। यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेत: सिंचति तद्भूय एव भवति। (छांदोग्योपनिषद-5/10/5-6)
(वहांसे वह (सूक्ष्मशरीर) प्रथम आकाशको प्राप्त होता है, आकाशसे वायुको प्राप्त करने के बाद वायुमे से धूम्र होता है, धूम्र में से बादल बन जाता है। बादल में से जब वर्षा बनकर बरसता है, तब सभी प्राणीओं इस लोकमें डांगर, जव, औषधि, वनस्पति, उड़द और तील बनकर प्रादुर्भूत होते है। (कर्मानुसार) जो जो इस अन्नको खाता है, और उनसे उत्पन्न विर्यका सिंचन करनेसे जो जीव बनता है, वह वैसा बन जाता है।) (छांदोग्योपनिषद-5/10/5-6)
[From there the Jiva (subtle body) transforms into the sky, from sky into air, from air into smoke, from smoke into cloud, when it rains from the cloud; then all the Jivas are born into paddy, barley, herbs, plants, sesame, pulses, etc. (According to the actions) whoever eats this grain, etc and procreates (species) through the semen that is produced out of said (grain, etc), those (species) are identical to those (eaters)] (Chhandogya Upanishad-5/10/5-6).
सोम्य पुरुषस्य प्रयतो वाँगमनसि संपद्यते मन:प्राणेप्राणस्तेजसि तेज:परस्यां देवतायाम् । (छांदोग्योपनिषद-6/8/6)
(हे सौम्य! अंत काले मनुष्यकी वाणी मनमां, मन प्राणमां, प्राण तेजमां और तेज़ परम देवमां लीन होताहै। )
WHEN PERSON BECOMES PARMATMA?
यदा सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येव हि पश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ब्रह्म संपद्यते तदा।।
(जाबालदर्शनोपनिषद-10/10)
(जब (योगी) सब प्राणिओंको अपनेमें देखता है और अपनेको सब प्राणिओंमें देखता है, तब वह स्वयं ब्रह्म ही बन जाता है।)
अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत्।
महानरकजालेषु स तेन विनियोजित:।। (महोपनिषद-5/105)
(अपरिपकव बुद्धिवालेको और अज्ञानीको “यह सब ब्रह्ममय है” , ऐसा कहना उनको जैसे नरकमें हडसेलना जैसा है।)
चितो रुपमिदं ब्रह्मन्क्षेत्रज्ञ इति कथ्यते।
वासना: कल्पयन्सोऽपि यात्यहंकारतां पुन:।। 124
अहंकारो विनिर्णेता कलंकी बुद्धिरुच्यते।
बुद्धि: संकल्पिताकारा प्रयाति मननास्पदम्।। 125
मनो धनविकल्पं तु गच्छतीन्द्रियतां शने:।
पाणिपादमयं देहमिन्द्रियाणि विदुर्बुधा:।। 126 (महोपनिषद-5/124-126)
(हे ब्रह्मन! चेतनशक्ति जब नाम (रुप, देश, काल) विगेरे प्राप्त करती है, तो क्षेत्रज्ञ कहलाती है। वह (क्षेत्रज्ञ) फिरसे जब वासनाकी कल्पना करता है तो वह अहंकार हो जाता है। जब अहंकार निश्चयात्मक और दोषयुक्त होता है तब वह बुद्धि कहलाता है। बुद्धि जब संकल्प और मनन करने लगती है तो मनरुप हो जाती है। मन जब गहरे विकल्पमें डूबता है तो धीरे-धीरे इन्द्रियत्वको प्राप्त करता है। मेधावी पुरुषों (भी) अपनेको हस्तपादयुक्त इन्द्रियोंवाला शरीर ही मानते है.) (महोपनिषद-5/124-126)
चिदचैत्या किलात्मेति सर्वसिद्धान्तसंग्रह:। (महोनिपषद-6/78)
चित् अचैत्या किल आत्मा इति (किल=खरेखर)
(निश्चयपूर्वक विषयरहित हुआ चित्तकोही आत्मा कहागया है।यह समग्र वेदोंके सिद्धान्तों का सार है)
अहं ब्रह्मास्मीति वाक्यार्थविचार: श्रवणं भवति। एकान्तेन श्रवणार्थानुसंधानं मननं भवति। श्रवणमनननिर्विचिकित्स्येऽर्थे वस्तुन्येकतानवत्तया चेत:स्थापनं निदिध्यासनं भवति। ध्यातृध्याने विहाय निवातस्थितदीपवद्ध्येयैकगोचरं चित्तं समाधिर्भवति।। (पेंगलोपनिषद-3/4)
(अहं ब्रह्मास्मि यह महावाक्यके अर्थ पर विचार करना वह श्रवण कहलाता है। श्रवण किये हुए विषयके अर्थपर एकांतमें अनुसंधान करना वह मनन कहलाता है। श्रवण और मनन द्वारा निश्चित किये हुए अर्थरुप वस्तुमें एकाग्रतापूर्वक चित्तका स्थापन करना वह निदिध्यासन कहलाता है। जब चित्तवृत्ति ध्याता और ध्यानके भावको छोड़कर, वायु विहीन स्थानमें रखे दीपककी ज्योतकी भांती केवल ध्येयमें ही स्थिर हो जाती है, तब उस अवस्थाको समाधि कहा जाता है।)
श्रवणं तु गुरो: पूर्वं मननं तदनन्तरम्।
निदिध्यासनमित्येतत् पूर्णबोधस्य कारणम्।। (शुकरहस्योपनिषद-43)
(साधकको पूर्ण बोध तब हो सकता है, जब वह पहेले गुरुका उपदेश सूनें, बाद मनन करें और बाद निदिध्यासन (अनुभूतिकी साधना) करें।)
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो दर्शनेन श्रवणेन मत्वा विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्।। (बृहदारण्यकोपनिषद-2/4/5, 4/5/6).
(हे मैत्रेयी! यह आत्मा ही दर्शन करवा योग्य, श्रवण करवा योग्य, मनन करवा योग्य, निदिध्यासन (अनुभव, ध्यान) करवा योग्य है। यह आत्माके दर्शन, श्रवण, मनन और ज्ञानसे सबका ज्ञान हो जाता है।)
हरिः ॐ तत्सत्।
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