सांख्यशास्त्र कपिल मुनि।
न दृष्टात्तत्सिद्धि:। (सांख्यदर्शन-1/2)
(दृश्य (नश्वर उपाय) से उस (त्रिविध ताप) की (निवृत्तिकी) सिद्धि नहीं (हो सकती) है।) (सांख्यदर्शन-1/2).
(The accomplishment of (cessation of) that (affliction of Three Type) is not (possible) by the visible (ephemeral means). (सांख्यदर्शन-1/2).(Sankhyashastra-1/2).
अविशेषश्चोभयो:।। (सांख्यदर्शन-1/6)
(धनादि दृष्ट साधनों और उसका उपभोग; तथा वैदिक क्रियाओं और तज्जनित पुण्य द्वारा जो उपभोग होता है, वे दोनों समान ही है।)। (इसलिये दोनों हि त्रिविध तापकी निवृत्ति हेतु अयोग्य है।)
न कर्मणाऽन्यधर्मत्वादतिप्रसक्त्तेश्च।।(सांख्यदर्शन-1/16)
(कर्म अन्य से संबंधित होने के कारण (कर्म से आत्मा को) बन्धन नहीं है; उपाय रहित हो जाता है।) (सांख्यदर्शन-1/16)
कर्म शरीर का धर्म है, तो जो शरीर करता है, उसकी असर आत्मा पर नहीं पड़ सकती। अगर एक का बन्धन दुसरे के लिए शक्य हो जाता तो बन्धनवालों का बन्धन मुक्तों कों लग जाता।तो मोक्ष का कोई उपाय हि नहीं बचता।
प्रकृतिनिबन्धनाच्चेन्न तस्या अपि पारतन्त्र्यम्।।
(सांख्यदर्शन-1/18)
(प्रकृति के निमित्त से भी बन्धन नहीं हो सक्ता, क्यों कि (व्यक्ति में चित्तवृत्ति के अभाव में) प्रकृति परतंत्र है।)
युगपज्जायमानयोर्न कार्यकारणभाव:।। (सांख्यदर्शन-1/38)
(जो एक साथ पेदा होते है वे दोनों (एक दूसरे के) कार्य कारण नहीं हो सकते।)
निष्क्रियस्य तदसंभवात्।।(सांख्यदर्शन-1/49)
(निष्क्रिय (आत्मा) की ते (गति) असंभव होनेसे ( आत्माका शरीरमें प्रवेश या बहार निकलना भी असंभव है।)
तद्योगोऽप्यविवेकान्न समानत्वम्।। (सांख्यदर्शन-1/55)
(उस (प्रकृति और पुरुष) का संयोग अविवेकसे ही (अविवेकीमें ही दिखता) है, (मूक्त पुरुषमें) वैसा ही नहीं (दिखता)।)
प्रधानाविवेकादन्याविवेकस्य तद्धाने हानम्।।(सांख्यदर्शन-1/57)
[(अगर) प्रकृति के विषयमें अविद्या पैदा हो जाती है, तो अन्यों के विषयमें भी अविद्या पैदा हो जाती है। उस (प्रकृति की अविद्या)के नाश से कैवल्य।](सांख्यदर्शन-1/57)
[(If) the Ignorance about the Nature is born, then the Ignorance about the others also gets born. The destruction of (Ignorance about Nature) avails Keivalya]. (Sankhyadarshan-1/57).
भिद्यते ह्रदयग्रन्थि छिद्यन्ते सवॅसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
(जब साधक प्रकृतिविषयक समझ को आत्मसात कर लेता है, तो उसके सब संशयों का निराकरण हो जाता है, उसके सब कर्मों क्षीण हो जाते है, उसका सूक्ष्म शरीर का विभाजन हो जाता है, (जो तुरन्त हि उसको कैवल्य को उपलब्ध करा देता है।)(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
[When the seeker assimilates the understanding about the Nature, then all his doubts get allayed, all his actions get waned, his Subtle Body gets disunited, (which instantly avails him to Keivalya)]
(Mundaka Upanishad-2/2/8).
(Maha Upanishad-4/82). (Saraswatirahasya Upanishad-67)
वांमात्रं न तु तत्त्वं चित्तस्थिते। (सांख्यदर्शन-1/58)
(पुरुषमां बंध) कथन मात्र है, वास्तविक नहीं है। उसकी चित्तकी स्थिति से दिखता है) जैसे सफ़ेद स्फटिक लाल जासूदके पास लाल दिखता है, वैसे ही चित्तके सुख-दु:खादि पुरुषमें दिखते है।
युक्तितोऽपि न बाध्यते दिंमूढवदपरोक्षादृते। (सांख्यदर्शन-1/59)
(दिंगमूढनी पेठे प्रत्क्षविना मात्र युक्तिथी (अविवेकनो) नाश नहीं थाय)
दिशाभ्रम होनेके बाद जैसे बिना दिशाके साक्षात्कार हुए युक्तिद्वारा दिशाभ्रमका नाश वहीं होता वैसे मनुष्यके अविवेकका नाश भी प्रकृति-पुरुषके साक्षात्कार बिना मात्र युक्तिसे नहीं होता। युक्ति और उपदेशका अवलंबन करके निदिध्यासनसे अविवेकका नाश हो सकेगा।
अचाक्षुषाणामनुमानेन बोधो धूमादिभिरिव वह्ने:।।(सांख्यदर्शन-1/60)
(अप्त्यक्षोंका अनुमान से बोध होता है, जैसे धूमादि से अग्निका (होता है।))
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति:।। (सांख्यदर्शन-1/61). (सत्त्व, रजस, तमसकी साम्यावस्था वह प्रकृति है।) (सांख्यदर्शन-1/61). (The Nature has the equanimity of Sattva (existence or Neutron), Rajas (procreation or Proton), and Tamas (eliminating or Electron). (Sankhyashashtra-1/61.).
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति; प्रकृतेर्महान्महतोऽहंकारोऽहंकारात्पंचतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं, तन्मात्रेभ्य: स्थूलभूतानि, पुरुष इति पंचविंशतिरगण:।। (सांख्यदर्शन-1/61)
(सत्त्व, रजस, तमसकी साम्यावस्था वह प्रकृति है।)
स्थूलात्पंचतन्मात्रस्य।। (सांख्यदर्शन-1/62)
बाह्याभ्यन्तराभ्यां तैश्च्चाहंकारस्य।।(सांख्यदर्शन-1/63)
तेनान्त:करणस्य:।। (सांख्यदर्शन-1/64)
तत: प्रकृते:।। (सांख्यदर्शन-1/65)
संहतपरार्थत्वात्पुरुषस्य।।(सांख्यदर्शन-1/66)
(स्थूलों से पाँच तन्मात्राका, बाह्याभ्यंतर और तन्मात्राओंसे अहंकार का, उससे महत्तत्त्वका, उससे प्रकृति का, और जो मीला हुआ है उसके परार्थपने से पुरुषका (अनुमान) होता है।)
मूले मूलाभावादमूलं मूलं। (सांख्यदर्शन-1/67)
(मूलमें मूलके अभावसे अमूल ही मूल है)
(प्रकृति हि महत्तत्त्वादि सब कार्योंका मूल (कारण) है। यह अंतिम कारण प्रकृति का कोई उपादान कारण न होनेसे वह अमूल (कारण रहित) प्रकृति हि सब का मूल (कारण) है।)
प्रकृति अदृश्य है। प्रकृति शब्द निर्जीव पदार्थोंके आदिकारणका है, इसके सिवा और कुछ सूचित नहीं करता
अधिकारित्रैविध्यान्न नियम:। (सांख्यदर्शन-1/70)
(अधिकारीके तीन प्रकार होनेसे (विवेकज्ञान मात्र श्रवणसे हो जाता है ऐसा) नियम नहीं है)(सांख्यदर्शन-1/70)
(As there are three types of rightful claimants, there cannot be a rule (that all will be enlightened only by hearing.) (Sankhyadarshan-1/70).
उत्तमअधिकारीको श्रवणसे, मध्यमको श्रवण और मननसे और कनिष्ठको श्रवण, मनन और निदिध्यासन से विवेकज्ञान होता है
अधिकारिप्रभेदान्न नियम:।।(सांख्यदर्शन-3/76)
अधिकारीके (भी) प्रभेद होनेके कारण (विवेककी सिद्धिमें समय मर्यादाका) नियम नहीं है।
नावस्तुनो वस्तुसिद्धि । (सांख्यदर्शन-1/78)
(अभावसे भावकी उत्पत्ति (संभव) नहीं है।)
(Existence can’t come out of in-existence.)
अबाधाददुष्टकारणजन्यत्वाच्च नावस्तुत्वम्। (सांख्यदर्शन-1/79)
(बाध नहीं होता है और दुष्टकारणजन्य भी नहीं है जीससे (जगतका मिथ्या होना) संभव नहीं है)
काम्येऽकाम्येऽपि साध्यत्वाविशेषात्।।(सांख्यदर्शन-1/85)
[सकाम (कर्म और) निष्काम (कर्म दोनों) समान हि सिद्धि दिलाते होने के कारण ( उनमें से किसी से भी मोक्ष नहीं हो सकता)] (सांख्यदर्शन-1/85)
[(As) Sakam Karma (action for satisfying desires and) Nishkam Karma (desireless action) both brings about similar accomplishment, (none of them can avail Salvation)]
तत्सन्धिनिधानादधिष्ठातृत्वं मणिवत्।।
(सांख्यदर्शन-1/96)
(उस (ईश्वर) के संनिधान (सान्निध्य) से ही (प्रकृति के उपर) अधिष्ठातापना है, लोहचूंबककी तरह।)
(ईश्वरकी संनिधिसे ही प्रकृतिमें गती आ जाती है, ईश्वरको कुछ करना नहीं पड़ता। परमात्माकी समीपतासे हि प्रकृतिमें सृष्टिका सृजन कर लेती है।)
विशेषकार्येष्वपि जीवानाम्।।(सांख्यदर्शन-1/97)
[(आहारादि) विशेष कार्योंमें भी जीवभाव का हि (कर्तृत्व होता है)] (सांख्यदर्शन-1/97)।
[It is Jivabhav that has (doership) in special deeds (like feeding, etc)](Sankhyadarshan-1/97).
(वायुयुक्तो बुद्ध्यादिर्जीव: न त्वात्माजीव:। आहारादिविशेषकार्येऽपि जीवानामेव कर्तृत्वं आत्मनोऽपरिणामित्वात्।)
પ્રાણ સાથેની બુદ્ધિને જીવ કહેવાય છે. પ્રાણોની સાથે બુદ્ધિ જ્યાં સુધી શરીરમાં છે ત્યાં સુધી જ શરીર આહાર વિગેરે વિશેષ કાર્યો કરવા સમર્થ રહે છે. એને જ જીવ કહેવાય છે. મૃત શરીરના સાન્નિધ્ય મા બ્રહ્મ હોય છે, પરંતુ જીવ હોતો નથી તેથી મૃત શરીર આહારાદિ વિશેષ કાર્યો કરવા સક્ષમ રહેતા નથી.
आप्तोपदेश: शब्द:।। (सांख्यदर्शन-1/101)
आप्तका उपदेश (वह) शब्द (प्रमाण कहलाता है। जिस मनुष्यमें भ्रांति, प्रमाद, ठगनेकी इच्छा या सिथिल बुद्धि नहीं होती वह आप्त पुरुष कहलाता है।)
कार्यदर्शनात्तदुपलब्धे।।(सांख्यदर्शन-1/110)
(कार्यके दर्शनसे उस (कारण) का (बोध) मिलता है।)
त्रिविधविरोधापत्तेश्च।। (सांख्यदर्शन-1/113)
(तीन प्रकारके विरोधकी प्राप्ति से (भी प्रकृति जगतका कारण) है।)
यह जगत जब सुख, दु:ख और मोह के द्वारा सत्त्व, रजस और तमस वाला प्रतीत होता है, तब उसका कारण भी त्रिगुणात्मक प्रकृति हि हो सकती है।
नाश: कारणलय:।। (सांख्यदर्शन-1/121)
(कारणमें लय होना नाश (कहलाता) है।)
किसीका आत्यन्तिक नाश नहीं है।
हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिंगम्।।(सांख्यदर्शन-1/124)
[(अव्यक्त प्रकृति के शरीरादि व्यक्त सभी कार्यों) कारण वाले, अनित्य, अव्यापक, क्रियाशील, (सजातीय विजातीय भेदवाले) अनेकरुप, (अपने कारणरुप प्रकृति के) आश्रित रहनेवाले, (और अपने कारणमें लय होकर) सूक्ष्म (हो जानेके स्वभाव वाले) है।]
प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योऽन्यं वैधर्म्यम्।।(सांख्यदर्शन-1/127)
(प्रीति (सुख भाव, सत्त्व), अप्रीति (दु:ख भाव, रजस), विषाद (मोह भाव, तमस) आदि (गुण) द्वारा (तीनों) गुणोंका परस्पर विरोधात्मक भाव है।
कैवल्यार्थं प्रवृतेश्च। (सांख्यदर्शन-1/144)
(पुरुषके कैवल्यके लिये ही (प्रकृतिकी) प्रवृति है।)
विमुक्तमोक्षार्थं स्वार्थं वा प्रधानस्य।।(सांख्यदर्शन-2/1)
[(प्रधान की प्रवृत्ति) आत्माके मोक्ष के लिए अथवा प्रधान के स्वार्थ के लिए होती है।](सांख्यदर्शन-2/1)
जडप्रकाशायोगात् प्रकाश:।। (सांख्यदर्शन-1/145)
(जडमें ज्ञानके असंभवसे (आत्मा) ज्ञानस्वरुप है।)
जन्मादिव्यवस्थात: पुरुषबहुत्वम्।। (सांख्यदर्शन-1/149)
(जन्म (मरण) आदिकी व्यवस्थाको देखते हुए आत्माका बहुत होना (सिद्ध होता) है।)
पुरुषबहुत्वमं व्यवस्थात्।।(सांख्यदर्शन-6/45)
(पुरुष (आत्मा) का अनेक पना है, (जन्म, मरण आदि की) व्यवस्था के कारण।)
अगर आत्मा एक होती तो कंई बातों की स्पष्टता नहीं हो सकती है, जैसे एक स्वर्गमें जाता है दूसरा नर्कमें, एकको मोक्ष है दूसरेको बन्ध है, एक हि आत्मा होता तो एकको मोक्ष मिलनेसे सबको मोक्ष मिल जाता, आत्मा केवल चेतन है और जीव विशिष्ट चेतन है ऐसा माननेसे विशिष्ट चेतन अनात्म हि होगा और आत्म रहा केवल चेतन फिर एक हो जायेगा और इससे मोक्ष और बन्धकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी, एक हि आत्मामें विरुद्ध धर्मके भाव जैसे उत्पन्न होना विनाश होना आरोपित नहीं हो सकते, इसलिये आत्मायें अनंत है, एक नहीं है।
इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेद:।। (सांख्यदर्शन-1/159)
(वर्तमानकी तरह सर्वकाले (संसार रहेगा हि। उसका) अत्यन्त उच्छेद नहीं होगा।)
व्यावृत्तोभयरुप:।।(सांख्यदर्शन-1/160)
[(जीव अविवेक से) आवृत्त होने के कारण (पुरुष बन्ध और मोक्ष ऐसे) उभयरुप (दिखता) है।]
साक्षात्सम्बन्धात्साक्षित्वम्। (सांख्यदर्शन-1/161)
(अक्ष (इन्द्रियों) के साथके संबंधोसे (आत्माका) साक्षित्व है।)
नित्यमुक्तत्वम्।। (सांख्यदर्शन-1/162)
((पुरुषका) नित्यमूक्तपना है।)
औदासीन्यं चेति।।(सांख्यदर्शन-1/163)
((पुरुषका नित्य) उदासीन (अकर्ता) पना भी है।)
विमुक्तमोक्षार्थं स्वार्थं वा प्रधानस्य। (सांख्यदर्शन-2/1)
[मुक्त के मोक्ष के लिए अथवा प्रकृति के स्वार्थ के लिए (सृष्टि की उत्पत्ति है)] (सांख्यदर्शन-2/1)
[(The making of the Creation) is for the Salvation of liberated or for Nature’s own sake]. (Sankhyadarshan-2/1).
(प्रकृतिकी प्रवृतियाँ (ज्ञानी के) मोक्षके लिये या प्रधानके (प्रकृतिके) स्वार्थके लिये है।)
बहुभृत्यवद्वा प्रत्येकम्।।(सांख्यदर्शन-2/4)
[अथवा (जैसे मालिक) बहु दास (में से उसकी योग्यता को देखकर किसी एक को मूक्त करता है, तो दूसरे को उसकी अयोग्यता को देखकर उसको सज़ा करता है इसी) तरह (प्रकृति) प्रत्येक को (मोक्ष या भोग प्रदान करती है)]
चेतनोदृेशान्नियम: कण्टकमोक्षवत्।।(सांख्यदर्शन-2/7)(see3/63 also)
(जिसे) विवेकज्ञान (हो गया है उस) के उदेशसे नियम है (कि उसे प्रकृति दु:ख नहीं दे सकती) जैसे (जिसने रास्तेमें रहे) कंटक (देख लिये है उसे कंटक) से मूक्ति मील जाती है।
अन्ययोगेऽपि तत्सिद्धिर्नांजस्येनायोदाहवत्।। (सांख्यदर्शन-2/8)
(अन्यके संयोगसे (पुरुषमें) बन्धन, अग्नि के संयोग से लोहेमें रही दाहकता की भाँति दिखता है, पर वास्तविक वहीं है।)
अध्यवसायो बुद्धि:।। (सांख्यदर्शन-2/13)
(बुद्धि निश्चयरुप है।
तत्कार्यं धर्मादि:।। (सांख्यदर्शन-2/14)
(धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य वह बुद्धिके कार्य है।)
अतीन्द्रियमिन्द्रियं भ्रान्तानामधिषिठाने।। (सांख्यदर्शन-2/23)
(इन्द्रिय अंदरुनी है, भ्रांतमतीवालोंको गोलकमें दिखती है।)
सामान्यकपणवृत्ति: प्राणाद्या वायव: पंच।।
(सांख्यदर्शन-2/31)
(प्राण, अपान आदि पाँच प्राणों अंत:करणकी साधारण (सामान्य) वत्ति है।)
वृतय: पंचतय्य: क्लिष्टाक्लिष्टा:।। (पातंजलयोगदर्शन-1/5)(सांख्यशास्त्र-2/33)
(वृतियां पाँच प्रकारकी है, वे क्लिष्ट तथा अक्लिष्टरुप है)
पुरुषार्थं करणोद्भवोऽप्यदृष्टोल्लासात्।। (सांख्यदर्शन-2/36)
[(जीवात्माकी) प्रवृति अंत:करणमेंसे पैदा होती है, फिर भी वह अतीतके संस्कारोंसे प्रेरित होकर हि उद्भवती है।)
अविशेषाद्विशेषारम्भ:। (सांख्यदर्शन-3/1)
(अविशेषसे (पंच तन्मात्राओंसे) विशेषकी (पंच महाभूतोंकी) उत्पत्ति होती है।)
तस्माच्छरीरस्य।। (सांख्यदर्शन-3/2)
उस (पंच महाभूतों) से शरीर की (उत्पत्ति होती है।)
तद्बिजात्संसृति:।। (सांख्यदर्शन-3/3)
(उस (संस्काररुप) बीज के कारण (सूक्ष्म शरीर का) आवागमन होता है।) (सांख्यदर्शन-3/3).
(Because of that seed (in the form of Sanskaar) the trafficking (of Subtle Body) continues). (Sankhyadarshan-3/3)
अविवेकाच्च प्रवर्तनमविशेषाणाम्।।(सांख्यदर्शन-3/4)
[(व्यक्ति में) विवेकज्ञान नहीं हो जाता है, तबतक हि अविशेषों (शब्दादि पाँच तन्मात्राओं की स्थूल, सूक्ष्म शरीरों पैदा करने) की प्रवृति शक्य बनती है।)(सांख्यदर्शन-3/4)
(The activity of (creating Gross and Subtle Bodies by sound, etc) rudimentary elements becomes possible till the Knowledge of Discernment has not taken place(in a person)].(Sankhyadarshan-3/4)
जब विवेकज्ञान होता है तो, शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध की अपने कार्यमें प्रवृति बंध हो जाती है; जिससे पंच महाभूत नहीं बनते और इससे ऐसे ज्ञानीका शरीर भी नही बनता और इससे शरीरका आवागमन बंध हो जाता है, जिसे हम मोक्ष कहते है।
मातापितृजं स्थूलं प्रायश इतरन्न तथा।। (सांख्यदर्शन-3/7)
(स्थूल (शरीर हि) बहुधा मातापितासे पैदा हुआ होता है, अन्य (सूक्ष्म) उस तरह (मातापितासे पैदा हुआ) नहीं है।)
पूर्वोत्पत्तेस्तत्कार्यत्वं भोगादेकस्य नेतरस्य।।(सांख्यदर्शन-3/8)
[पूर्वोत्पत्ति के कारण एक (सूक्ष्म शरीर) का हि कर्तृत्व, भोक्तृत्व, आदि होता है; अन्य (स्थूल शरीर) का नहीं।](सांख्यदर्शन-3/8)
[As the (subtle body) has born priorly, that one has the doership and enjoying and not the other (gross body)]. (Sankhyadarshan-3/8).
पुरुषार्थं करणोद्भवोऽप्यदृष्टोल्लासात्।।(सांख्यदर्शन-3/36)
(पुरुषार्थ का उद्भव अंत:करणसे होते हुए भी वह अतीत के संस्कारोंसे प्रेरित होकर हि उद्भव होते है।)
ज्ञानान्मुक्ति:।। (सांख्यदर्शन-3/23)
(ज्ञानसे ही मुक्ति (महेसूस होती) है।) (सांख्यदर्शन-3/23)
(The Liberation (is realized) through the Knowledge only.)(Sankhyadarshan-3/23).
प्रधानसृस्टि: परार्थं स्वतोऽप्यभोक्त्तृत्वादुष्ट्रकुम्कुम वहनवत्।। (सांख्यदर्शन-3/58) (6/40)
(जैसे उँट (को अपनेको खाना नहीं है फीरभी स्वामिके लिये) केसरका वहन करता है, वैसे ही (प्रकृतिका) अपना अभोक्त्तृत्व होनेपर भी (जीवात्माके भोग और मोक्षके) परोपकारके लिये प्रकृति सृष्टि (का निर्माण करती है।)
પ્રકૃતિ સૃષ્ટિનું સર્જન કરે છે. આના પરથી એટલું સ્પષ્ટ થાય છે કે પ્રકૃતિ અને સૃષ્ટિ બંને અલગ અલગ છે.
नैरपेक्ष्येऽपि प्रकृत्युपकारेऽविवेको निमित्तम्।।
(सांख्यदर्शन-3/68)
(निरपेक्षतासे सोचनेपर भी प्रकृतिके (सृष्टिके सर्जनादि) उपकारमेभी (जीवात्माके) अविवेक (का निवारण ही) निमित्त (कारण) है।)
अविशेषाद्विशेषारम्भ:। (सांख्यदर्शन-3/1)
(अविशेष (पंच तन्मात्रा या पंच सूक्ष्म भूतों) द्वारा विशेष (पंच महाभूत) उत्पन्न होते है।)
तद्बीजात्संसृति।। (सांख्यदर्शन-3/3)
(उस (धर्माधर्मरुप संस्कार) बीजसे (स्थूल और सूक्ष्म शरीरका) गमनागमन (होता रहता है।)
पुरुषार्थं संसृतिर्लिंगानां सूपकारवद्राज्ञ:।।
(सांख्यदर्शन-3/16)
(पुरुषके लिये सूक्ष्म (शरीर)का गमनागमन राजाके रसोयाकी तरह (होता रहता) है।)
ज्ञानान्मुक्ति:। (सांख्यदर्शन-3/23)
((प्रकृति और पुरुषका विवेक) ज्ञानसे मुक्ति होती है)
बन्धो विपर्ययात्। (सांख्यदर्शन-3/24)
(अज्ञानसे बंन्धन होता है।)
नियतकारणत्वान्न समुच्चयविकल्पौ।। (सांख्यदर्शन-3/25)
[(ज्ञान से मुक्ति, कर्म से संसार; यह) नियत कारण होने के कारण, (ज्ञान और कर्म दोनों ऐसा) समुच्चय या (कदाचित ज्ञान या कदाचित कर्म ऐसा) विकल्प भी (मोक्ष में हेतु) नहीं है](सांख्यदर्शन-3/25)
[As there is set rule (that the Knowledge results in Salvation and the action results in Sansaar); neither the aggregation (of Knowledge and action) nor alternative (as sometime Knowledge or sometime action) is the way (to Salvation).](Sankhyadarshan-3/25)
रागोपहतिर्ध्यानम्। (सांख्यदर्शन-3/30)
(रागका नाश ही ध्यान है।)
वृत्तिनिरोधात्तत्सिद्धि।। (सांख्यदर्शन-3/31)
(वृत्तिके निरोध से उस (ध्यान) की सिद्धि होती है।)
वैराग्यादभ्यासाच्च।।
(सांख्यदर्शन-3/36)
(वैराग्यसे तथा अभ्याससे (चित्त निरुद्ध होता है।)
विविक्तबोधात्सृष्टिनिवृति: प्रधानस्य सूदवत्पाके।। (सांख्यदर्शन-3/63)(pl see 2/7 also)
[(विवेक ज्ञान द्वारा पुरुष और प्रकृति की) भिन्नता का बोध हो जानेसे (उस विवेक ज्ञानी के प्रति) प्रकृति की सृष्टि की निवृत्ति (हो जाती है।) जैसे (रसोई हो जाने से) रसोया की होती है।)]
द्वयोरेकतस्य वौदासीन्यमपवर्ग:।।(सांख्यदर्शन-3/65)
[(प्रकृति और पुरुष) दोनोंके अथवा (दोनों में से) एकका उदासीनपना मोक्ष है।)]
अन्यसृष्ट्युपराग्ऽपि न विरज्यते प्रबुद्धरज्जु तत्त्वस्यैवोरग:।। (सांख्यदर्शन-3/66)
तत्त्वस्य इव उरग: (सर्प)
अन्य (विवेकी) के प्रति (प्रकृति) उपराम होती है, फिर भी (अविवेकी के प्रति) निवृत्त नहीं होती है। जिसने दोरडीका स्वरुप जानलिया है, उसका ही सर्प (दूर होता है।)
कर्मनिमित्तायोगाच्च।।(सांख्यदर्शन-3/67)
[(विवेकी पुरुषके लिये शरीरकी उत्पत्ति के लिये आवश्यक) कर्मरूप (धर्माधर्म संस्कार रुप) निमित्तरुप कारण न रहता होनेके कारण (विवेकज्ञानी को मोक्ष हो जाता है।)]
नैरपेक्ष्येऽपि प्रकृत्युपकारेऽविवेको निमित्तम्।।(सांख्यदर्शन-3/68)
[(धर्माधर्म संस्कार) ही प्रकृति (की प्रवृति) में निरपेक्ष कारण है, (जब कि) अविवेक निमित्त (सहकारी कारण) है।
दोषबोधेऽपि नोपसर्पणं प्रधानस्य कुलवधूवत्।। (सांख्यदर्शन-3/70)
[(विवेकिन पुरुष को मेरे) दोष का बोध हो गया है इस कारण से प्रकृति की प्रवृति (विवेकिन के प्रति) नहीं होती, जैसे कुलीन पुत्रवधू ( अपने दोषों का बोध पति को हो जानेसे उसके पास नहीं जाती)]
नैकान्ततो बन्धमोक्षौ पुरुषस्याविवेकादृते।।(सांख्यदर्शन-3/71)
अविवेकके अलावा (दूसरा कोई) स्वाभाविक बन्धमोक्ष पुरुषको नहीं है।
प्रकृतेरांजस्यात्ससंगत्वात्पशुवत्।।(सांख्यदर्शन-3/72)
प्रकृतिको वस्तुत: (गुणोंके) ससंगपणासे (बंधन) होता है, जैसे पशुको (दोरडीसे बंधन होता है।)
ત્રણે ગુણોની સામ્યાવસ્થા એટલે મૂળ પ્રકૃતિ. મૂળ પ્રકૃતિ એટલે પ્રકૃતિ નું બંધન રહિતપણું, પ્રકૃતિનો મોક્ષ. સાથે સાથે ત્રણે ગુણોની સામ્યાવસ્થા એટલે સૃષ્ટિ લય. પદાર્થોમાં ત્રણે ગુણો સમાન જ રહે છે. માનવ ચિત્તોમાં જ ચિત્તવૃત્તિ નિર્માણ થવાથી ગુણોની વધઘટ થવાથી પ્રકૃતિમાં રહેલ ત્રણે ગુણોની સામ્યાવસ્થાનો ભંગ થાય છે અને આવા અવિવેકી ભણી પ્રકૃતિ ની સૃષ્ટિના સર્જન ની કાર્યવાહી શરુ થાય છે. આને જ પ્રકૃતિનો બંધ અને પુરુષ (જીવ) નો પણ બંધ કહેવાય. અવિવેક જનના કારણે પ્રકૃતિ મા જે ગુણનો સંગ થયો તેજ વાસ્તવ મા પ્રકૃતિનું બંધન છે. જ્યારે ચિત્તવૃત્તિ નિરોધ થવાથી વ્યક્તિ ગુણાતીત બની જાય ત્યારે તેવા વિવેકી પ્રત્યે પ્રકૃતિની પ્રવૃત્તિ અટકી જાય, આનેજ વ્યક્તિનો મોક્ષ અને પ્રકૃતિ ની નિવૃત્તિ કહેવાય.
तत्त्वाभ्यासान्नेति नेतीति त्यागाद्विवेकसिद्धि:।।(सांख्यदर्शन-3/75)
(मैं) यह नहीं (हुँ। मैं) यह नहीं (हुँ।) ऐसा (वारं वार) अभ्यास द्वारा तत्त्वसे (निश्चित करके उसका) त्याग करनेसे विवेकज्ञान प्राप्त होता है।
अधिकारित्रैविध्यान्न नियम:। (सांख्यदर्शन-1/70)
(अधिकारीके तीन प्रकार होनेसे (विवेकज्ञान मात्र श्रवणसे हो जाता है ऐसा) नियम नहीं है)
उत्तमअधिकारीको श्रवणसे, मध्यमको श्रवण और मननसे और कनिष्ठको श्रवण, मनन और निदिध्यासन से विवेकज्ञान होता है
अधिकारिप्रभेदान्न नियम:।।(सांख्यदर्शन-3/76)
अधिकारीके (भी) प्रभेद होनेके कारण (विवेककी सिद्धिमें समय मर्यादाका) नियम नहीं है।
संस्कारलेशतस्तत्सिद्धि:।। (सांख्यदर्शन-3/83)
(संस्कार समाप्त हो जाने से उस (शरीर धारण न करने) की सिद्धि (मिलती है)।)
विवेकान्नि:शेषदु:खनिवृत्तौ कृतकृत्यता नेतरान्नेतरात्।।(सांख्यदर्शन-3/84)
(विवेकज्ञानसे नि:शेष दु:ख निवृत्ति और कृतकृत्यता होती है; अन्य किसीसे नहीं, अन्य किसीसे नहीं।)
अध्यस्तरुपोपासनात्पारम्मर्येण यज्ञोपासकानामिव।।(सांख्यदर्शन-4/21)
(ब्रह्मा, विष्णु, शिवादिकी) अध्यस्तरुप उपासना से (उपास्य मिलनेसे भी विवेकज्ञान नहीं मिलता, लेकिन) परंपरासे (विवेकज्ञान होता है।) यज्ञके उपासकोंकी तरह।
न मलिनचेतस्युपदेशबीजप्ररोहोऽजवत्। (सांख्यदर्शन-4/29)
(मलीन चित्तमें उपदेशरुप बीजका उगना संभव नहीं, अज राजाकी तरह।)
પત્નિના મરણના શોકને કારણે મલિન ચિત્ત થયેલ અજ રાજાને વસિષ્ઠ ભગવાનનો ઉપદેશ સ્થિર થઇ શક્યો નહોતો.
न भूतियोगेऽपि कृतकृत्यता।।(सांख्यदर्शन-4/32)
(योगीओंको अणिमादि) विभूतियोंकी प्राप्तिमें भी कृतकृत्यता (मुक्तिलाभ) नहीं है।
नेश्वराधिष्ठिते फलनिष्पत्ति: कर्मणा तत्सिद्धे:।। (सांख्यदर्शन-5/2) (तस्मात्कमैव जगत्कारणमस्तु।)
(ईश्वरके कार्यक्षेत्रमें (कर्म) फल प्रदान करना नहीं आता, (क्यों कि) उस की प्राप्ति तो कर्मों से ही होती है।)
नाविद्याशक्तियोगो नि:संगस्य।। (सांख्यदर्शन-5/13)
[असंग (आत्मा) का अविद्याशक्ति से योग नहीं है।]
न धर्मापलाप: प्रकृतिकार्यवैचित्र्यात्।। (सांख्यदर्शन-5/20)
[(जगत का निमित्त कारण) धर्माधर्मरुप संस्कार नहीं है ऐसा नहीं है, (क्यों कि धर्माधर्मरुप संस्कार जैसे विचित्र (विविध) है वैसा हि) प्रकृति का कार्य (विविध) विचित्र होनेके कारण।]
ध्यानं निर्विषयं मन:। (सांख्यदर्शन-5/25)
न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्वश्रुते:।। (सांख्यदर्शन-5/45)
(वेदों) कार्य है, ऐसी श्रुति के कारण वेदों का नित्यपना नहीं है।)
[स तपोऽतप्यत तस्मात्तपस्तपनात्त्रयो वेदा अजायन्त।।]श्रुति
नाद्वैतमात्मनो लिंगात्तद्भेदप्रतीते:।। (सांख्यदर्शन-5/61)
(लिंगसे उस (आत्मा) के भेदकी प्रतीति से आत्मा का अद्वैत नहीं है।)
અનેક આત્માઓ છે, એકજ આત્મા છે એવું નથી.
प्रकृतिपुरुषयोरन्यत्सर्वमनित्यम्।। (सांख्यदर्शन-5/72)
(प्रकृति और पुरुष से भिन्न सर्व अनित्य है।)
न भागीयोगो भागस्य।। (सांख्यदर्शन-5/81)
(अंशका अंशी में लय (भी मोक्ष) नहीं है।
જીવનો ઈશ્વર મા લય તે મોક્ષ નથી. કારણ બ્રહ્મ ના ભાગ પડી શકે નહી તેથી જીવ પરમાત્મા નો અંશ ન હોઇ શકે.
न विशेषगतिर्निष्क्रियस्य। (सांख्यदर्शन-5/76)
(निष्क्रिय (आत्माकी उर्ध्व वगेरह) विशेषगति संभव नहीं है।)
न रुपनिबन्धनात्प्रत्यक्षनियम:।। (सांख्यदर्शन-5/89)
[(जिसका) रुप होता है (उसको हि) प्रत्यक्ष (देख) सकते है ऐसा नियम नहीं है। (योगी समाधि में अरुपको देख सकता है।)]
न स्थूलमिति नियम अातिवाहिकस्याऽपि विद्यमानत्वात्।।(सांख्यदर्शन-6/103)
(केवल) स्थूल शरीर (ही) है, ऐसा नियम नहीं है; (क्यों कि) सूक्ष्म शरीरको ले जाने वाला देखागया (विद्यमान) है।) [(पुरि (स्थूलशरीरे) शेत इति पुरुष:।(सूक्ष्मशरीर:) (इति श्रुति:)]
મૃત્યુ થતા નિરાધાર મનમાં ગતિનો અભાવ જોવા મળત. પણ મન બીજા દેહને પ્રાપ્ત કરે છે, બીજા દેહ સુધી ગતિ કરે છે એવું જોવા મળે છે, એટલે મનને આધાર છે એવું પુરવાર થાય છે. આ આધાર જ સૂક્ષ્મ દેહનો છે.
अनादिरविवेकोऽन्यथा दोषद्वयप्रसक्ते:।। (सांख्यदर्शन-6/12)
(अविवेक अनादि है।अन्यथा (आदि माननेसे) दो प्रकारके दोष की प्राप्ति होगी।)
प्रतिनियतकारणनाश्यत्वमस्य ध्वान्तवत्।। (सांख्यदर्शन-6/14)
((अविवेककी) प्रतिनियत कारण (विवेक) से ही नाश हो सकता है, अंधकार (का जैसे प्रकाश से होता है, उस) की तरह)
न मुक्तस्य पुनर्बन्धयोगोऽप्यनावृत्तिश्रुत्तै:।। (सांख्यदर्शन-6/17)
[(न स पुनरावर्तते। ऐसी) अनावृत्तिकी श्रुति के कारण मुक्तको फिरसे बंधन नहीं होता)]
ध्यानं निर्विषयं मन:।। (सांख्यदर्शन-6/25)
(विषय रहित मन ध्यान है।)
नि:संगेऽप्युपरागोऽविवेकात्।। (सांख्यदर्शन-6/27)
(असंग (आत्मा) में भी अविवेक से उपराग (है ऐसा प्रतित होता) है।)
गतियोगेऽप्याद्यकारणताहानिरणुवत्।। (सांख्यदर्शन-6/37)
((प्रकृतिमें) गति के स्विकार से उसके (सृष्टि के) आदिकारण होनेमें हानि होती है, अणु की तरह।)
ગતિ એટલે ક્રિયા. જેનામાં ગતિ હોય તે ક્રિયાશીલ કહેવાય અને ક્રિયા હોય તે અવ્યાપક હોય. જો સર્વવ્યાપક હોય તો તેને ક્યાંય જવાની જરુર જ ન હોય, કારણ એ બધેજ હોય. પ્રકૃતિ મા ગતિ છે એવું સ્વિકારવાથી પ્રકૃતિ કોઈ (વ્યાપક) નું કાર્ય છે એવું સાબિત થાય અને તેથી તે સૃષ્ટિનું આદિકારણ નથી એવું સાબિત થઇ જાય.
सत्त्वादिनामतद्धर्मत्वं तद्रूपत्वात्। (सांख्यदर्शन-6/39)
((प्रकृति तीनों गुणरुप है लेकिन) सत्त्वादि गुणों प्रकृतिका धर्मरुप नहीं है, तद्रुपपणा से)
अनुपभोगेऽपि पुमर्थं सृष्टि: प्रधानस्योष्ट्रकुम्कुम वहनवत्। (सांख्यदर्शन-6/40) (6/58)
(जैसा ऊँटका (अपने स्वामिके लिये) केसरका वहन करना है, वैसे ही (पुरुषका) उपभोग न होनेपर भी मूलप्रकृतिकी सृष्टि पुरुषके (मोक्षके) लिये है।)
પ્રકૃતિ સૃષ્ટિનું સર્જન કરે છે. આના પરથી એટલું સ્પષ્ટ થાય છે કે પ્રકૃતિ અને સૃષ્ટિ બંને અલગ અલગ છે.
साम्यवैषम्याभ्यां कार्यद्वयम्। (सांख्यदर्शन-6/42)
((तीनों गुणोंके) साम्यपणासे (प्रकृति) और विषमपणासे (सृष्टिकी उत्पत्ति) प्रकृतिके दो कार्य है।)
(साम्यात्प्रकृते: सदृशपरिणामात् प्रलय:। वैषम्यात्प्रकृतेर्महदादिभावेन विसदृशपरिणामात्सृष्टि:।।)
સત્ત્વ, રજસ અને તમસ ની સામ્યાવસ્થા એટલે પ્રકૃતિ. ત્રણેના સમાન પરિણામ થી પ્રલય થાય છે. ત્રણે ગુણોની વિષમાવસ્થા થવાથી પ્રકૃતિ મહત્ આદિ રુપ થી (શરુ કરી) વિવિધરુપે પરિણામ પામી સૃષ્ટિનું સર્જન કરે છે.
જગતમાં બનતો દરેક બનાવ એ પ્રકૃતિદ્વારા ત્રણે ગુણોની સામ્યાવસ્થા જાળવવાનો પ્રયાસ છે, જેનાથી વિવિધરુરે સૃષ્ટિ વિકાસ પામ છે.
विमुक्तोबोधान्न सृष्टि: प्रधानस्य। (सांख्यदर्शन-6/43)
(जीसको मोक्षप्राप्ति हुइ है उनके लिये प्रधान (प्रकृति) की सृष्टि (बांधनेवाली न रहकर) निवृत हो जाती है।)
जन्मादिव्यवस्थात: पुरुषबहुत्वम्।। (सांख्यदर्शन-1/149)
(जन्म (मरण) आदिकी व्यवस्थाको देखते हुए आत्माका बहुत होना (सिद्ध होता) है।)
पुरुषबहुत्वमं व्यवस्थात्।।(सांख्यदर्शन-6/45)
(पुरुष (आत्मा) का अनेक पना है, (जन्म, मरण आदि की) व्यवस्था के कारण।)
अगर आत्मा एक होती तो कंई बातों की स्पष्टता नहीं हो सकती है, जैसे एक स्वर्गमें जाता है दूसरा नर्कमें, एकको मोक्ष है दूसरेको बन्ध है, एक हि आत्मा होता तो एकको मोक्ष मिलनेसे सबको मोक्ष मिल जाता, आत्मा केवल चेतन है और जीव विशिष्ट चेतन है ऐसा माननेसे विशिष्ट चेतन अनात्म हि होगा और आत्म रहा केवल चेतन फिर एक हो जायेगा और इससे मोक्ष और बन्धकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी, एक हि आत्मामें विरुद्ध धर्मके भाव जैसे उत्पन्न होना विनाश होना आरोपित नहीं हो सकते, इसलिये आत्मायें अनंत है, एक नहीं है।
अहंकार: कर्ता न पुरुष:। (सांख्यदर्शन-6/54)
(अहंकार ही कर्ता है, पुरुष नहीं।)
अभिमान वृत्ति की उत्पत्ति के बाद ही सब की कार्य में प्रवृत्ति देखने मिलती है. पुरुष अपरिणामी होनेके कारण पुरुष कर्ता नहीं बन सकता।
चिदवसाना भुक्तिस्तत्कर्मार्जितत्वात्।।(सांख्यदर्शन-6/55)
चित्तका नाश होनेसे भोग (कर्मफल) का (भी नाश हो जाता है, क्योंकि भोग) उस (चित्त) के कर्मसे अर्जित किया होने के कारण।
निर्गुणत्वात्तदसम्भवादहंकारधर्मा ह्येते।।(सांख्यदर्शन-6/62)
(निर्गुण होनेके कारण उस (आत्मा) के (कोई धर्म होना) संभव नहीं होनेके कारण वह (धर्माधर्मरुप संस्कार) अहंकारके ही धर्म है।)
विशिष्टस्य जीवत्वमन्वयव्यतिरेकात्।। (सांख्यदर्शन-6/63)
(जीवत्व विशिष्ट (अंत:करण) का होता है, अन्वय व्यतिरेक के कारण)
आत्मा असंग होनेके कारण उसमें जीवत् व( जीवरुप पना नहीं हो सकता। अंत:करण होता है तब ही जीवत्व होता है (अन्वय) और अंत:करण न रहने से जीवत्व भी नहीं रहता (व्यतिरेक)। इससे सिद्ध होता है कि अंत:करणविशिष्ट चेतन में ही जीवत्व संभव है।
अहंकारकर्त्रधीना कार्यसिद्धिर्नेश्वराधीना प्रमाणाभावात्।।(सांख्यदर्शन-6/64)
अहंकाररुप कर्ता (के संस्कार) के आधिन कर्मसिद्धि है, ईश्वर के आधिन नहीं है; (ईश्वर होनेके कोई) प्रमाणके अभाव से)
अदृष्टोद्भूतिवत्समानत्वम्।।(सांख्यदर्शन-6/65)
हरिः ॐ तत्सत्। हरिः ॐ तत्सत्। हरिः ॐ तत्सत्।
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