जनक उवाच
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिभॅविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रुहि मम प्रभो । 1/1
(जनक कहते है भगवन! आत्मज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है? मुक्ति कैसे होती है, और वैराग्य कैसे प्राप्त होता है? वह मुजे कहे ।
अष्टावक्र
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज
क्षमाजॅवदयातोषसत्यं पीयुषवद् भज । 1/2
(हे राजन! यदि तुम मुक्ति चाहता है तो विषयोंको विष समजके छेडदो और क्षमा, सरलता, दया, संतोष और सत्यका सेवन अमृतकी तरह करो । )
यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्रम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि। (अष्टावक्र संहिता-1/4)
(यदि देहको अलग करके “अपने होने” में तु विश्राम करेगा तो तुम शिध्रही अपने को सुखी, शांत और बंधनसे मुक्त पायेगा) (अष्टावक्र संहिता-1/4)
(If only you will remain resting in your “Own Being”, seeing yourself as distinct from the body, then even now you will find yourself happy, peaceful and free from bonds). ( Ashtavakra Sanhita-1/4)
न कताॅसि न भोक्तासि मुक्त एवासि सवॅदा । 1/6
(एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।) अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥1/7 ( अष्टावक्र संहिता-1/7)
(जो कुछ भी यहाँ है, तुम अकेले ही उनका दृष्टा हो।तुम्हारा बन्धन ही यह है कि तुम (अपने के अतिरिक्त) किसी अन्य को दृष्टा समजते हो।)
(अष्टावक्र संहिता-1/7)
(You are the solitary witness of all that exists, and you are always Liberated. Your only bondage is understanding the seer to be someone other (than you). (Ashtavakra Gita-1/7).
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसपॅवत् । 1/10
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि ।
किंवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिभॅवेत् ।1/11
(यह कहावत सत्य ही है की जैसी मती वैसी ही गती। वैसे ही जो मानता है की “मैं मूक्त हुँ” वह मूक्त ही है, और वह बंदी है जो अपनेको बंदी मानता है”)
निःसंगो निष्क्रियोअसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः ।
अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठसि । 1/15
जनक
अतो मम जगत्सवॅमथवा न च किंचन।। (अष्टावक्र संहिता-2/2)
(अतः यातो समग्र जगत मेरा है अथवा कुछ भी मेरा नहिं है।)(अष्टावक्र संहिता-2/2)
(Therefore either the whole universe is mine or nothing is mine.). (Ashtavakra Gita-2/2).
यथा न तोयतो भिन्नास्तरंगाः फेनबुदबुदाः ।
आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिगॅतम् । 2/4
जेम पाणी मांथी उत्पन्न तरंगों फीण अने परपोटा पाणीथी भिन्न नथी तेम आत्मामांथी निकणेल जगत आत्माथी भिन्न नथी ।
आत्माज्ञानाज्जगद्भासति आत्मज्ञानान्न भासते।2/7
(आत्माना (स्वरुपना) अज्ञाननेलइने ज जगत भासछे, आत्म ज्ञान थतां भासतुं नथी । )
अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयि भासते ।
रुप्यं शुक्तौ फणी रज्जो वारि सूयॅ करे यथा । 2/9
(जेम अज्ञानथी कल्पायेलुं रुपु छीपमां भासेछे, सपॅ दोरडामां भासेछे अने (मृग) जल सूयॅना किरणो मां भालेछे, तेम अरेरे अज्ञानथी कल्पायेलुं जगत माराथी जोवाय छे । )
मत्तो विनिगॅतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति ।
मृदि कुम्भो जले विचिः कनके कटकं यथा । 2/10
(जेम घडो माटीमां तरंग पाणीमां अने कडुं सोनामां लय पामेछे, तेम मारा (अहं) मांथी उद्भव पामेल विश्व मारामांज लय पामशे । )
ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम् ।
अज्ञानाद्भाति यत्रेदं सोअहमस्मि निरंजन । 2/15
(ज्ञान ज्ञेय अने ज्ञाता अे त्रिपुटी ज्यां वास्तविक रीते नथी, परंतु अे ज्यां अज्ञानने लइने भासेछे, ते हुं निरंजन छुं । )
अहो जनसमूहेअपि न द्वैतं पश्यतो मम् । 2/21
(अरे जन समूहमां पण मने द्वैत जोवातुं नथी ।
नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित् । २/२२
हुं देह नथी, देह मारो नथी, हुं जीव नथी, कारण हुं चैतन्य छुं । )
सवॅभूतेषु चात्मानं सवॅभूतानि चात्मनि । 3/5
स्वभावादेव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन ।
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधीः । 3/13
आकाशवदनन्तोअहं घटवत् प्राकृतं जगत् ।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः । 6/1
यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा ।
मत्वेति हेलया किंचित् मा गृहाण विमुच्य मा । 8/4
कृताकृते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा ।
एवं ज्ञात्वेह निवेॅदाद्भव त्यागपरोअव्रति । 9/1
(कृत्य अकृत्यमां अने द्वद्वोमां कोने क्यारे शांति मलीछे? अेवुं जाणीने अहिं अनाशक्त, त्यागपरायण अने अनाग्रही बन)
क्स्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात् ।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गताः । 9/2
(हे प्रिय कोइ धन्य व्यकतीज लोकोनो व्यवहार (चेस्टाओ) जोइने ज जीववानी इच्छा, भोगनी इच्छा अने जाणवानी इच्छाथी मूक्त थइ जायछे।)
पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रान् यथाथॅतः ।
तत्क्षणाद्बन्धनिमुॅक्तः स्वरुपस्थो भविष्यसि । (अष्टावक्र संहिता-9/7)
(जब तुम यथार्थरुप से यह समझ पाओगे कि; तमाम प्राणिओं और पदार्थों और कुछ भी नहीं बल्कि मूलभूत तत्त्वों का रुपांतरन हि है; उसी क्षण तुम बंधन से मूक्त होकर अपने नीज स्वरुप में स्थित हो जाओगे।)(अष्टावक्र संहिता-9/7)
(If you would genuinely realize that all the creatures and substances are nothing but the transformations of the basic elements only, then at that very moment you would be freed from all the bonds and would get established in your own Being. )(Ashtaavakra Sanhita-9/7)
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।। (Gita-13/29.)
[जब (मनुष्य) पृथक महाभूतों हि (शरीरों, पदार्थों, आदि रुपों में) एकत्र होकर स्थित है; और उन (पृथक महाभूतों) से हि (इस सृष्टिका) विस्तार है; ऐसा विवेकसे समझ लेता है; उसी क्षण (वह) ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।] (Gita-13/29.)
(When a man perceives with discernment that the diversified basic elements are rooted in one (body or substance), and (also perceives this creation as) proceeding from them, then at that very moment he becomes one with the Brahmn.) (Gita-13/29.)
कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा।
दु:खमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम् ॥ (अष्टावक्र संहिता-10/8).
(कितने ही जन्मों में तुमने शरीर, मन और वाणि से परिश्रमयुक्त कष्टमय कर्म नहीं किया है? (फिरभी उन्हों ने मोक्ष नहीं दिलाया) तो अब तो विश्रामित हो जा।). (अष्टावक्र संहिता-10/8).
(Have you not done assiduously toilsome work with body, mind and speech in so many lives? (Yet they not availed you Salvation,) hence now get quiescence.) (Ashtaavakra Sanhita-10/8).
वासनात्यागात् स्थितिरद्य यथा तथा । 9/8
(वासनानो त्याग करीने तुं ज्यां छो त्यां स्थिर था)
यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै । 10/3
(जहाँ जहाँ तृष्णा है वहाँ संसार है ऐसा समज)
राज्यं सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च ।
संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि । 10/6
(राज्य, पुत्रो, पत्नियाँ शरीरों और सुखों तुम्हारे आसक्त होते हुएभी हर जन्ममें नाश पामे है ।)
कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा।
दु:खमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम्।। (अष्टावक्र संहिता-10/8)
(कौनसे जन्मोंमें तुने (साधनाके नाम पर) मन, वाणि और कायासे परिश्रमयुक्त दु:खजनक कर्म नहीं किया है? (फिरभी मोक्ष मिला क्या?) तो अब तो (अपने होनेमें) विश्रामित हो जा।) (अष्टावक्र संहिता-10/8)
(Have you not done in each your life the laborious painful deeds by the way of body, Mind and speech (in the name of Sadhnaa)? (Yet have you availed Salvation?) Then now you must get rested (in your Being). (Ashtaavakra Sanhita-10/8).
ईश्वरः सवॅनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी ।
अन्तगॅलितसवॅाशः शांतः क्वापि न सज्जते । 11/2
(अहिं सवॅका निमाॅण करनार ईश्वर ही है और दूसरा कोई नहिं है अैसा जीसका निश्चय हुआहै और जीसकी सभी इच्छायें अंतःकरणमें नाश पामी है अैसा शांत मनुष्य कहीं भी आसक्त नहिं होता।)
कुवॅन्नपि न लिप्यते । 11/5
(कमॅ करता हुआ भी लिप्यमान नहिं होता । )
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतं।।(अष्टावक्र संहिता-11/6)
( “मैं शरीर नहीं हुँ (और) नहीं शरीर मेरा है, मैं बोधरुप हुँ” ऐसा जिसका निश्चय हुआ है वह मोक्ष को उपलब्ध हुआ (साधक), नहीं किये हुए और किये हुए (कर्मों) के प्रति ध्यान नहीं देता है)(अष्टावक्र संहिता-11/6).
(One who is resolved that “I am not body nor the body is mine, I am the awareness”, that (seeker) already availed to the Salvation, doesn’t become mindful of (the action) not done or already done.). (Ashtaavakra Sanhita-11/6).
समाध्यासनादिविक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये ।
एवं विलोक्य नियममेवमेवाहमास्थितः । 12/3
(जो विक्षेप दशामें है उनके लिये समाधि आसनादि और जो समाधिमें है उनके लिये व्यवहार एेसा (उलटा सुलटा ) नियम देखकर मैं जैसा हुं वहाँ स्थित हुं।)
कृतं किमपि नैव स्यादिति संचिन्त्य तत्त्वतः।
यदा यत्कतुॅमायाति तत्कृत्वाआसे यथासुखम् ।। (अष्टावक्र संहिता-13/3)
(“किया तो कुछ भी जाता ही नहिं है”, ऐसा तत्वदृष्टिसे विचार करके जो वक़्त जो कर्म करने को सहज आपडता है, वह करके मैं आनंद में रहता हुं) (अष्टावक्र संहिता-13/3)
(Intrinsically realizing that “nothing is ever being done”; I abide in bliss by doing that whatsoever presents itself to be done at that time.) (Ashtaavakra Sanhita-13/3).
यथातथोपदेशेन कृताथॅ सत्त्वबुद्धिमान् । 15/1
(सत्व एवं बुद्धिमान पुरुष जैसा भी हो वैसा उपदेशसे कृताथॅ होजाता है । )
ज्ञानस्वरुपो भगवानात्मा त्वं प्रकृतेः परः । 15/8
(तुम ज्ञानस्वरुप, भगवान, आत्मा, प्रकृति से पर हो। )
अयं सोअहमयं नाहं विभागमिति संत्यज।
सवॅमात्मेति निश्चित्य निःसंकल्पः सुखी भव।। 15/15
(यह मैं हुं और यह मैं नहिं हुं ऐसे भेदभावको छोडदो। सब आत्मा ही है अैसा निश्चय करके, संकल्प रहीत होकर सुखी हो)
त्यजैव ध्यानं सवॅत्र। 15/20
(घ्यानका तो सवॅत्र त्याग करो)
आयासात्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन।
अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निवृॅतिम्।। 16/3
(परिश्रम से सभी मनुष्यों दुःखको प्राप्त होतेहै लेकिन यह कोइ नहिं जानता। धन्य पुरुष उपदेश से ही निवाॅणरुप परमसुखको प्राप्त होता है।)
तस्यालस्यधुरीणस्य सुखं नान्यस्य कस्यचित्।।16/4
(आलसीओके सरदारको ही सुख प्राप्त होता है, अन्य कीसीको नहिं)
हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः कमलजोअपि वा।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सवॅविस्मरणादृते।। 16/11
(यदि शंकर तेरा उपदेशक होता है या विष्णु या कमलमेंसे जन्मे ब्रह्मा, फीरभी बीना सब भूले तुजे शांति होने वाली नहिं है।)
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा।
तृप्त: स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु य:।।
(अष्टावक्र संहिता-17/9)
(संतोषी, शुद्ध इन्द्रियों वाला और हंमेशा अकेला ही आनंद में रहनेवाला है, उसने ही ज्ञान का फल तथा योगाभ्यास का फल प्राप्त किया हुआ है।)
(अष्टावक्र संहिता-17/9)
(He who is content, is with purified senses, and who always remains in bliss even in solitude, has gained the fruit of knowledge and the fruit of the practice of yoga too.)
(Ashtaavakra Sanhita-17/9).
शून्या दृष्टिवृॅथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।
न स्पृहा न विरक्तिवाॅ क्षीणसंसारसागरे।। (अष्टावक्र संहिता-17/9)
((जब) संसार का मोह नष्ट हो जाता है तो, दृष्टि शून्य, क्रियाएँ निरथॅक और ईन्दियाँ क्षुब्ध हो जाती है; (फिर उसमें पदार्थों के लिए) आसक्ति या विरक्ति भी नहिं रहेती) (अष्टावक्र संहिता-17/9)
[(When) the fascination of Sansaar gets waned, then the gaze becomes emptied, the performance becomes purposeless and the sense organs become maimed; (then) there neither remains attachment nor aversion (for substances in him.)](Ashtaavakra Sanhita-17/9).
समस्तवासनामुक्तो मुक्तः सवॅत्र राजते। 17/11
(सभी वासनाओंसे मुक्त हुआ मुक्त पुरुष सवॅत्र शोभायमान होता है)
सानुरागां स्त्रियं दृष्टवा मृत्युं वा समुपस्थितम्।
अविह्वलमनाः स्वस्थो मुक्त एव महाशयः।।17/14
(प्रितियुक्त स्त्री या समीप आया हुआ मृत्युको देखकर भी जो महात्मा अविह्वल मनवाला और स्वस्थ रहता है वह मुक्त ही है)
निर्ममो निरहंकारो न किंचिदिति निश्चित:।
अन्तर्गलितसर्वाश: कुर्वन्नपि करोति न।।
(अष्टावक्र संहिता-17/9)
(ममतारहित, अहंकाररहित, कुछ है ही नहीं ऐसा जिसका निश्चय हुआ है और जिसके भीतर सब कामनाएँ नष्ट हो गई है; सब कुछ करते हुए भी वह कुछ भी नहीं करता है।)(अष्टावक्र संहिता-17/9)
(One without sense of attachment, without conception of one’s individuality, resolved that nothing exists, whose all desires within have perished, does nothing even though doing everything.)
(Ashtaavakra Sanhita-17/9).
भवोअयं भावनामात्रो। 18/4
(यह संसार कल्पना मात्र है)
यथा जीवनमेवेह (जीवनम् इव इह) योगिनः।18/13
(योगी यहाँ यथा प्राप्त जीवन (जीता है))
Jesus: Let thy wish prevail.
द्वितियं यो न पश्यति। 18/16
(उसे दुसरा दिखता नहिं)
प्रवृतौ वा निवृतौ वा नैव धिरस्य दुग्रॅहः ।
यदा यत्कतुॅमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम्।।18/20
(जीस वक़्त जो करनेका आजाता है उसको करके आनंदमय रहता ज्ञानीको प्रवृतिमें या निवृत्तिमें दुराग्रह होता ही नहीं )
चेष्टते शुष्कपणॅवत्। 18/21
(सूके पणॅकी तरह चेष्टा करते है)
Sage Ashtavakra says to king Janak: नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा। धन्योविज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः18/36 (Ashtavakra Gita 18/36). “The stupid does not achieve Liberation even through regular Sadhna, but the fortunate remains Liberated even through actionlessness; simply by their wisdom. (Ashtavakra Gita 18/36).
नाप्नोति कमॅणा मोक्षं विमूढोअभ्यासरुपिणा। 18/36
( मूढ़ पुरुष अभ्यासरुप कमॅसे भी मोक्षको प्राप्त नहिं कर शक्ता)
निराधाराग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषका:। 18/38
((सद्गुणोंके)आधार रहित (और शास्त्र पढ़े) दुराग्रही मूढ़ों ही संसारका पोषण करनेवाले है)
कतॅव्यतैव संसारो । 18/57
(करनेकी भावना ही संसार है)
हरिः ॐ तत्सत् ।हरिः ॐ तत्सत्। हरिः ॐ तत्सत्।
Acharya Vrujlal
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