GITAJI.
GITA
एतान्न हन्तुमिच्छामि ध्नोतिऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नो महीकृते।। 1/35
एवमुक्त्वार्जुन: संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:।। 1/47
क्लैब्यं मा स्म ग़म: पार्थ नैतत्त्वय्युपपध्यते।
क्षुद्रं ह्रदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2/3
गुरुनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके। 2/5
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रुहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। 2/7
(कायरतारुप दोषसे उपहत हुए स्वभाव वाला तथा घर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हुँ की जो मेरे लिये निश्चित कल्याणकारक हो वह कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य आपके शरण आया हुँ मुझको शिक्षा दीजिये।)
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।2/9
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्।। (Gita-2/12)
(न तो ऐसा ही है कि किसी कालमें मैं न था अथवा तु नहीं (था) अथवा ये राजालोग नहीं (थे) और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे)(Gita-2/12)।
(It is not that there was a time when I didn’t exist, nor you (didn’t exist), nor all these kings (didn’t exist); nor it is that in future we shall not be.) Gita-2/12).
देहिनोअस्मिन्था देहे कौमारं यैवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।।2/13
(जैसे जीवकी इस देहमें बालपन, जवानी (और) वृद्धावस्था(होती है) वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमेंधीर पुरुष मोहित नहीं होता)
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। (Gita-2/14).
(हे कौन्तेय! (बाहर की दुनिया के) स्मर्शजन्य तमाम भोगों द्वैत पैदा करनेवाले, आने-जानेवाले तथा क्षणिक है; इसलिए हे भारत तू उनसे परे हो जा।) (Gita-2/14).
(O Konteya! All the pleasant feelings of senses (of outer world) are cause of creating duality, are transitory and impermanent; therefore O Bharat! You transcend them.) (Gita-2/14).
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। (Gita-2/15)
[हे पुरुष श्रेष्ठ! समत्वमें स्थित जिस विवेकी पुरुषको ये (स्मर्शजन्य भोगों) विचलित नहीं कर रहे है, वह अवश्य ही अमृतत्व को प्राप्त होता है।] (Gita-2/15)
[O best among the men! The erudite that is established in equanimity, whom these (pleasant feelings of senses) are not distracting, indeed avails to the immortality.](Gita-2/15).
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोअन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदशिॅ गभि:।।2/16 (असत्यका तो अस्तित्व नहीं है और सत्यका
अन-अस्तित्व नहीं है। (इस प्रकार) इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है)
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सवॅमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।। 2/17.
(नाशरहित तो तू उसको जान, जीससे सम्पूर्ण जगत व्याप्तहै। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।)
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। 2/18.
(और इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरुप, आत्माके ये सबशरीर नाशवान है। इसलिये हे भारत तुं युद्ध कर।)
न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोअयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। 2/20.
(यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता हैतथा न (यह) उत्पन्न होकर फिर होनेवाला है। क्योंकि यहअजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन आत्मा; शरीरके मारेजानेपर भी(यह आत्मा) नहीं मारा जाता)
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।। 2/21.
(हे अर्जुन! जो पुरुष इस (आत्मा)को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अक्षर जानता है, वह पुरुष कैसे किसकोमरवाता है (और) कैसे किसको मारता है?)
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।-2/22
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रृवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमहॅसि।। 2/27.
(क्योंकि जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्मनिश्चित है। इससे (भी इस) बिना उपायवाले विषयमें तूझेशोक नही करना चाहिये।)
(Death is certain for all that are born and birth for all that dies.
Therefore you should not be distressed for what is unavoidable). अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।। 2/28
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।। 2/31
(तथा अपने धर्मको देखकर भी तूझे भागना नहीं चाहिये, क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुद्धसे बढ़कर अन्य कोइ कल्याणकारी नहीं है।)
संभावितस्य चाकीतिॅमॅरणादतिरिच्यते। 2/34
(माननीय पुरुषके लिये अपकीर्ति मरणसे (भी) बढ़कर है।)
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्। 2/35.
(और जिन लोकोंमें तू बहुत सम्मानित हुआ है (उसमें अब) हल्का पड़ेगा ।)
स्वल्पमप्यस्य धमॅस्य त्रायते महतो भयात्।2/40.
(यह धर्मका थोड़ासा भी (आचरण) (जन्म-मृत्युरुप) महानभयसे रक्षा कर लेता है।)
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्ति अविपचित:। 2/42.
(वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जो दिखावारुप वाणी (हैउस) को कहा करते है।)
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।(Gita-2/45).
[(क्यों कि) वेदों, साधक में तीनों गुणों के बढ़ावादेनेवाले भोगों की प्राप्ति के साधनों को विषय बनानेवाले है, (इसलिये) हे अर्जुन! तुम (वेदों से विमुख होकर) तीनों गुणों से पार, द्वन्द्वरहित, अपने स्वरुपमें स्थित, योग और क्षेम को न चाहनेवाला और आत्मवान् हो जाओ।)(Gita-2/45).
[(O Arjun, since Vedas are dealing with the means that avail objects of enjoyment promoting Three Gunas in the seeker, (therefore) O Arjun, (after flinching the Vedas,) become one who has transcendedThree Gunas, who is nondualistic, established in his Pure Being, not desiring livelihood and one who has priority only for divinity) (Gita-2/45).
कमॅण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कमॅफलहेतुर्भूर्मा ते संगोअस्त्वकमॅणिॅ।। (Gita-2/47)।
(तेरा वास्ता केवल कर्म से जूड़ा हुआ है, (कर्म के) परिणाम में कभी नहीं।जो अपने कर्म के परिणाम के द्वारा उकसाया जाता है, वह तुम मत हो; (और) न तेरी स्थिति कर्म न करने के पक्ष में हो।)।(Gita-2/47)।
(Your concern is connected only with the action, never in the result (of action). Don’t be one who is actuated by the result of his acts; (and) let not it be so, wherein you are united with not doing the action.)(Gita-2/47).
समत्वं योग उच्यते। (Gita-2/48).
(समत्व के आचरण को जीना ही परमात्मा के साथ एक होना है।) (Gita-2/48).
(The assimilation of Equanimity as a mode of life itself is to be one with Parmatma). (Gita-2/48).
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धो शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव:। 2/49
(ज्ञानयोगसे कर्मयोग अत्यंत ही निम्न श्रेणीका है। इसलिये हे धनंजय तू ज्ञानयोगमें रक्षाका उपाय ढूँढ ( अर्थात ज्ञानयोगका आश्रयकर) क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यंत दीन है।)
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कखते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्।।(Gita-2/50)।
[समत्वयोग आत्मसात किया व्यक्ति इस जन्म (के जीवन के) दरमियाँ हि (अपने में निर्दन्द्व समझ पैदा हो जाने के कारण) पुण्य और पाप दोनों को त्याग देता है।समत्वयोग (में डटे रहने की यह निर्दन्द्व समझ पैदा कर लेना हि) कर्म में कुशलता (माना जाता) है; इसलिये (तू अवश्य हि) समत्वयोग में संयोजित हो जा।](Gita-2/50)।
[The person assimilated in Samtva Yoga, (because of nondualistic understanding being born in him) abandons both, the righteous act and the evil act during (life span of) this birth itself. (Bearing the nondualistic understanding of standing firm) in Samatva Yoga (is believed to be) the acuteness of sensation in action; therefore (you must) get connected with Samatva Yoga]. (Gita-2/50)
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।(Gita-2/53).
(जब तेरी (बुद्धि) हंमेशा वेदों के मत की अवहेलना करने में स्थिर हो जायेगी, तब बुद्धि का (यह) निरंतर सामंजस्य, तुझे ज्ञानयोग को प्राप्त करायेगा।)(Gita-2/53)।
(When your (intellect) will permanently become unchanging in disregarding the doctrine of the Vedas, then the intellect (thus) becoming constantly harmonious, will avail you to Gyanyoga.) (Gita-2/53).
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पाथॅ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।। 2/55.
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते।। 2/59
((इन्द्रियोंके द्वारा) विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके (भी केवल) विषयों (तो) निवृत हो जाते है, (परंतु उनमें रहने वाली) आसक्ति निवृत नहीं होती। इस (स्थितप्रज्ञ पुरुष) की तो आसक्ति भी परमात्माका साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।)
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित:।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन:।। (Gita-2/60)
(हे अर्जुन! यह घोर कष्ट देनेवाली इन्द्रियाँ तप करते हुए बुद्धिमान पुरुषके मनको भी अत्याग्रहपूर्वक हर लेती है।)(Gita-2/60)
(O Arjun! These tormenting senses, importunately bewitches a man of wisdom also even though he is penancing.) (Gita-2/60).
ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।। 2/62
(विषयोंका चिंतन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे (उन विषयोंकी) कामना उत्पन्न होती है और कामना(में विघ्न पड़ने) से क्रोध उत्पन्न होता है।)
क्रोधाद्भवति संम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। 2/63
(क्रोधसे अत्यंत मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भावसे स्मृतिमें भ्रम हो जाता है, स्मृति भ्रम हो जानेसे बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्तिका नाश हो जाता है और बुद्धिनाश हो जानेसे (वह पुरुषका भी) नाश हो जाता है।)
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैविॅधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2/64
(वायुर्नावमिवाम्भसि 2/67
या निशा सवॅभूतानां तस्यां जागतिॅ संयमि।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनै:।। 2/69
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठंसमुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
यद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2/70
विहाय कामान्य: सर्वान्पुंमांश्चरति नि:स्पृह:। निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगछच्छति।। (Gita-2/71).
(जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर; ममतारहित, अहंकाररहित, कामनारहित वर्तता है, वह शान्ति को उपलब्ध हो जाता है।)(Gita-2/71).
(The man who acts in general without having a desire, without a sense of ownership, without an ego, without a covetousness; avails to a peace).(Gita-2/71).
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।3/1
लोकेऽस्मिन्द्विविद्यानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानध।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।। 3/3
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।। (Gita-3/5)
(नि:संदेह किसीभी कालमें कोईभी क्षण बिना कर्म किये हुए (तू) नहीं रह सकता, प्रकृतिजनित गुणों द्वारा अवश हुए सर्व मनुष्यों कर्म किया हि करते है।)(Gita-3/5)
(Certainly, no any moment in any time (you) can remain without doing an action, all the men, made helpless by the Gunas born of the Nature, are indeed doing the actions.)(Gita-3/5).
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।। (Gita-3/6).
(जो (मनुष्य बाहर से तो) कर्मेन्द्रियाों को संयमित कर लेता है, लेकिन मनसे (कल्पना करके) इन्द्रियों के विषयों की मज़ा लूंटता रहता है; वह महामूढ़ है और (उसका संयम आदि) वर्तन दम्भ कहा जाता है।)(Gita-3/6).
(One who restrains the sense organs of actions (from outside), but (imagining) by the mind indulges into the subjects of sense organs, he is the most idiot and (his restraining etc) behaviour is called hypocrisy.).(Gita-3/6).
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि च इमॉंल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।। (Gita-18/17)
(जिस पुरुषको (कर्मों में कर्तापनके) अहंकार का भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि (उस कर्मोंमें द्वन्द्वात्मकभाव बनाकर) लिपायमान नहीं होती है, वहपुरुष इन सब लोकोंको मारकर भी (वास्तवमें) न तो किसी को मारता है और न हीं (उस कर्मों के परिणाम से) बँधता है।)(Gita-18/17). (One who doesn’t have an attribute of ego (of doership in the deeds) and whose intelligence is not entangled(by begetting a dualistic liaison in the deeds), though he kills all the men in all the worlds, (actually) he neither kills nor he is bound (by the outcome of those deeds.) (Gita-18/17).
कमॅ ज्याय: हि अकमॅण:। 3/8
(अकमॅसे कमॅ बेहतर है)
यज्ञार्थात्कमॅणोअन्यत्र लोकोअयं कमॅबन्धन:।
तदथॅं कमॅ कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।। 3/9
“Work, in this world, if not done for common good, then it is bondage. That is why O Arjun! You perform your duty without any attachment and that too aiming to satisfy the needs of System”.
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।। (Gita-3/17)
(परंतु जो मनुष्य आत्मामें ही रमण करनेवाला और आत्मामें ही तृप्त तथा आत्मामें ही संतुष्ट हो जाता है, तो उसका कोई कार्य नहीं दिखता है।)(Gita-3/17)
(But if a man remains self delighted, gets self satiated and becomes self satisfied, then for him there exists no work). (Gita-3/17)
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदथॅव्यपाश्रय:। ।3/18
(उसका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन है और न कर्मोंके न करनेसे ही। तथा संपूर्ण प्राणियोंमें इसका स्वाथॅका कोइ संबंध होता नहिं है) 3/18
(What on earth, he has interest in works done or undone? Because he has no selfish motive behind his relations with beings and things.)
यद्यदाचरति श्रेष्ठ: तत्तदेवेतरोजन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवतॅते।।3/21
(Whatever a great man does, that others will also do. Whatever standard he sets, the same the world will follow.)
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्त्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।। 3/25
(हे भारत कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार (कर्म) करते है, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार (कर्म) करे।)
(As the ignorant acts from attachment to work, the wise however should act, but in the spirit of detachment; with a desire to maintain the universal order.)
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त समाचरन्।3/26.
(परमात्मामें स्थित विद्वानको चाहियेकि वह कर्मोमें आसक्तिवाले अज्ञानियोंकी बुद्धिमें भ्रम अर्थात कर्मोंमें अश्रद्धाउत्पन्न न करें। (किंतु स्वयं) शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ (उनसे भी वैसे ही) करवाये)
(The learned man must not create wrong notion in the intellect of the ignorants who are acting out of attachment. But rather being established in Parmatma, he should continue his prescribed actions and inspire the ignorants for the same.)
प्रकृतै: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सवॅश:।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। (Gita-3/27)
(सब कर्मों सब प्रकार से प्रकृतिके गुणों द्वारा किये जाते है; (फिरभी) अहंकार से मूढ़ हुआ अज्ञानी “मैं कर्ता हूँ”, ऐसा मानता है।)(Gita-3/27)
(All the actions, in every way, are being done by the Gunas of the Nature, (yet) an ignorant, bewitched by the ego, believes: “I am the doer”.) (Gita-3/27).
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।। (Gita-13/29).
(और जो पुरुष सब कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिसे ही कियेहुए देखता है और अपनेको अकर्ता देखता है, वही यथार्थदेखता है)(Gita-13/29).
“The person who visualises that all actions are executed by the Nature, and realises himself as non doer, is the real visionary.” (Gita-13/29.)
नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।। (Gita-14/19)
(जिस समय द्रष्टा (प्रकृति के) गुणोंके अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है, और (अपनेको उस) गुणोंसे अत्यंत परे हुआ महेसूस करता है, (उसी समय) वह मेरे स्वरुपको प्राप्त हो जाता है।)(Gita-14/19)
(When the Witness, realises that there is no doer other than the Gunas (of the Nature), and perceives (Himself) as having transcended (the said) Gunas, he at once attains the Being of Mine.) (Gita-14/19).
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति।।3/33
(संपूर्ण प्राणीजगत (परवश होकर) अपनी प्रकृति (चित्तवृत्ति या संस्कार) को अनुसरता (हुआ चेष्टा करता) है। ज्ञानी भी अपनी प्रकृति (चित्तवृत्ति या संस्कार) के अनुसार ही चेष्टा करता रहता है, फिर (कोई मन वग़ैरह का) निग्रह कैसे करेगा?)
[All the creatures are (helplessly behaving) following to their innate Nature (Chittavritti or Habitual Inertia or Sanskaar.) Even a man of wisdom also keeps behaving as per his innate Nature (Chittavritti or Habitual Inertia or Sanskaar), then (how anyone) will be restraining (Mind etc)? (Gita-3/33).
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।। 3/28
(परंतु हे महाबाहो गुणविभाग और कर्मविभागके तत्त्वको जाननेवाला ज्ञानयोगी (तो) गुणों हि गुणोंमें बरत रहे है, एसा समजकर (उनमें) आसक्त नहीं होता।)
प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।। 3/29
(प्रकृतिके गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए मनुष्यों गुण (विभाग) और कर्म (विभाग)में आसक्त रहते है; (गुणविभाग और कर्मविभागके तत्त्वको जाननेवाला) आत्मवेताको चाहिये कि वह उन मंदबुद्धिवाले संपूर्ण अज्ञानियोंको विचलित न करे।)
श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परघर्मात्स्वनुष्ठितात्।o
स्वधर्मेनिधनं श्रेय: परधर्मों भयावह:।। 3/35
अथ केन प्रयुक्तोअयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:। (Gita-3/36)(अर्जुन पूछता है)
(हे कृष्ण तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात लगाये हुए की भाँति किससे जोतागया हुआ पाप कर्म का आचरण करता है)(Gita-3/36)
(O Krishna! Then, though man himself not desiring yet, by whom harnessed he is committing sinful action, as if pushed forcefully.)(Gita-3/36).
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:। 3/37
“The reason for this is the lust born out of material mode of passion and later transformed into wrath”. (Gita-3/37).
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठान्मुच्यते।
एतैविॅमोह़यत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। 3/40
(इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि (ये सब) इसके वासस्थान कहे जातेहै। यह (काम) इन (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) द्वारा ही ज्ञानकोआच्छादित करके जीवात्माको मोहित करता है।)
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाम्पानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।3/41
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स;।। 3/42
“The sense organs are superior to body, Mind is superior to sense organs, the intellect is superior to mind, and Pramatam is superior to intellect”. (Gita-3/42)
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।। (Gita-4/5)
(हे परन्तप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्मों हो चुके है, उन सबको मैं जानता हूँ लेकिन तू नहीं जानता।) (Gita-4/5)
(O Parantapa Arjuna! Many births have been left behind by Me and by you, I know them all, but you don’t know them.) (Gita-4/5)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।(Gita-4/7)
(हे भारत! मैं तब ही अपने साकाररुपसे प्रकट होता हुँ, जब जब धर्मकी संपूर्ण हानि (होती है और) अधर्म की बड़े पैमाने पर वृद्धि होती है।) (Gita-4/7)
(O Bharat! I manifest my embodied form only when there is a total decline of religion and a predominant rise of irreligion) (Gita-4/7).
परित्राणाय साधूनां विनाशाय चदुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।4/8
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। 4/11
कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:।(Gita-4/12)
(इस मनुष्य लोकमें कर्मोंके फलको चाहनेवाले (लोग अन्य) देवताओंका पूजन किया करते है।
(Gita-4/12)
(The people desiring the fruition of actions are worshipper of deities (other than me), in this mundane world) (Gita-4/12).
न मां दुष्कृतिनो मूढ़ा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापह्रतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:।। (Gita-7/15)
(दुष्कर्म करनेवाले, मूढ़लोग, आसुरी भाववाले (और) नीच मनुष्यों का ज्ञान माया द्वारा हरा जा चूकने के कारण मेरा आश्रय नहीं कर सकते है।)(Gita-7/15).
(The miscreants, grossly foolish, people with demonic nature (and) the vile men, cannot take refuge unto me, because their knowledge happens to be taken away by the illusion)(Gita-7/15).
कामैस्तेस्तेर्ह्रतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृतिया नियता: स्वया।। (Gita-7/20)
(अपने संस्कार (प्रकृति)के अनुरूप निर्मित हुई कामनाओंसे जिसका ज्ञान हरा जा चूका है वैसे लोग, उन उन (कामनाके अनुरुप) वह वह अन्य देवता का आश्रय लेते है।) (Gita-7/20).
(They whose wisdom, has been detracted by the desires, formed according to their own Habitual Inertia or Sanskaar (Nature), take refuge unto each that deity that is (in accordance with) each that desire) (Gita-7/20).
चातुवॅण्यॅं मया सृष्टं गुणकमॅविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।(Gita-4/13)
[(अतीत के जन्मों में साधक द्वारा अपने में अर्जित किये गये प्रधान) गुण के आधार पर (साधक के लिये) चार रंगो के (कृष्ण कर्म, शुक्लकृष्ण कर्म, शुक्ल कर्म और अशुक्लकृष्ण कर्म) कर्मों का विभाजन मेरे द्वारा रचा गया है। उस (कर्मों) का कर्ता होनेपर भी (वे साधक के द्वारा ही अर्जित किये गये होने के कारण) मुझ अविनाशीको तू (उसका) अकर्ता हि जान।)] (Gita-4/13)
[The division of four colored actions (Krishna Action, Shukla-Krishna Action, Shukla Action and Nonshukla-NonKrishna Action for the seeker) is made by Me on the base of (the Dominant) Guna ( that the seeker has earned in him during his past lives). Though being the maker of those (actions), perceive Immortal Me as non maker (of those actions as they have been earned by the seeker himself.)]. (Gita-4/13).
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत।। 4/18
जो मनुष्य कर्ममें अकर्मको देखता है और अकर्ममे कर्मको देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान है, योगी है और अब उसको कुछ करनेका बाक़ी नहीं है।)
इसका मतलब है जीसको प्रकृतिमें कोइ द्वैत ही नहीं दिखता और सब विरोधाभासको जो पी गया है, और कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते होने के कारण वह अकर्ता है, और अगर द्वैत भाव बना लेता है तो प्रकृति को प्रतिक्रिया का आयोजन करना पड़ेगा और हालाँकि उसमें अन्य कोंई कर्ता होगा और वह खुद अकर्ता है, लेकिन फिरभी उसके द्वैत भाव के कारण यह कर्म हो रहा है इसलिये अकर्ता होने पर भी वह कर्ता है।
यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:।। 4/19
निराशीर्यचित्तात्मा त्यक्त्त्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।(Gita-4/21).
(आकांक्षारहित, चित्त सहित अपने को जिता हुआ, सब अर्जित पदार्थों को त्यागा हुआ (साधक); शरीर के कुछ कार्य करने के केवल कारण से पाप को प्राप्त नहीं होता है।) (Gita-4/21).
[(A seeker) who is free from desire, who has overcome Chitta along with himself, who has abandoned all acquisitions; doesn’t avail sins for the only reason that the body has done some work.) (Gita-4/21).
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।। (Gita-4/33)
(हे परंतप! द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ है। हे पार्थ! पूरे ब्रह्मांड के सम्पूर्ण कर्मों ज्ञानमें समाविष्ट हो जाते है।) (Gita-4/33)
(O Parth! All the actions of universe gets contained in the Knowledge.) (Gita-4/33).
यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पांडव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।4/35
(जिसको जानकर फिर (तू) इसप्रकार मोहको प्राप्त नहीं होगा। और हे अर्जुन! जिस ज्ञानके द्वारा (तू) संपूर्ण प्राणिओंको अपनेमें ओर मुझमें भी देखेगा।)
अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृतम्।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।। (Gita-4/36)
(यदि (तूने) सब पापीयोंसे भी अधिक पाप किये हुए है, (फिर भी तूने अगर विवेक) ज्ञान (आत्मसात किया है तो) उसकी नौकाद्वारा नि:संदेह तू (जन्म और मृत्युरुप) संतापों के समुद्र को भलीभाँति तर जायेगा।)(Gita-4/36).
(Even if you are having committed sins more than all other sinners, (yet) if you have assimilated Knowledge (of Discernment), then doubtlessly you shall well transcend the ocean of affliction (of birth and death) by the raft of Knowledge. (Gita-4/36).
यथैधांसि समिद्धोअग्निभॅस्मसात्कुरुतेअर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सवॅकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। (Gita-4/37).
(हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंन्धनों को भस्मीभूत कर देता है, वैसे ही ज्ञानरुप अग्नि सब कर्मों को भस्मीभूत कर देता है।)(Gita-4/37).
(As the blazing fire turns firewood to ashes, so does the light of Wisdom burns all effects of all sort of actions). (Gita-4/37).
नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति।। 4/38
(इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला नि:संदेह (कुछ भी) नहीं है। उस ज्ञानको समय जानेपर योगको सिद्ध किया हुआ तू अपने-आप, अपनेमें ही पा लेता है।)
श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। (Gita-4/39)
(जो श्रद्धावान, तत्पर, जितेन्द्रिय है वह ज्ञान को प्राप्त होता है; ज्ञान को प्राप्त होकर तत्काल ही परम शांति को उपलब्ध हो जाता है।) (Gita-4/39)
(One who is full of faith, assiduous, who has won over the senses, obtains the wisdom; having obtained the wisdom, he instantly avails to the supreme Peace) (Gita-4/39).
अज्ञचाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन:।।(Gita-4/40).
(अज्ञानी, श्रद्धारहित, संशययुक्त मनुष्य नष्ट हो जाता है; संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।)(Gita-4/40).
(One who is ignorant, faithless and doubting man, gets perished; one who is doubting man, doesn’t have this world, nor that beyond, nor the happiness). (Gita-4/40).
संन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रुहि सुनिश्चितम्।।5/1
ज्ञेय: स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।। (Gita-5/3)
(हे महाबाहो! जो पुरुष (अनायास जो कुछ प्राप्त होता है,) न (उसका) तिरस्कार करता है (और) (जो उसे प्राप्त नहीं हो रहा है,) न ही (उसकी) आकांक्षा करता है, उसको सदा संन्यासी ही जानने योग्य है; क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्दों से रहित पुरुष सुखपूर्वक (जन्म और मृत्यु के चक्र से) मुक्त हो जाता है।) (Gita-5/3)
(O Strong Man! One who is not loathing (what has effortlessly come to him and) is not expecting (what he has not materialized), he is always to be understood as a hermit; because a man free from all dualities, easily gets liberated (from the cycle of birth and death.) (Gita-5/3).
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:। 5/4
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5/4
यत्सांख्ये: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।।5/5
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।। 5/8-9
न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।
न कमॅफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवतॅते।। 5/14.
(परमेश्वर मनुष्योंके न तो कर्मकरनेकी चाह या कर्मकरनेकी शक्तिको, न मनुष्यके कर्मोंकी और न हि मनुष्यके कर्मोंके कर्मफलके संयोगकी रचना करते है, (किंतु यह सब मनुष्यके पूर्व जन्मोंके कर्मोंसे निर्मित) स्वभावके मुताबिक़ ही हो रहा है)
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:।। 5/15
(सर्वव्यापी परमेश्वर न किसीके पापकर्मको और न (किसीके) शुभकर्मको ही ग्रहण करते है; (किंतु) अज्ञानके द्वारा (लोगोंका) ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब अज्ञानी मनुष्य (प्रभु यह ग्रहण करते है ऐसा) भ्रमित हो रहे है।)
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।। (Gita-5/16)
(लेकिन आत्मज्ञानके द्वारा जिनका वह अज्ञान नष्ट हो गया है, उनका सूर्यके समान प्रकाशमान वह ज्ञान उस महात्माको प्रबुद्ध कर देता है।) (Gita-5/16)
(But whose the said Ignorance has been destroyed by the Self-Knowledge, their said Knowledge as bright as the light of Sun, enlightens that erudite.) (Gita-5/16).
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।। 10/11
(उनके (उपर) अनुग्रह करनेके लिये उनके अंत:करणमें स्थितहुआ मैं स्वयं ही (उनके) अज्ञानजनित अंधकारको प्रकाशमयतत्त्वज्ञानरुप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ ).
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा:।
गच्छन्त्यपुनरावृतिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:।। 5/17
(जो आप प्रभुमय हुआ है, जीसकी बुद्धि प्रभुमय हुइ है, जीसकी निष्ठा प्रभुमय हुइ है, वह प्रभुमय पुरुष ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर जन्म-मरणके चक्रसे मूक्त हो जाता है।)
इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:।। (Gita-5/19)
(जिनके मन समत्व में स्थित है, उन्होंने इस जिवित अवस्थामें ही प्रकृतिपर विजय पा लिया है।क्योंकि वे परमात्मा के समान निर्दोष है, इसलिये वे परमात्मामें (एकीभूत होकर) स्थित है।).(Gita-5/19)
[Those whose mind is firmly established in the Equanimity, have indeed won over the Nature in this life itself. Because they are as innocent as Parmatma, therefore they are abiding in Parmatma (by becoming one with Him)](Gita-5/19).
न प्रह्रष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:।।(Gita- 5/20)
(प्रियको प्राप्त होकर जो हर्षित न हो और अप्रियको प्राप्त होकर जो उद्विग्न न हो (वह) स्थितप्रज्ञ, ज्ञानी और ब्रह्मवेत्ता पुरुष (है और वह सहज ही) ब्रह्ममें ही स्थायी रहता है।)
[A person who neither rejoices upon achieving something pleasant nor laments upon achieving something unpleasant, is a resolute, a disillusioned and a man who has Realised Parmatma; (and he inherently) remains abiding in Parmatma (God)](Gita-5/20).
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।। 5/21
(बहारके विषयोंमें आसक्तिरहित अंत:करणवाला साधकआत्मामें जो (ध्यानजनित सात्विक) आनंद है, उसको प्राप्तहोता है, (तदन्तर) वह परमात्माके ध्यानरुप योगमेंअभिन्नभावसे स्थित पुरुष अक्षय आनंदका अनुभव करता है।)
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्धन्तवन्त: कौन्त्य न तेषु रमते बुध:।। (Gita-5/22).
(Gita-5/22).
(हे अर्जुन! विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले जो भोगों है, वे आदि और अंतवाले होने के कारण नि:संदेह दु:ख के कारणभूत हैं, इसलिये विवेकी पुरुष उनमें रममाण नहीं होता). (Gita-5/22).
(O Arjun! As the pleasures born from the sense organs’ contacts with the subjects are having beginning and the end, they are verily sources of sufferings only, therefore a man with Knowledge of Discernment doesn’t indulge in them)(Gita-5/22).
शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राकशरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त्त: स सुखी नर:।।
(Gita-5/23)
(इस शरीर से मुक्त होने से पहेले ही, यहाँ (पृथ्वी पर) ही जो काम और क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले आवेग पर विजय पाने में समर्थ हो जाता है, वह पुरुष योगी है और वही सुखी है।) (Gita-5/23).
(Before being liberated from the body, if one becomes able here (on earth) itself, to overcome the propulsive force arising from lust and anger, then he is Yogi and he is a happy man.)(Gita-5/23).
योऽन्त: सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य:।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।। 5/24
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यां श्चक्षु श्चैवान्तरे भ्रुवो:।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।। 5/27
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण:।
विगतेच्छाभयक्रोधो य: सदा मूक्त एव च।। 5/28
(बाहरके विषयभोगोंको (न चिंतन करता हुआ) बाहर हि निकालकर और नेत्रोंकी दृष्टिको भृकुटिके बिचमें (स्थत करके तथा) नासिकामें विचरनेवाले प्राण और अपान वायुको सम करके जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई है, (ऐसा) जो मोक्षपरायण मुनी इच्छा, भय और क्रोधसे रहित हो गया हा, वह सदा मूक्त ही है।)
अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:।
स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:।। 6/1
(जो पुरुष कर्मफलका आश्रय न लेकर करने योग्य कर्मकरता है, वह संन्यासी तथा योगी है; केवल अग्निका त्यागकरनेवाला (संन्यासी) नहीं है तथा केवल क्रियाओंका त्यागकरनेवाला (योगी) नहीं है।)
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।।6/2
(हे अर्जुन जिसको संन्यास ऐसा कहते है, उसीको तु योगजान। क्योंकि संकल्पोंका त्याग न करनेवाला कोईभी पुरुषयोगी नहीं होता)
(Know, Arjun, that what man call renunciation is the authentic yoga; for without renouncing all volitions, none can become Yogi.)
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारुढस्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते।। (Gita-6/3)
(योगमें आरूढ़ हो रहे मुनी के लिये कर्म हेतु कहा गया है, वही योगारुढ का समत्व हेतु कहा गया है।) (Gita-6/3)
(For the Sage advancing in yoga, action is the mean, the equanimity is the mean for the one who has already established in yoga.) (Gita-6/3).
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारुढस्तदोच्यते।। 6/4
(जीस कालमें (पुरुष)न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें और न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस कालमें सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष योगारुढ कहा जाता है।)
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्घुरात्मैव रिपुरात्मन:।। (Gita-6/5)
[(साधक को चाहिये कि) अपने द्वारा अपना उद्धार करें, अपनी अवनति न करें; क्योंकि (साधक) आप ही अपना मित्र (या) आप ही अपना शत्रु (बन सकता) है।(Gita: 6/5).
[(A seeker) must help uplift himself and must not degrade himself; because he can (either) become friend to himself (or can) become foe to himself].(Gita: 6/5).
बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।। 6/6
(जेनाथी पोताना वडे पोताना उपर जीत मेलवायेल छे ते पोतेपोतानो मित्रज छे अने (जीत मेलवायेल ) नथी (ते) पोतेपोतानी साथे शत्रुतामां वर्ते छे)
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। 6/13
(काया, शिर और गलेको समान एवं अचल रखकर और स्थिर होकर अपनी नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर अन्य दिशाओंको न देखता हुआ (ध्यानमें स्थित होवे)
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। 6/14
(काया, शिर और गलेको समान एवं अचल रखकर और स्थिर होकर अपनी नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर अन्य दिशाओंको न देखता हुआ (ध्यानमें स्थित होवे)
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मषु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।6/17
(दु:खोका नाश करनेवाला योगतो यथायोगय आहार-विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोगय चेष्टा करनेवालेका (और) यथायोगय सोने तथा जागनेवालेका (ही सिद्ध) होता है।)
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।6/18
(अत्यन्त वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपनेमें हि भली भाँति स्थित हो जाता है, उस कालमें सम्पूर्ण भोगोंसे स्पृहा रहित (वह) पुरुष योग युक्त (ध्यानस्थ) है, एसा कहा जाता है।)
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युंजतो योगमात्मन:।। 6/19
(जिस प्रकार वायुरहित स्थानमें स्थित दीपक चलायमान नहींहोता, वैसी ही उपमा नीजस्वरूपके ध्यानमें लगे हुए योगीकेजीते हुए चित्तकी कही गयी है।)
यत्रोपरमते चितं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुषियति।। 6/20
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत:।। 6/21
(इन्द्रियोंसे अतीत (केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म) बुद्धिद्वारा ग्रहणकरने योग्य जो अनन्त आनंद है, उसको जिस अवस्थामेंअनुभव करता है, और जिस अवस्थामें स्थित यह (योगी) परमात्माके स्वरुपसे विचलित नहीं होता (वह ध्यान योग है)
यं लब्धवा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते।। 6/22
(और जीस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा (कुछभीलाभ) नहीं मानता और (ध्यानरुप) जिस अवस्थामें स्थित(योगी) बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता)
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।। 6/23
(और जो दु:खरुप संसारके संयोगसे रहित है (तथा) जिसकानाम योग है, उसको जानना चाहिये। वह योग न उक्ताये हुएअर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्तसे निश्चयपूर्वक करनाचाहिये।)
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयेन।। 8/8
(हे पार्थ (यह नियम है कि) ध्यानके अभ्यासरुप योगसे युक्तदूसरी और न जानेवाले चित्तसे निरंतन चिंतन करता हुआ(मनुष्य) परम दिव्य पुरुषको अर्थात परमेश्वरको ही प्राप्तहोता है।) 8/8
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।। 5/21
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।। 13/24
संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:। (Gita-6/24)
[संकल्पसे उत्पन्न होनेवाले सभी कामों को नि:शेषरुपसे त्याग करना (चाहिये)]।) (Gita-6/24)
[One must unexceptionally abandon all actions that are born out of his volition.) (Gita-6/24).
युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।। 6/28
((वह) पापरहित योगी इसप्रकार निरंतर अपनेको अपनेमेंलगाता हुआ सुखपूर्वक ब्रह्म अनुभूतिका अनंत आनंदकाअनुभव करता है)
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:।।
(Gita-6/29)
(जो सब प्राणिओंको अपनेमें स्थित देखता है और अपनेको सब प्राणिओंमें हि (स्थित देखता है); वही सबको समदृष्टिसे देखने वाला आत्मवेत्ता योगी है।) (Gita-6/29)
(One who perceives all beings as abiding in himself and (perceives) himself (as abiding) in all beings; is a self realized Yogi, looking on all with equanimity). (Gita-6/29)
The self, harmonised by yoga, seeth the Self abiding in all beings, all beings in the Self; everywhere he seeth the same.
यो मां पश्यति सवॅत्र सवॅं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति।। 6/30
(He who sees me everywhere and sees all in me, he is never felt away from me and I am also never felt away from him).
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।। (Gita-6/31)
(सब भूतोंमें (मैं) एक हि बसा हुँ, इसतरह जानकर जो मुझको भजता है, वह योगी जो कुछ भी करता हुआ भी मुझमें ही बसता है।) (Gita-6/31).
(Whoever worships me believing as that (I) alone am abiding in all beings; behaving in whatever way yet that Yogi, abides in me only.)(Gita-6/31).
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:।। 6/32
(हे अर्जुन! सुख (प्राप्त होता) हो या दु:ख (प्राप्त होता) हो (फिर भी) जो मनुष्य, जैसे (वह) अपने साथ (वर्तता है) वैसे ही सभी के साथ समभावसे वर्तता है, उस योगीको परम श्रेष्ठ माना गया है।)
[O Arjuna! Though it may be (entailing) happiness or it may be (entailing) suffering, but yet who behaves with everyone with the equanimity, just like as he (behaves) with himself, that Yogi is believed to be the best divine. (Gita-6/32).
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं सथिराम्।।6/33
चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। 6/34
असंशयं महाबाहो मनो दुनिॅग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते।। 6/35
“O Arjun! Doubtlessly mind is uncontrollable and wavering, but you can control it by practice and renunciation”. (Gita-6/35 )
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योअवाप्तुमुपायत:।। 6/36
(जिसका मन वशमें किया हुआ नहीं है, एसे पुरुष द्वारा योगदुष्प्राप्य है और वशमें किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुषद्वारासाधनसे (उसका) प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है।)
न हि कल्याणकृत्कच्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति। 6/40
(क्योंकि हे प्यारे (भगवत्प्राप्तिके लिये) शुभ कर्म करनेवालेकाकोईभी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता।)
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा:।
शुचिनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते। 6/41
(योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानोंके लोकोंको प्राप्त होकर (उनमें) बहुत वर्षोंतक निवास करके (फिर) शुद्ध आचरणवाले श्रीमंत पुरुषोंकेघरमें जन्म लेता है।)
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजन्ते यो मां स मे यक्ततमो मत;।। 6/47
ज्ञानं तेअहं सविज्ञानं इदं वक्ष्याम्यशेषत:।
यज्ज्ञात्वानेह भूयोअन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।। 7/2
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्तवत:।। 7/3
भूमिरापोअनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतियं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (Gita-7/4)
(भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी इस प्रकार यह आठ प्रकार की भिन्नता वाली मेरी प्रकृति है।(Gita-7/4)
(The earth, water, fire, air, space, mind, intellect and ego, are parts of my eight folded Nature.) (Gita-7/4 )
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धायॅते जगत।। 7/5
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।। 7/6
(एसा समज कि संपूर्ण भूतों इन दोनों प्रकृतिसे उत्पन्नहोनेवाले है और मैं संपूर्ण जगतका प्रभव तथा प्रलय हूँ(अर्थात संपूर्ण जगतका मूल कारण हूँ ))
मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सवॅमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। 7/7
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्। 7/10
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। (Gita-7/11)
(हे भरतश्रेष्ठ! जो धर्मका विरोधी नहीं है, वैसा प्राणिओं में रहा काम मैं हि हूँ।) (Gita-7/11)
(O Best among Bharats! I am also the deeds in creatures that are not antagonistic to the righteousness.) (Gita-7/11).
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि। 7/12
(और जो भी सत्त्व, रजस और तमससे उत्पन्न होनेवाले भाव है, उन सबको तू मुझसे ही (होनेवाले हैं) ऐसा जान, परंतु (वास्तवमें) मैं उनमें नहीं हुँ और न वो मुझमें है।)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्।। 7/13. (इन तिन प्रकारके गुणोंके भावोंसे सारा संसार मोहित हो रहा है, (इसलिये) इन तीनों गुणोंसे परे मुझ अविनाशीको (कोइ) नहीं जानता।)
दैवी ह्यैषा गुणमयि मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। 7/14
(क्योंकि यह मेरी त्रिगुणमयी अलौकिक माया (तैरनी) बडी दुस्तर है; (परंतु) जो (पुरुष) मुझको ही भजते है, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते है।)
न मां दुष्कृतिनो मूढ़ा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापह्रतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:।। (Gita-7/15)
(दुष्कर्म करनेवाले, मूढ़लोग, आसुरी भाववाले (और) नीच मनुष्यों का ज्ञान माया द्वारा हरा जा चूकने के कारण मेरा आश्रय नहीं कर सकते है।)(Gita-7/15).
(The miscreants, grossly foolish, people with demonic nature (and) the vile men, cannot take refuge unto me, because their knowledge happens to be taken away by the illusion)(Gita-7/15).
चतुविॅधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोअर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुर्थार्थी ज्ञानी च भरतषॅभ।। (Gita-7/16).
(हे सुकृतिन अर्जुन! चार प्रकारके साधक मुझको भजते है।हे भरतषॅभ (वे) अर्थार्थी, व्यथित, जिज्ञासु और ज्ञानी है) (Gita-7/16).
(O Good Arjuna! Four types of seekers are worshipping me. (They are) money minded, afflicted, inquisitive and sapient.). (Gita-7/16).
ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। 7/18
बहुनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ ।। (Gita-7/19).
(हे प्रिय मित्र! बहुत जन्मोंके अंत में ज्ञानवान स्वीकार करता है कि “यह सब कुछ परमात्मा ही है”; वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।)(Gita-7/19).
(O dear friend! At the end of many births, the erudite assents that “Everything here is nothing but Parmatma”; the said Mahatma is the rarest.) (Gita-7/19).
कामैस्तेस्तेर्ह्रतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृतिया नियता: स्वया।। (Gita-7/20)
(उनके जन्मजात (अभ्यस्त जड़ता या संस्कार) के अधिन (पैदा हुई) उन उन कामनाके कारण जिसका ज्ञान हरा जा चुका है, वे उस उस नियम का आश्रय लेकर अन्य देवताओं होनेका स्वीकारते है।)(Gita-7/20)
(They, whose wisdom, has been detracted by that each desire, (born) controlled by their inherent (Habitual Inertia or Sanskaar), taking recourse to that each rule, assent the existence of other deities.) (Gita-7/20).
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्ध्याचिॅतुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।। 7/21
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। 7/24
(बुद्धिहीन पुरुषों मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भावको न जानते हुए मुझ अव्यक्त परमात्माको (सामान्य) व्यक्ति मान लेते है।)
(The idiot men, not knowing my supreme, imperishable, divine and imperceptible excellence; takes me as a (common) person) (Gita-7/24).
नाहं प्रकाश: सवॅस्य योगमायासमावृत:।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्। 7/25
(अपनी योगमीयासे छीपा हुआ मैं सबको (परमात्मा रुप) नहीं दिखता हुँ, इसलिये यह मूढलोगों मुझे अजन्मा अविनाशी न (जानकर जन्मने-मरनेवाला) समजते है।) 7/25
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।। (Gita-7/27)
(हे भरतवंशी अर्जुन! राग-द्वेष (आदि द्वैत भावों) के प्रयोग में से उत्पन्न हुई द्वन्द्वरुप मूर्खता के कारण, सब मनुष्यों, इस संसारमें अविद्या को प्राप्त हो जाते है।)(Gita-7/27)
[O descendant of Bharat Dynasty! All the people in this world are made to avail to Ignorance, owing to the foolishness of duality, produced from the usage of attachment and hatred (etc dual aspects)] (Gita-7/27).
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।l
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां द्रढव्रता:।। (Gita-7/28)
[जिन लोगोंका पाप-पुण्यरुप कर्मों (मानने के द्वन्द्वों) का अंत हो ही गया है; वे द्वन्द्वरुप अज्ञानता से मुक्त हुए दृढ़व्रत लोगों सहज ही मुझको भज रहे है।] (Gita-7/28)
[The people whose (duality of believing) sinful-pious actions has indeed come to an end, those resolute people that are freed from the foolishness of duality, are inherently worshipping me]. (Gita-7/28).
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।। 7/29
(जो मेरे शरण होकर ज़रा और मरणसे छूटनेके लिये यत्न करते है, वे (पुरुष) ब्रह्मको, संपूर्ण अध्यात्मको तथा संपूर्ण कर्मको जानते है।)
किं तद्ब्रहम किमध्यात्मं किं कमॅ पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।। 8/1
अधियज्ञ: कथं कोअत्र देहेस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोअसि नियतात्मभि:।।,8/2
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोअध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसगॅ: कमॅसंज्ञित:।। 8/3
(जो परम अक्षर है वह ब्रह्म है, अपना स्वभाव अध्यात्म कहाजाता है।भूतोंके भावको उत्पन्न करनेवाली चेष्टाओं कर्मनामसे कही गई है। )
भूतभावोद्भवकरो विसगॅ: कमॅसंज्ञित:।। (Gita-8/3)
[(कार्यमें उर्जाके) जिस त्यागसे मनुष्य में (द्वैत)
भावका उद्भव हो जाता है, (केवल उस कार्य) को कर्म नामसे कहा गया है।](Gita-8/3).
[The discharge (of energy in a deed) that creates (dualistic) attribute in a man, (that deed only) is said to have been named as an action].(Gita-8/3).
स्वभावोअध्यात्ममुच्यते। (Gita8/3) (स्वभाव को ही अध्यात्म कहा गया है।) (Gita8/3). (The own state of Being is called to be the spirituality.) (Gita8/3).
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चधिदैवतम्।
अधियज्ञोअहमेवात्र देहे देहभृतां वर।। 8/4
(उत्पत्ति-विनाश धर्मवाले सब पदार्थ अधिभूत है, हिरण्यमयपुरुष अधिदैव है और हे अर्जुन इस शरीरमें मैं ही अधियज्ञ हूँ।)
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:।। 8/5
(And whoever, at the end of his life span, when leaving body; remembers me alone, he attains my own being; of this there is no doubt).
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यज्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।। 8/6
(Whatever state of being he remembers, at the time of abandoning body; that state he attains, being ever assumed to be in that being).
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।। 8/7
(इसलिये सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। (इसप्रकार) मुझमें अर्पण किये मन-बुद्धिसे युक्त तु नि:संदेह मुझको ही प्राप्त होगा). “Therefore you must always engage yourself in remembering me and perform your duty of fighting (as per your Swadhrama). Thus by dedicating your mind and intellect to me, you shall doubtlessly attain me” (Gita-8/7.)
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयेन।। 8/8
(हे पार्थ (यह नियम है कि) ध्यानके अभ्यासरुप योगसे युक्त दूसरी और न जानेवाले चित्तसे निरंतन चिंतन करता हुआ(मनुष्य) परम दिव्य पुरुषको अर्थात परमेश्वरको ही प्राप्तहोता है।)
आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावतिॅनोअर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।। (Gita-8/16)
(हे अर्जुन! ब्रह्मलोक पर्यन्त सब लोक (का मिल जाना भी) पुनर्जन्म ही देता है, हे कौन्तेय! मुझको जान लेने से ही पुनर्जन्म नहीं होता है।) (Gita-8/16)
((Attainment of even) all the Lokas, coming to an end with the Brahma Loka, are ensuring rebirth only, only having comprehended me, O Kaunteya! doesn’t entail the rebirth)
(Gita-8/16).
अव्यक्ताद्वयक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलियन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।। 8/18
(दिवस थायछे त्यारे बधां अव्यक्तमांथी व्यक्त थइ जायछे अनेरात्रि आवेछे त्यारे ते अव्यक्त रुपमांज लय पामेछे)
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे।। (Gita-8/19)
(हे पार्थ! वही यह भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर अवश ही रात्रि होने पर लीन होता है, दिन होनेपर उत्पन्न होता है।) (Gita-8/19)
(O Partha! This multitude of beings, coming into being repeatedly, is helplessly dissolved at the coming of the night, it streams forth at the coming of the day.) (Gita-8/19)
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।8/20
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। 9/1.
(तुज दोष-दृष्टिरहित भक्तके लिये इस परम गोपनीय ज्ञानविज्ञान सहित भली भाँति कहूँगा कि जिसको जानकर तुदुखरुप संसारसे मुक्त हो जायगा।)
अश्रद्धाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9/3
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मतस्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:।। 9/4
(यह संपूर्ण सरुप जगत मुझ अव्यक्त (परमात्मा) से व्याप्त है। मैं सब प्राणिओंमें स्थित हुँ फीरभी वे मुझमें स्थित नहीं है। )9/4
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:।। 9/5
(मेरे योगके ऐश्वर्यको तू देख! भूतोंका धारण-पोषण करनेवाला और भूतोंका उत्पन्न करनेवाला (होनेपर भी) मेरा आत्मा भूतोंमें नहीं है और सब प्राणिओं भी मुझमें नहीं है।)
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।। 9/7
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेवॅशात्।। 9/8
(अपनी प्रकृतिका समर्थन लेकर, (अपने) संस्कारसे वशिभूत हुए यह संपूर्ण भूतसमुदायको मैं बार बार रचता हुँ।)
न च मां तानि कर्माणि निबन्धन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।। 9/9
मयाध्यक्षेण प्रकृति सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवतॅते।। (Gita-9/10)
(हे अर्जुन! मेरे अध्यक्षस्थान में प्रकृति सचराचर सवॅ जगत को रचती है, (और कर्मफल प्रदान करने के) हेतु से ही इस जगत का आवागमनना होता रहता है।)(Gita-9/10)
(O Arjuna! The Nature, under my chairmanship creates the whole movable and immovable universe, and for the purpose of (delivering the Karmafal), this universe is revolving).(Gita-9/10).
अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। 9/11.
(संपूर्ण भूतोंके महान ईश्वरकी मेरी परम सत्ताको न जाननेवाले मूढलोग; मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझको तुच्छ समजते है।)
(Not knowing my divine excellence as Maheshwar, as the governing head of all the creatures; the idiots deride me, seeing me assuming a human body). (Gita-9/11).

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।
वेद्यं पवित्रमोंकार रृकसाम यजुरेव च।।9/17
(इस संपूर्ण जगतका धारण करनेवाला, पिता, माता, पितामह, जाननेयोग्य पवित्र ॐकार ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ ।)
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। 9/13
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।। 9/19
(मैं ही (सूर्यरुपसे) तपाता हूँ, वर्षाको आकर्षता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत-असत भी मैं ही हूँ ।)
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। 9/22
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपह्रतमश्नामि प्रयतात्मन:।। 9/26
(जो (कोई भक्त) मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जलादि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह मैं खाता हूँ ।)
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9/27
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।। 9/28
(इस प्रकार जिसमें समस्त कर्म मुजको अर्पण होते है, ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला तु शुभाशुभ फलरुप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायेगा (और उनसे) मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा) 9/28
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।। (Gita-9/29)
(मैं सब प्राणियों और पदार्थों के प्रति समान हूँ, मेरा न (किसी से) द्वैष है न (कोई) प्रिय, और यही नहीं उन (सब) में मैं हूँ; परंतु जो लोग भक्तिसे मेरा लक्ष्य रखते है, वे मुझमें है।) (Gita-9/29)।
(I am equal to all creatures and substances, neither my hatred is (to anyone) nor (anyone) is dear, moreover I am in (all of) them; but those who pursue Me with reverence, they are in Me.) (Gita-9/29).
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:।। 9/30
(यदि (कोई) अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मुझकोभजता है, तो वह साधु ही माननेयोग्य है, क्योंकि वह यथार्थनिश्चयवाला है।)
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति।। 9/31
(वह शिघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है (और) सदा रहनेवालीपरमशान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन तु निश्चयपूर्वक सत्यजान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।) 9/31
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ये ऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।। 9/32
(क्योंकि हे अर्जुन स्त्रि, वैश्य, शुद्र तथा पापयोनिवाले (चाडालादि) जो कोइ भी हों, वे भी मेरी शरण होकर परम गतिको हि प्राप्त होते है।)
न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:।।10/2
(मेरी उत्पत्तिको न देवतालोग (जानते है और) न महर्षिजनजानते है; क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका औरमहर्षियोंका भी आदि कारण हूँ ।)
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम:।
सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।। 10/4
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश:।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव प्रृथग्विधा:।। 10/5
(बुद्धि, ज्ञान, असंमूढता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियोंका वशमें करना, मनका निग्रह तथा सुख-दु:ख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभयतथा अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति-अपकीर्ति ऐसेये प्राणियोंके नानाप्रकारके भाव मुझसे ही होते है।)
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भाव समन्विता:।। 10/8
(मैं ही संम्पूर्ण जगतकी उत्पत्तिका कारण हूँ और मुझसेही सब जगत चेष्टा करता है इसप्रकार समझकर श्रद्धा और भक्तिसे युक्त बुद्धिमान भक्तजन मेरेको हि निरन्तर भजते है।)
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च 10/9
तेषां सतत युक्तानां भजतां प्रितिपूवॅकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते । 10/10
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।। 10/11
(उनके (उपर) अनुग्रह करनेके लिये उनके अंत:करणमें स्थितहुआ मैं स्वयं ही (उनके) अज्ञानजनित अंधकारको प्रकाशमयतत्त्वज्ञानरुप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ )
“To show my special love to my devotees, I dwelling in their hearts, destroy their darkness born of ignorance with the luminous lamp of Knowledge.” (Gita-10/11).
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया। 10/17
(हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरन्तर चिंतन करता हुआ आपको (ज्ञानमार्ग द्वारा) जानूँ और हे भगवन! (आप) किन किन भावोंमें (भक्तिमार्ग द्वारा) मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य है?)
नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।। 10/19.
(मेरे विस्तारका अंत नहींहै।)
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एवं च।। (Gita-10/20)
(हे गुडाकेश! मैं प्राणिओं के शरीरों में रहा आत्मा हूँ। और तमाम प्राणिओं का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूं।) (Gita-10/20)
(O Gudaakesh! I am the soul that pervades in the bodies of all creatures. I am the beginning, middle and the end of all creatures.) (Gita-10/20)
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।। 10/22
(इन्द्रियोंमें मैं मन हूँ और प्राणियोंकी चेतना हूँ ।)
गिरामस्म्येकमक्षरम् । 10/25 (शब्दोंमें एक अक्षर अर्थातॐ हूँ )

यम: संयमतांमहम्। 10/29। (शासन करनेवालोंमें यमराजमैं हूँ )
पवन: पवतामस्मि। 10/31 (पवित्र करनेवालोंमें मैं वायु हूँ )
मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्। 10/34.
(मैं सबका नाश करनेवाला मृत्यु और उत्पन्न होनेवालोंकाकारण हूँ )
ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।। 10/38 (ज्ञानवालोंका तत्त्वज्ञान मैं हीहूँ )
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।10/39.
(और हे अर्जुन जो सब भूतोंकी उत्पत्तिका कारण है, वह भी मैं(ही हूँ, क्योंकि ऐसा) वह चर और अचर (कोई भी) भूत नहींहै, जो मुझसे रहित हो।)
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टाभ्याहमिदं कृत्स्नं एकांशेन स्थितो जगत्।। (Gita-10/42)
(अथवा हे अर्जुन यह सब जान कर तुझे क्या है? (इतना ही जान ले कि) मैं इस संपूर्ण जगतको मेरे एक अंशमात्रसे अधीन करके खड़ा हूँ )(Gita-10/42)
Otherwise o Arjun! Why you need to know all this? (Just try to assimilate that) I am here after restraining this entire universe with the little fraction of Me.)(Gita-10/42)
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम्। 11/1
यत् त्वया उक्तं वच: तेन मोह: अयम् विगत: मम्। (आपने जोवचन कहा उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है)
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमननेनैव स्वचक्षुसा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे ययोगमैश्वरम्।। (Gita-11/8)
(परंतु मुझको इन अपने नेत्रोंसे ही नहीं देख सकेगा, इसलिये तुझे दिव्य दृष्टि प्रदान करता हुँ; तू मेरा ऐश्वर्ययुक्त योग को देख।)(Gita-11/8)
(But verily thou art not able to behold Me with these thine eyes; the divine sight I give unto thee. You behold My sovereign Yoga.) (Gita-11/8).
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।। 11/4
(हे प्रभो! यदि मेरे द्वारा आपका वह रुप देखा जाना शक्य है, ऐसा आप मानते है, तो हे योगेश्वर आप अपने उस अविनाशी स्वरुपका दर्शन करवाइये।।)
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमननेनैव स्वचक्षुसा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्।।(Gita-11/8).
(लेकिन मुझको (तू) केवल अपने इन नेत्रों से ही नहीं देख सकेगा। (इसलिये) मैं तुझे दिव्य दृष्टि देता हूँ, (उससे तू) मेरा योग ऐश्वर्य को देख।)(Gita-11/8)।
(But (you) will not be able to see Me only with your these eyes. (Therefore) I give you divine seeing, (you) behold My mystic opulence (with it.) (Gita-11/8).
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरि:।
दर्शयामास पार्थाय परमं रुपमैश्वरम्।। 11/9
(हे राजन! महायोगेश्वर हरिने इस प्रकार कहकर उसके पश्चात अर्जुनको परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्यस्वरुप दिखलाया।)
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा:।
दृष्टवाद्भुतं रुपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितंमहात्मन्।। 11/20
यथा प्रदिप्तं ज्वलनं पतंगा: विशन्ति नाशाय समृद्धवेगा:।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका: तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगा: ।। 11/29
रृतेअपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे। येऽविस्थिता: प्रत्यनीकेषुयोधा:।। 11/32
(जो प्रतिपक्षयोंकी सेनामें योद्धायें है, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे।)
मयैवैते निहता: पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्। 11/33
(ये सब पहलेहीसे मेरे ही द्वारा मारे हुए है। हे सव्यसाचिन तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा)
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा। (मारा द्वारा हणायेलाने तुंहण गभरा नहि) 11/34
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्। (जे सत असत तेनाथी परअक्षर(ब्रह्म) छे ते आपज छो) 11/37
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् । (हे अमाप हुं आपनाथी क्षमाकराउ छुं) 11/42
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूवॅम्। ( जे मारुं (रुप ) तारा सिवायबीजाए पहेला जोयुं नथी) 11/47
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरंव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:।। 12/1
मैय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्त्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:।। 12/2
(मुझमें मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यानमें लगे हुए जो अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त होकर मुझ सगुणरुप परमेश्वर को भजते है, उसको मैं योगियोंमें अति उत्तम योगी मानता हुँ ।)
क्लेशोऽघिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते।। 12/5
(उन निराकारमें चित्तवाले पुरुषों को परिश्रम विशेष है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्त विषयक गतिदु:खपूर्वक प्राप्त की जाती है।)
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।12/6
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।। 12/7
(मेरेको ही अनन्य ध्यानयोगसे जो उपासते है, उसका मैं मृत्युरुप संसारसागरसे उद्धार करने वाला होता हुँ)
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्र्वं न संशय:।। 12/8
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:।।12/14
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:।।12/15
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारंभपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:। (गीता-12/16.)
(जो पुरुष आकांक्षासे रहित, बहार-भीतरसे शुद्ध, चतुर, पक्षपातसे रहित (साक्षी), सब दु:खोंसे मूक्त, और सब आरंभोंका त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझको प्रिय है।)
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद:। 13/1
(हे अर्जुन यह शरीर ‘क्षेत्र’ इस नाम से कहा जाता है, इसकोजो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नामसे उनके तत्वकोजाननेवाले ज्ञानीजन कहते है।)
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सवॅक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।। 13/2
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचरा:।। 13/5
(पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (मूल प्रकृति), दश इन्द्रियाँ और एक मन, और पाँच इन्द्रियोंके विषयों (मिलकर 24 तत्त्वोंकी सृष्टि बनती है।)
इच्छा द्वेष: सुखं दुखं संघात श्चेतना धृति:।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम।।13/6
अमानित्वम् अदम्भित्वम् अहिंसा क्षान्ति: आजॅवम् ।
आचार्योपासनम् शौचम् स्थैयॅम् आत्मविनिग्रह:।। 13/7
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् अनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदशॅनम्।। 13/8 (जो कुछभी दु:ख आते है वो मेरे दोषके कारण ही आते है इसकावारंवार विचार करना, यह ज्ञानका लक्षण है।)।
असक्ति: अनभिष्वंग: पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वम् इष्टानिष्टोपपतिषु।। 13/9
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणि ।
विविक्तदेशसेवित्वम् अरतिजॅनसंसदि । । 13/10
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम् तत्त्वज्ञानाथॅदशॅनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तं अज्ञानं यदतोअन्यथा।। (Gita-13/11)
[(यहाँ जो सद्गुणों कहे गये उसको आत्मसात करना) यही ज्ञान है, जो इससे अन्य है उसे अज्ञान कहा जाता है।] (Gita-13/11)
[(The assimilation of virtues stated here) that only is Knowledge, what is other than that is called Ignorance.) (Gita-13/11).
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते । । 13/12
(जे जाणवा योग्यछे अने जेने जाणीने अमृतत्वने प्राप्तथवायछे तेने हुं सारीरीते कहीश ते अनादि ब्रह्मने सत के असतकहेवातुं नथी). 13/12
सर्वत:पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वत:श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।. 13/13
(वह सब और हाथ-पैरवाला सब और नेत्र सिर और मुखवालासब और कानवाला है। (क्योंकि) संसारमें सबको व्याप्तकरके स्थित है।)
बहिरन्तश्च भूतानाम्।।(Gita-13/15)
(सब लोगों के बाहर और भीतर (परमात्मा) व्याप्त है।)(Gita-13/15)
(Without and within all beings He pervades)(Gita-13/15).
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ।। 13/15
(परमात्मा सब प्राणीओंके तथा सब चर-अचर पदार्थोंमें अंदर बाहर और चारों और याप्त है; लेकिन सूक्ष्म होनेके कारण यह अनुभवमें नहीं आनेवाला है.)
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तु च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च । । (Gita-13/16)
[हालाँकि (परमात्मा) प्राणिओं और पदार्थों के (ब्रह्मा के रुपमें) उत्पन्न करनेवाले, (विष्णु के रुपमें) धारण-पोषण करनेवाले और (रुद्रके रुपमें) संहार करनेवाले; इस तरह मुख़्तलिफ़ दिखते है, फिरभी (परमात्मा) सब प्राणिओं और पदार्थों में एकरुप ही जानने योग्य है।](Gita-13/16)
[Although (Parmatma) sounds to be manifold as creator (in the form of Brahma), as sustainer (in the form of Vishnu) and as destroyer (in the form of Shiva) of creatures and substances; yet (Parmatma) is to be known as homogeneous in all creatures and substances.]. (Gita-13/16).
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत:।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।13/18
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि ।
विकारां श्च गुणां श्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।। 13/19
(प्रकृति अने पुरुष आ बनेने तुं अनादि जाण अने (रागद्वैषादि) विकारो तथा (त्रि) गुणों ने तुं प्रकृतिथी उपजेला जाण)
कायॅकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते । । 13/20
(कायॅ, करण और कर्तृत्व प्रकृतिथी उत्पन्न थायछे सुखदु:खनुंभोक्तापणुं जीवात्माथी उत्पन्न थायछे).
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान्
कारणं गुणसंगोअस्य सदसद्योनिजन्मसु । । 13/21
(प्रकृतिमें स्थित ही जीवात्मा प्रकृतिसे उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थोंको भोगता है, और इन गुणोंका संग ही इस जीवात्माके अच्छी-बुरी योनिमें जन्म लेनेका कारण है।)
(One who continues to be a subject to nature, indulges in enjoying the three modes (happiness, pain and infatuation) of nature. And this association (with modes of nature) becomes reason for him to take birth after birth in good or evil species.)
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर:।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेसअस्मिन्पुरुष: पर:।। 13/22
“इस देहमें स्थित जीव, प्रकृति से पर (हो जाने से शुरु में) प्रतिबिंबरुप, (बादमें क्रमश:) अनुमति देनेवाला, भोक्ता, पोषण करनेवाला, महेश्वर और परमात्मा (बन जाता है ऐसा) कहा गया है”।
“The (Jiva) in this body that has became independent of Nature, is said to become (initially) reflection, (then becomes) consenter, enjoyer, replenisher, Maheshwar (and then) Parmatma”.
य एवं वेति पुरुषं प्रकृतिं च गुणै: सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।। 13/23
(इस प्रकार पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको जो मनुष्यतत्त्वसे जानता है, वह सब प्रकारसे कर्तव्य कर्म करता हुआभी फिर नहिं जन्मता।।)
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।। 13/24
(कितने ही (मनुष्य) तो अपनेको (शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे) ध्यानके द्वारा अपनेमें देखते है।)
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:।। 13/25.
(परंतु (मंद बुद्धिवाले) अन्य पुरुष इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे सुनकर (तद अनुसार) उपासना करते है और वे श्रवणपरायण पुरुषों भी मृत्युरुप संसारसागरको नि:संन्देह तरजाते है।।)
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम्।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।। (Gita-13/26)
(हे अर्जुन जो भी, जीतने भी स्थावरजंगम प्राणी अथवा पदार्थ उत्पन्न होते है, उन सबको (तू) क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे (उत्पन्न) जान।)
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति।। (Gita-13/27)
(नष्ट हो रहे सब प्राणियों और पदार्थों में अविनाशी रहे परमात्मा को जो समभावसे देखता है, वही (यथार्थ) देखता है।) (Gita-13/27)
[One who sees with equanimity, in creatures and substances that are coming to naught, the abiding imperishable Parmatma, that sees (intrinsically)] (Gita-13/27).
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।। 13/28
( क्योंकि सबमें समभावसे रहे हुए ईश्वरको समान देखता हुआ जो पुरुष अपने द्वारा अपनेको नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गतिको प्राप्त होता है।)
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।। (Gita-13/29).
(और जो पुरुष सब कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिसे ही कियेहुए देखता है और अपनेको अकर्ता देखता है, वही यथार्थदेखता है)(Gita-13/29).
“The person who visualises that all actions are executed by the Nature, and realises himself as non doer, is the real visionary.” (Gita-13/29.)
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।। (Gita-13/29.)
[जब (मनुष्य) पृथक महाभूतों हि (शरीरों, पदार्थों, आदि रुपों में) एकत्र होकर स्थित है; और उन (पृथक महाभूतों) से हि (इस सृष्टिका) विस्तार है; ऐसा विवेकसे समझ लेता है; उसी क्षण (वह) ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।] (Gita-13/29.)
(When a man perceives with discernment that the diversified basic elements are rooted in one (body or substance), and (also perceives this creation as) proceeding from them, then at that very moment he becomes one with the Brahmn.) (Gita-13/29.)
पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रान् यथाथॅतः ।
तत्क्षणाद्बन्धनिमुॅक्तः स्वरुपस्थो भविष्यसि । (अष्टावक्र संहिता-9/7)
(जब तुम यथार्थरुप से यह समझ पाओगे कि; तमाम प्राणिओं और पदार्थों और कुछ भी नहीं बल्कि मूलभूत तत्त्वों का रुपांतरन हि है; उसी क्षण तुम बंधन से मूक्त होकर अपने नीज स्वरुप में स्थित हो जाओगे।)(अष्टावक्र संहिता-9/7)
(If you would just realize that all the creatures and substances are nothing but the transformations of the basic elements only, then at that very moment you would be freed from all the bonds and would get established in your own Being. )(Ashtaavakra Sanhita-9/7)
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्यय:।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।। (Gita-13/31)
(हे अर्जुन! अनादि होनेसे और निर्गुण होनेसे यह अविनाशी परमात्मा शरीरमें स्थित होनेपर भी न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है।). (Gita-13/31)
(Being beginningless and being without attributes, the imperishable Parmatma, though seated in the body, O Kaunteya, He neither works nor gets smeared). (Gita-13/31)
यथा सवॅगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सवॅत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते।। 13/32
(जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होनेके कारण लिप्तनहीं होता, वैसे ही देहमें सर्वत्र स्थित आत्मा (निर्गुण होनेकेकारण देहके गुणोंसे) लिप्त नहीं होता)
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानच़क्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।। 13/34
(इसप्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके भेदको तथा विकार सहित प्रकृतिसे मूक्ति पानेके उपायको जो ज्ञानरुप नेत्रोंसे जानते है, वे परब्रह्मको प्राप्त होते है।)
परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता:।। 14/1
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता:।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।। 14/2
मम योनिमॅहद्ब्रह्म तस्मिन्गभॅं दधाम्यहम् ।
संभव: सवॅभूतानां ततो भवति भारत।। 14/3
(आ समग्र ब्रह्मांडरुप हुं प्रकृतिनुं जन्म स्थान छुं जेमां हुं गभॅमूकूछुं जेमांथी सवॅ भूतोनी उत्पत्ति शक्य थायछे ) 14/3
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता।। 14/4
(हे अर्जुन! सब योनियोंमें जो प्राणी पेदा होते है, उन सबकी योनितो प्रकृति और पुरुष हि है; और मैं बीजको स्थापन करनेवाला पिता हुँ ।)
सत्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसंभवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम।। 14/5
(हे अर्जुन सत्व रज और तम यह प्रकृतिसे उत्तपन्न (तीनों) गुणों जीवको शाश्वत काल तक शरीरसे बाँधते है।). 14/5
सत्वं सुखे संजयति रजः कमॅणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत।। 14/9
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोअज्ञानमेव च।। 14/17
नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।। (Gita-14/19)
(जिस समय द्रष्टा (प्रकृति के) गुणोंके अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है, और (अपनेको उस) गुणोंसे अत्यंत परे हुआ महेसूस करता है, (उसी समय) वह मेरे स्वरुपको प्राप्त हो जाता है।)(Gita-14/19)
(When the Witness, realises that there is no doer other than the Gunas (of the Nature), and perceives (Himself) as having transcended (the said) Gunas, he at once attains the Being of Mine.) (Gita-14/19).
गुणानेतानतित्य त्रिन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।। 14/20.
(तथा जो पुरुष यह स्थूल शरीरकी उत्पत्तिके कारणरूप इनतीनों गुणोंका अतिक्रमण करता है (वह) जन्म, मृत्यु , वृद्धावस्था, और सब प्रकारके दु:खोंसे मुक्त हुआ परमानंद(अमृत) को प्राप्त होता है।)
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पांडव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति।। 14/22
(हे अर्जुन सत्वगुण के कार्यरुप प्रकाश को और रजोगुण के कार्यरुप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरुप मोह को भी न तो प्रवृत्त होनेपर द्वेष करता है और न निवृत्त होनेपर उनकी आकांक्षा करता है। वह गुणातीत है)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते।। 14/23
(गुणों ही (कर्ता के रुप में) बरत रहे है, ऐसा (आत्मसात होने से) जो गुणों से विचलित नहीं होता है; और जो साक्षीके सदृश स्थिर बैठा है, और डोलायमान नहीं होता (वह गुणातीत कहा जाता है।)
सर्वारंभपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते। -14/25
“When one shuns all the initiations, he transcends all the three modes of Nature”.
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।14/26
(और जो पुरुष एकनिष्ठ भक्तियोगके द्वारा मुझको निरंतर अनुसरता है, वह इन तीनों गुणोंको भलीभाँति लाँघकर ब्रह्म होनेको योग्य बनता है।)
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।। 14/27.
(क्योंकि हे अर्जुन उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्य-धर्मका और अखंड एकरस आनंदका आश्रय मैं हुँ।)
ऊध्वॅमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दासि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।। 15/1
((संचित कर्मरूप) उपर मूलवाला, (तदानुसार प्रवृत्तिरूप) नीचे शाखायेंवाला और (संस्काररुप) पर्णों जिसको आच्छादित करते है, उस पीपलके वृक्ष (जन्म-मरण चक्र) को अविनाशी कहते है। जो इसको जानता है वह वेदके ज्ञानको जाननेवाला है।) 15/1
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला:।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबंधीनि मनुष्य लोके।। 15/2
(त्रिगुणात्मक (पदार्थोंको भोगने)से विकसित इसकी विषयोंरुप कोंपलों और शाखायें उपर-नीचे फैली हुई है और कर्मानुसार बंधनवाली (आगामी कर्मरूप) जड़े नीचे मनुष्य लोकमें भी व्याप्त हो रही है।)
निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा:।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्।। 15/5.
(जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्तिरुपदोषको जीत लिया है, जिनकी परमात्माके स्वरुपमें नित्यस्थिति है (और) जिनकी कामनाएँ पूर्णरुपसे नष्ट हो गयी है (वे) सुखदु:खनामक द्वन्द्वोसे विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपदको प्राप्त होते है (जहाँ गये हुए लोग वापस नहीं लोटते)।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन: षष्ठनीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। 15/7.
(देहमें रहा (और) प्रकृतिके आधिन हुआ, मेराही सनातन अंशजीवात्माको मन और पाँचों इन्द्रियों (विषयोंमें) खिंचती है।)
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुगॅन्धानिवाशयात्। 15/8
(जे प्रमाणे वायु गंधने (तेना) स्थानथी (लइजायछे) (तेरीते) सूक्ष्मशरीर पण जे शरीर छोडीदेछे (तेमांथी) आ (मन अनेपाँच इन्द्रियो) ने ग्रहण करीने पछी जे शरीरने प्राप्त थायछे(तेमां) जायछे ) 15/8
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।। 15/9
(और (दूसरे शरीरमें जाकर) यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु, त्वचा, रसना और घ्राण और मनका आश्रय करके ही विषयोंकासेवन करता है।)
“This individual, through the mind, perceives the subject with the help of ear, eye, skin, tongue and nose” (Gita-15/9).
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुंजानं वा गुणान्वितम्।
विमुढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानच़क्षुष:।। 15/10
(शरीरको छोड़कर जाते हुएको अथवा शरीरमें स्थित हुएको अथवा विषयोंको भोगते हुएको (इस प्रकार तीनों) गुणोंसे युक्त हुएको भी अज्ञान (निद्रा वाले) लोग नहीं जानते, (केवल) (जिसकी अज्ञान निद्रा दूर हुई है ऐसे) ज्ञानरुप नेत्रोंवाले तत्त्वसे जानते है।)
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस:।। (Gita-15/11)
(यत्न करनेवाले (विवेकज्ञानी) योगीयों भी, भीतर “अपने होने” में स्थित होकर ही इस (आत्मा) का एहसास कर सकते है।लेकिन (बहार की दुनिया में) यत्न करनेवाले बिन आत्मसाक्षात्कार किये अविवेकी लोग, इस (आत्मा) का एहसास नहीं कर सकते)। (Gita-15/11)
(Even persevering (erudite) Yogis can realize that (Atmaa) only by being established innerly in one’s “Own Being”. But (others) persevering (in the outer world), the imprudent who have not self-realized cannot realize that (Atmaa). (Gita-15/11).
सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।15/15
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाह्रत:।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर:।। 15/17
( उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करकेसबका धारण पोषण करता है (वह) अविनाशी ईश्वर कोपरमात्मा इस प्रकार कहा गया है। 15/17)
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।15/20
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैुतुकम्।।
(ते (आसूरी माणसो) कहेछे जगत आश्रयरहित जूठूं इश्वरवगरनुं पोतानी मेले अकस्मातथी थयेलुंछे माटे केवल भोगसिवाय बीजो शुं हेतु होय? 16/8
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा:।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान्।।16/12
(आशाकी सैंकड़ों फाँसियोंसे बँधे हुए (आसुरि) मनुष्य काम-क्रोधके परायण होकर विषय भोगोंके लिये अन्याय पूर्वकधनादि पदार्थोंको संग्रह करनेकी चेष्टा करते है।)
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।। 16/13
(मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है (और अब) इस मनोरथको प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह (इतना) धन है (और) फिर यह (इतना धन) भी हो जायगा।)
प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ। 16/16
(विषयभोगोंमें अत्यन्त आसक्त (आसुरलोग) महान अपवित्रनरकमें गिरते है।)
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता:।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयका:।। 16/18.
(आसुरि लोग अहंकार, बल, घमंड, कामना (और) क्रोधादिके परायण और दूसरोंकी नींदा करनेवाले पुरुष अपनेऔर दूसरोंके शरीरमें स्थित मुझ अंतर्यामीसे द्वेष करनेवालेहोते है।)
तानहं द्विषत: क्रुरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।। 16/19.
(उन (आसुरि प्रकृतिवालों और) द्वेष करनेवाले पापाचारीऔर क्रुरकर्मी नराधमोंको मैं संसारमें बार-बार आसुरियोनीयोंमें ही डालता हूँ )
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। 16/21.
(काम, क्रोध तथा लोभ ये तीन प्रकारके नरकके द्वारअपनेका नाश करनेवाले है। अतएव तीनोंको त्याग देनाचाहिये)
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।। 16/23
(जो पुरुष शास्त्रविधिको त्यागकर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धिको प्राप्त होता है, न परम गतिको न सुखको हि)
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तु मिहार्हसि।।16/24.
(इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामेंशास्त्रही प्रमाण है। ऐसा जानकर तु शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करने येग्य है।)
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति मां श्रृणु।। 17/2
(मनुष्योंकी वह(शास्त्रीय संस्कारोंसे रहित केवल) स्वभावसे उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विकी, राजसी और तामसी ऐसे तीन प्रकारकी ही होती है। उसको तू मुझसे सून)
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स:। 17/3
(यह (सब) पुरुष श्रद्धामय है। सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अंत:करणके अनुरुप होती है। जैसी (जिनकी) श्रद्धा होती है, वह भी वैसा ही होता है।)
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वांगमयं तप उच्यते।। 17/15
(जो उद्वेगरहित, प्रिय, हितकारक, सत्य भाषण है, तथा जो स्वाध्यायका अभ्यास है, वही वाणीसबन्धि तप है।)
मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।। 17/16
(मनकी प्रसन्नता, शांतभाव, मौन, अत:करणकी पवित्रता, इसप्रकार यह मनसम्बन्धि तप कहा जाता है।)
यज्ञो दानं तप श्चैव पावनानि मनीषिणाम्।18/5
(क्योंकि यज्ञ, दान और तप ये तीनों ही बुद्धिमान पुरूषोंकोपवित्र करनेवाले है।)
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्याग: सात्विको मत:।।18/9
(हे अर्जुन! करना कर्तव्य है, इसी भावसे जो शास्त्रविहित कर्म, आसक्ति और फलका त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।)
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत:।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।। 18/11
(क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्यके द्वारा सम्पूर्णतासे कर्मोंका त्याग किया जाना शक्य नहीं है; इसलिये जो कर्मफलका त्यागी है, वही त्यागी है ऐसा कहा जाता है।)
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविघं कर्मण: फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।। 18/12.
(कर्मफलका त्याग न करनेवाले मनुष्योंके कर्मोंका अच्छा, बुरा और मिला हुआ ऐसे तीन प्रकारका फल मरनेके पश्चात(अवश्य) होता है, किंतु कर्मफलका त्याग कर देनेवालेमनुष्योंके (कर्मोंका फल) किसी हालमें भी नहीं होता।)
पंचैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।। 18/13.
(हे महाबाहो! सांख्यशास्त्रमें सबकर्मो संपन्न होकर सिद्धहोनेके लिये यह पाँच कारणों कहे गये है, जीसको मैं (तुझसे) कहूँगा।)
अधिष्ठानं तथा कताॅ करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।।18/14.
(इसमें आश्रय (अधिष्ठान) तथा कर्ता और भिन्न-भिन्न साधनएवं भिन्न-भिन्न अनेक चेष्टायें तथा पाँचवा दैव (नसीब) है।)
शरीरवांगमनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर:।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचैते तस्य हेतव:।।18/15.
(क्योंकि मनुष्य मन, वाणी और शरीरसे शास्त्रानुकुल अथवाविपरीत जो कुछ भी कर्म करता है, उसके ये पाँचो कारण है।)
तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य:।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति।। 18/16.
(परंतु ऐसा होनेपर भी जो मनुष्य केवल अशुद्धबुद्धि होनेकेकारण वहाँ (यानी कर्मोंके सिद्ध होनेमें) अपनेको कर्तासमझता है वह दुर्मति यथार्थ नहीं समझता।)
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि च इमॉंल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।। (Gita-18/17)
(जिस पुरुषको (कार्यों में कर्तापनके) अहंकार का भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि (उस कार्योंमें द्वन्द्वात्मकभाव बनाकर) लिपायमान नहीं होती है, वहपुरुष इन सब लोकोंको मारकर भी (वास्तवमें) न तो किसी को मारता है और न हीं (उस कार्यों के परिणाम से) बँधता है।)(Gita-18/17).
[One who doesn’t have the ego (of doership in the deeds) and whose intelligence is not entangled (in begetting dualistic liaison in the deeds), though he kills all the men in all the worlds, neither he kills nor he is bound (by the outcome of those deeds)] (Gita-18/17).
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:।।18/40.
(पृथिवीमें या स्वर्गमें या देवताओंमें तथा इनके सिवा औरकहीं भी (एसा कोई भी) प्राणी नहीं है, जो प्रकृतिसे उत्पन्नइन तीनों गुणोंसे रहित हो। )
ब्राह्मण़क्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:।। 18/41
(हे परंतप! ब्राह्मण़, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके (साधनारुप) कर्म (उस उसके) संस्कारसे उत्पन्न गुणोंके द्वारा विभक्त किये गये है।)
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। 18/47
(बहुत (संख्यामें लोकों द्वारा) आचरण किये हुए परधर्मसे (कम संख्यामें लोकों द्वारा आचरण किये हुएके कारण) गुणरहित (दिखता) स्वधर्म बढ़कर है, क्योंकि स्वधर्मरुप कर्म करता हुआ मनुष्य पापको नहीं प्राप्त होता।)
सहजं कर्म कौंन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।। 18/48.
(हे कौन्तेय दोषयुक्त होनेपर भी सहज कर्मको नहीं त्यागनाचाहिये ; क्योंकि धूएंसे अग्निके भाँति सभी कर्म (कीसी नकीसी) दोषसे युक्त है।)
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहं।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। 18/53
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।। 18/54.
(ब्रह्ममें एकी भावसे स्थित, प्रसन्न मनवाला, न (तो किसीकेलिये) शोक करता है, और न किसीकी आकांक्षा करता है, ऐसा समस्त प्राणियोंमें समभाववाला योगी मेरी परम भक्तिकोप्राप्त हो जाता है।) Gita 18/54
मच्चित्त सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारेन्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि।।18/58.
(मुझमें चित्तवाला होकर तु मेरी कृपासे समस्त संकटोंको पारकर जायगा और अगर अहंकारके कारण नहीं सुनेगा तो नष्टहो जायगा।)
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।। 18/59.
(अगर तु अहंकारका आश्रय लेकर यह मान रहा है कि “मैं युद्ध नहीं करूँगा” तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि प्रकृति तुझे ज़बरदस्ती युद्धमें लगा देगी।)
ईश्वरः सवॅभूतानां हृदेशेअर्जुन तिष्ठति ।
भ्राम्यन्सवॅभूतानि यंन्त्रारुढानि मायया।। 18/61
(हे अर्जुन शरीररुप यंन्त्रमें आरूढ़ हुए संम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे (उनके कर्मोंके अनुसार) भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियोंके ह्रदयमें स्थित है।)
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।। 18/62
(हे भारत! सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी हि शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे तू परम शान्तिको तथा शाश्वत परमधामको प्राप्त होगा।)
यथेच्छसि तथा कुरु । 18/63. (जैसे चाहता है वैसे ही कर।)
सर्वगुह्यतमं भूय: श्रृणु मे परमं वच:।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितं।।18/64
सवॅधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सवॅपापेभ्यो मोक्षयिष्यामिमाशुचः।। 18/66.
(इसलिये सम्पूर्ण आश्रयोंको त्यागकर एक मेरे ही शरणमें आ जा। तू शोक मत कर, क्योंकि मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा।
“Surrender to me alone shunning the desire for all the shelters, you need not fear, I shall protect you against all hostilities”.
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रषवे वाच्यं न च मां योअभ्यसूयति।। 18/67.
(तुझे यह गीता उपदेश किसी भी कालमें न (तो) तपरहित मनुष्यसे कहना चाहिये, न भ
(तुझे यह गीता उपदेश किसी भी कालमें न (तो) तपरहितमनुष्यसे कहना चाहिये, न भक्तिरहितसे और न नहीं सुननेकीइच्छावालोंसे ही (कहना चाहिये); तथा जो मुझमें दोषदृष्टिरखता है, उससे (तो कभी भी) नहीं कहना चाहिये।)
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।18/69
(उससे बढ़कर मेरा प्रियकार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भीनहीं है; तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोईभविष्यमें होगा भी नहीं।
कच्चिदज्ञानसम्मोह: प्रनष्टस्ते धनंजय। 18/72. (हे धनंजय! क्या तेरा अज्ञानजनीत मोह नष्ट हो गया?)
नष्टो मोहः स्मृतिलॅब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोअस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18/73.
(हे अच्युत आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया (और) मैनेंस्मृति प्राप्त करली है, मेरा संदेह नष्ट हुआ है, (अब) मैं स्थिरहुआ हूँ और आपकी आज्ञाका पालन करूँगा ।)
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम्।। 18/75
(श्री व्यासजीकी कृपासे (दिव्य दृष्टि पाकर) मैंने इस परम गोपनीय योगको (अर्जुनके प्रति) कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्री कृष्णसे प्रत्यक्ष सूना है।)
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुधॅरः ।
तत्र श्रीविॅजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिमॅतिमॅम।।18/78.
(हे राजन जहॉं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहॉंगाण्डीवधारी अर्जुन हैं, वहींपर श्री, विजय, विभूति (और) अचल नीति है ऐसा मेरा मत है।)
हरिः ॐ तत्सत्। हरिः ॐ तत्सत्। हरिः ॐ तत्सत् ।

Acharya Vrujlal

24 Comments

  • Ramon says:

    Even if karma is denied, God still cannot be the enforcer of consequences. Because the motives of an enforcer God would be either egoistic or altruistic. Now, God’s motives cannot be assumed to be altruistic because an altruistic God would not create a world so full of suffering. If his motives are assumed to be egoistic, then God must be thought to have desire, as agency or authority cannot be established in the absence of desire. However, assuming that God has desire would contradict God’s eternal freedom which necessitates no compulsion in actions. Moreover, desire, according to Samkhya, is an attribute of prak?ti and cannot be thought to grow in God. The testimony of the Vedas, according to Samkhya, also confirms this notion.

    • Acharya Vrujlal says:

      It is not God that delivers results or consequences of Karma, it is an inbuilt mechanism called Internal Controlling Mechanism of Creation that does all these things. God is completely inactive. God neither have desire as desire happens to be manifestation of imperfection whereas God is Whole in the every sense of word.

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