GITA

GITA

GITAJI. GITA एतान्न हन्तुमिच्छामि ध्नोतिऽपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नो महीकृते।। 1/35 एवमुक्त्वार्जुन: संख्ये…
PATANJALYOGDARSHAN

PATANJAL YOGDARSHAN

श्री पातंजलयोगदर्शन। योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन। योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि।।…
UPANISHADS

UPANISHADS

ADVAYATARKA UPANISHAD जीवेश्वरौ मायिकौ विज्ञाय सर्वविशेषं नेति नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म। (अद्वयतारकोपनिषद-3) (जीव और…
UPANISHADS COORDINATED
UPANISHADS COORDINATED
ASHTAVAKRA GITA
ASHTAVAKRA GITA
SAANKHYASHASTRA
SAANKHYASHASTRA

The life is but celebration. Bliss is synonym of Parmatma only. God never insists for practicing a life that is life negative. The same things will be emanating from a human and will be reflecting in his ideas, in his concept about the world, in his imaginations, etc; to which a human has reduced to be in him. His resorting to any life negative punishments to his body is nothing but a way of self inflicting injuries. The more the sinful life a human is leading, the more the stringent punishments he shall incline to inflict on his body; that too in the name of austerity. A life that is overflowing with virtues will naturally inspire its holder to be part of celebration that the Creation is eternally invoking. A life naturally lived being established in the present moment, is always full of virtues. The practice of Straightforwardness, Innocence, Effortlessness and Sinlessness (SIES), virtues in life, is like a password that enables its practicer to instantly connect with Parmatma, same way as a password enables a man to connect with the Wi-Fi Net Work. John Milton has written in Comus:
Love Virtue; she alone is free.
She can teach ye how to climb
Higher than the sphery chime;
Or, if Virtue feeble were,
Heaven itself would stoop to her.

I am text block. Click edit button to change this text. Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Ut elit tellus, luctus nec ullamcorper mattis, pulvinar dapibus leo. I am text block.

Gallery

11529

Sacred book read

207

Seminars Conducted

116100

People attempted

Events

The regular Satsang
“Mandir”, 36-B, Paras Society, Opp. Nirmala Convent School, RAJKOT-360007
Every Sunday
10.30 to 11.30 AM
Satsang
Swami Pranvanand Hall, Racecourse, Rajkot.
Every Sunday
5.30 to 6.30 PM
Satsang
“Mandir”, 36-B, Paras Society, Opp. Nirmala Convent School, RAJKOT-360007
Every Friday
5.30 to 6.30 PM

Read in Hindi

होम पेज
जीवन दुसरा कुछ नहीं है, बल्कि उत्सव है। परमानंद परमात्मा का हि पर्याय है।परमात्मा कभी जीवन में ऐसी चीज़ों के आचरण के लिए आग्रह नहीं करते है, जो जीवन नकारात्मक हो।मानव अपने में जो बनकर सिमट गया है, वही बातें उनमें से निकलकर उसके विचारों में, दुनिया के प्रति के उसके ख़याल में, उसकी कल्पनाओं में, आदि में प्रतिबिंबत होती हैं।उसका अपने शरीर को किसी भी तरह से जीवन नकारात्मक रुपमें दंड करना, यह स्वयं को चोट पहुंचाने के अलावा और कुछ नहीं है।मनुष्य जितना ज़्यादा पापी जीवन जी रहा है, उतने ही कठोर दंड वह अपने शरीर पर थोपना चाहेगा; वह भी तपस्या के नाम पर।एक जीवन, जो सद्गुणों से छलक रहा है, वह स्वाभाविक रूप से अपने धारक को, यह सृष्टि जो कि शाश्वतरुप से उत्सव मना रही है, उसका हिस्सा बनने के लिए प्रेरित करेगा।वर्तमान क्षण में स्थित रहकर जो स्वाभाविक जीवन जिया जा रहा है, वह हमेशा सद्गुणों से भरा होता है।जीवन में सरलता, निर्दोषता, सादगी और निष्पापता (सनिसानि) आदि, सद्गुणों का आचरण एक पासवर्ड की तरह है जो उसके आचरण करनेवाले को तुरंत परमात्मा के साथ जुड़ने में सक्षम बनाता है, ठीक उसी तरह जैसे एक पासवर्ड एक आदमी को वाई-फाई नेट वर्क से जुड़ने में सक्षम बनाता है। जॉन मिल्टन ने कॉमस में लिखा है:
सद्गुण की पूजा करें; दुनिया में वह अकेला है मुक्त है।
वह तुम्हें सिखा सकता है कि कैसे पहुँचना है,
स्वर्ग से भी अधिक ऊँचा।
और, यदि सद्गुण इसमें कमज़ोर पड़ता है,
तो स्वर्ग खुद उसके पास झुक कर आएगा।
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं:
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तं अज्ञानं यदतोअन्यथा।। (Gita-13/11)
[(यहाँ जो सद्गुणों कहे गये उसको जीवन में आत्मसात करना) केवल यही ज्ञान है, जो इससे अन्य है उसे अज्ञान कहा गया है।] (Gita-13/11)। बुद्ध ने भी लगभग यही उपदेश दिया है।वे कहते है:
“सत्य का अर्थ है उन जीवित मिसालों का जीवन में आचरण करना जो जीवन को दैवीय गुणों से भर देते हैं, जो बदले में हमें सत्य के निकट लाते हैं।” यीशु ने भी जीवन में सद्गुणों को आत्मसात करने के सुनहरे नियम को निर्धारित किया है, वे कहते हैं: “इसलिये सब कुछ जो तुम चाहते हो कि मनुष्योंको तुम्हारे साथ करना चाहिए: क्या तुम भी उनके साथ ऐसा करते हो”?

मानव, जो सद्गुणों से परिपूर्ण जीवन को जीता है, वह माँ प्रकृति का एक अभिन्न अंग है, और तपस्या के नाम पर अपने शरीर पर दमन कर के अपने शरीर को अपने से ही चोट पहुँचाना उसको कभी भी आवश्यक नहीं लगेगा।यह कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं है कि उसके लिए उसका जीवन शाश्वत उत्सव है।प्रत्येक मानव के जीवन को उत्सव बनाने का यत्किचिंत प्रयास हम वेद विचार आश्रम, राजकोट में कर रहे हैं।