ADVAYATARKA UPANISHAD
जीवेश्वरौ मायिकौ विज्ञाय सर्वविशेषं नेति नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म।
(अद्वयतारकोपनिषद-3)
(जीव और ईश्वरको मायिक जानकर, जो विशेषकर है उस सबको “नेति नेति” कहते हुए उसको त्यागकर, जो शेष रहता है, वही अद्वय ब्रह्म (कहलाता) है।)
“After taking Jiva and Ishwara as illusive, after abdicating all that which is some or other way any special, terming it as “Not this, not this”, what remains is the Nondual Brahmn (that is the form of bliss).
तालुमूलोर्ध्वभागे महान् ज्योतिर्मयूखो वर्तते।
तद्योगिभिर्ध्येयम्। तस्मादणिमादिसिद्धिर्भवति।।
(अद्वयतारकोपनिषद-11)
(तालुमूलके उर्ध्वभागमें महान ज्योति किरन मंडल स्थित है। योगी उनका ध्यान करते है। उससे हि अणिमा विगेरह सिद्धियाँ प्राप्त होती है।)

AMRUTNADA UPANISHAD

तथेन्द्रियकृता दोषा दह्यन्ते प्राणधारणात्।।
(अमृतनादोपनिषद-7)
(वैसेही समस्त इन्द्रियाँ द्वारा किये दोषों प्राणायाम द्वारा भस्म हो जाते है।)
अन्धवत्पश्य रुपाणि शब्दं बधिरवच्छृणु।
काष्ठवत्पश्य वै देहं प्रशान्तस्येति लक्षणम्।।(अमृतनादोपनिषद-15)
अंधेकी तरह जो दृश्यपदार्थोंकों देखता है, बहेरेकी तरह जो आवाज़को सुनता है, और देहको जो काष्ठकी तरह जानता है, वे सब स्थितप्रज्ञके लक्षण है।
मन: संकल्पकं ध्यात्वा संक्षिप्यात्मनि बुद्धिमान्।
धारयित्वा तथात्मानं धारणा परिकीर्तिता।।
(अमृतनादोपनिषद-16)
(मनको संकल्पात्मक समजकर बुद्धिमान मनुष्य मनका आत्मामें लय करके तथा (लय किये हुए मनको अपने) आत्मामें हि धारण किये रखता है (उसी क्रिया को) धारणा कहते है।)
आगमस्याविरोधेन ऊहनं तर्क उच्यते।
समं मन्येत यल्लब्ध्वा स समाधि प्रकीर्तित:।।
(अमृतनादोपनिषद-17)
(शास्त्रानुकुल शंका उपस्थित करना उसको तर्क कहते है। (ऐसी शंका के मदेनजर भी) जो भी प्राप्त होता है उसमें समभाव रखना हि समाधि कहलाती है।)

AITREYA UPANISHAD

आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसिन्नान्यत्किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।
(ऐतरयोपनिषद-1/1/1)
(सृष्टिकी शुरुआतमें एकमात्र आत्मा ही था। इसके अलावा सचेष्ट जैसा और कुछ भी नथा। तब उस (परमात्मा) ने सोचा की मैं लोकोंका सृजन करुं।)
या अधस्तात्ता आप:। (ऐतरयोपनिषद-1/1/2)
(जो आधाररुप है वह आप(जल) है।)
स एतमेव सीमानं विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषाविदृतिर्नाम द्वारस्तदेतन्नान्दनम्। तस्य त्रय आवसथास्त्रय:स्वप्ना अयमावसथोऽयमावसथोऽयमावसथइति।। (ऐतरयोपनिषद-1/3/12)
(वह परमात्मा मानव शरीरकी सीमा मूर्धा (ब्रह्मरंध्र)कोचीरकर (विदीर्ण करके) उसमें प्रवेश हो गये। विदीर्णकरनेसे उसको विदृति नामका द्वार कहा जाता है, यहद्वार आनंदरुप परमात्माकी प्राप्ति कराता है। उसपरमात्माके तीन आश्रय स्थान है और तीन स्वप्न है।यही उसका आवास स्थल है यही उसका आवासस्थल है यही उसका आवास स्थल है)
(Three places: Body, Nature, Inexhibitive)
(शरीर। प्रकृति। अव्यक्त)
(Three dreams: make efforts through body, get tuned with the Nature, and prepare for the voyage to inexplicable)
यदेतत् ह्रदयं मनश्चैतत्। (ऐतरयोपनिषद-3/1/2)
(जो यह ह्रदय है, मन भी वही है।)
प्रज्ञानं ब्रह्म। (ऐतरयोपनिषद-3/1/3)

ATMABODHA UPANISHAD

न मे बन्धो न मे मुक्तिर्न मे शास्त्रं न मे गुरु:।।
(आत्मबोधोपनिषद-19)
(न तो मेरे लिये बंधन है, न मुक्ति। न मेरे लिये कोइ शास्त्र है, न कोइ गुरु है।)

AXAYA UPANISHAD

ॐ असतो मा सद् गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्माऽमृतं गमय। (अक्ष्यूपनिषद-1)-

BRAHDARANYAKA UPANISHAD

नैवेह किंचनाग्र आसीत। (ब़ह्दारण्यकोपनिषद-1/2/1)
(पहेले यहाँ कुछ भी नहीं था।)
द्वितीयाद्वै भयं भवति। (बृहदारण्यकोपनिषद-1/4/2)
[दूसराओंसे हि भय होता है। (लेकिन यहाँ दूसरा कोई है हि नहीं, फिर भय क्यों)] ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्तदात्मानमेवावेत्।अहं ब्रह्मास्मि।तदिदमप्येतर्हि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मि स इदं सर्वं भवति।अथ योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स: देवानाम्।।यथा ह वै बहन: पशवो मनुष्यं भुंज्युरेवमेकैक: पुरुषो देवान्भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशादियमानेऽप्रियं भवति किमु बहुषु तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्यु:।। (बृहदारण्यकोपनिषद-1/4/10)
(पहले यह ब्रह्म ही था; उसने अपनेको जाना कि “मैं ब्रह्म हूँ”।अत: वह सर्वरुप हो गया।उस इस ब्रह्मको इस समय भी जो इस प्रकार जानता है कि “मैं ब्रह्म हूँ” वह यह सर्वरुप हो जाता है।और जो अन्य देवताकी “यह अन्य है और मैं अन्य हूँ” इस प्रकार उपासना करते है, वह नहीं जानता (कि “मैं ब्रह्म हूँ”)।जैसे (मनुष्यके) पशु होते है वैसे ही वह देवताओंका पशु है।जैसे लोकमें बहुत से पशु मनुष्यका पालन करते है, उसी प्रकार एक एक मनुष्य देवताओंका पालन करते है।एक पशुका ही हरण किये जानेपर अच्छा नहीं लगता, फिर बहुतोंका हरण होनेपर तो कहना ही क्या? इसलिये देवतोओंको यह प्रिय नहीं है कि मनुष्य (“मैं ब्रह्म हूँ” यह)जानें।)(बृहदारण्यकोपनिषद-1/4/10)
[Brahmn alone was here in the beginning. He Himself perceived that “I Am Brahmn”; therefore He become one with all. Even today whoever perceives the said Brahmn that “I Am Brahmn”, becomes one with all. And if one worships other Devatas thinking that “he is another, and I am another,’ doesn’t know (that I am Brahmn). As there are animals (of men) same way he is an animal of the Devatas. As in Mundane World many animals severs men, same way each one man serves Devatas. Even if one animal is taken away it causes anguish then what to say when many animal are taken away? Therefore it is not liked by Devatas that men should know this (that I am Brahmn)]. (Brihdaaranyaka Upanishad-1/4/10)
येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम्।।(बृहदारण्यकोपनिषद-2/4/3)
(जिस से मैं परमात्मारुप नहीं हो सकती, उसे लेकर मैं क्या करुंगी?) (बृहदारण्यकोपनिषद-2/4/3)
(What shall I do by accepting that if it is not making me one with Parmatma?)
(Brihdaaranyaka Upanishad-2/4/3)
येनाहं नामृता स्यां तेनाहं किं कुर्याम्।।(बृहदारण्यकोपनिषद-2/4/3)
यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति।
यत्र वा अस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत्।।
(बृहदारण्यकोपनिषद-2/4/14)
((अविद्या के) कारण जहाँ द्वैत सा महसूस होता है, वहीं अन्य अन्य को देखता है।लेकिन जहाँ (ज्ञान से) सब कुछ आत्मा के आत्मरुप ही महसूस हो गया है, तो कौन किसको देखेगा )(बृहदारण्यकोपनिषद-2/4/14)
(Because (of Ignorance) where there is felt like duality, then one sees the other. But where (due to Knowledge) everything is felt belonging to Atmaa only, then who will see whom?).
(Brihdaaranyaka Upanishad-2/4/14).
द्वे वाव ब्रह्मणो रुपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च।। तदेतन्मूर्तं यदन्यद्वायोश्चान्तरिक्षाय।।(बृहदारण्यकोपनिषद-3/2/1-2)
ब्रह्मके दो रुप है: व्यक्त और अव्यक्त।(व्यक्त) मरणधर्मा है, (अव्यक्त) अविनाशी है।(मरणधर्मा) जड-स्थिर है, (अविनाशी) गतीशिल है। वायु और आकाश से अन्य (अग्नि, जल, पृथिवी) व्यक्त है।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो दर्शनेन श्रवणेन मत्वा विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्।। (बृहदारण्यकोपनिषद-2/4/5, 4/5/6).
(हे मैत्रेयी! यह आत्मा ही दर्शन करवा योग्य, श्रवण करवा योग्य, मनन करवा योग्य, निदिध्यासन (अनुभव, ध्यान) करवा योग्य है। यह आत्माके दर्शन, श्रवण, मनन और ज्ञानसे सबका ज्ञान हो जाता है।)
स होवाच वायुर्वै तत्सूत्रं वायुना वै सूत्रेणायं च लोक: परश्च लोक: सर्वाणि च भूतानि च संदृब्धानि भवन्ति। (बृहदारण्यकोपनिषद-3/7/2)
(याज्ञवल्क्य उवाच वायु हि वह सूत्र है, कारण यह लोक, पर लोक और समस्त प्राणियों उस के द्वारा हि ओतप्रोत रहे हुए है।)
अष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्यास्त इन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिंशाविति देवा:।। (बृहदारण्यकोपनिषद-3/9/2)
(याज्ञवल्क्य ने शाकल्य को कहा) आठ वसु (अग्नि, पृथिवी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, (चंद्र और नक्षत्र), ग्यारह रुद्र (दश प्राण और मन), बारह आदित्य (बारह मास), इन्द्र (मेघ अथवा विद्युत) और प्रजापति (यज्ञ अथवा पशु) यह तेंत्रिस देवों है।)
स एष नेति नेत्यात्मा। (ब्रहदारण्यकोपनिषद-3/9/26) अद्वयतारकोपनिषद-3)
(इस आत्मा के बारे में “यह (आत्मा) नहीं है यह (आत्मा) नहीं है” ऐसा ही कहा जा सकता है।(ब्रहदारण्यकोपनिषद-3/9/26) अद्वयतारकोपनिषद-3)
(About this Atmaa it can only be said “This is not (Atmaa) this is not (Atmaa)”.) (Brahadaranyaka Upanishad-3/9/26)(Advayataaraka Upanishad-3)
विज्ञानमानन्दं ब्रह्म। (बृहदारण्यकोपनिषद-3/9/28)
कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमय: प्राणेषु ह्रद्यन्तर्ज्योति: पुरुष: स समान सन्नुभो लोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव स हि स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतित्क्रामति मृत्यो रुपाणि।। (बृहदारण्यकोपनिषद-4/3/7)
(जनक- आत्मा कौन है? (याज्ञवल्क्य)- यह जो प्राणोंमें विज्ञानरुप (और) ह्रदयमें ज्योतिरुप पुरुष (है वही आत्मा) है। वह मानो ध्यान करता हो या मानो चेस्टा करता हो (वैसे क्रमश: इह और पर) दोनों लोकोंमें समान हुआ संचार करता है। वही स्वप्न होकर इहलोकका और मृत्युके रुपोंमें परलोकका अतिक्रमण करता है।)
असंगो ह्यं पुरुष:।। (बृहदारण्यकोपनिषद-4/3/15)
(यह पुरुष असंग ही है)
यद्वै तन्न पश्यति पश्यन् वै तन्न पश्यति न हि द्रष्टुर्द्दष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात्। न तु तद् द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद् विभक्तं यत् पश्येत्।।(बृहदारण्यकोपनिषद-4/3/23)
वह जो नहीं देखता सो देखता हुआ ही नहीं देखता। द्रष्टाकी द्दष्टिका कभी लोप नहीं होता, क्योंकि वह अविनाशी है। उस समय उससे भिन्न कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं, जिसे देखे।
साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।
(आत्मा साक्षी, चेतनरुप, केवल (अद्वितीय) और निर्गुण है।)
तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।। (बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/2)
[(जब आत्मा बहिर्गमन करती है तो) उसके साथ हि उसका ज्ञान, कर्म और पूर्व प्रज्ञा (अनुभूत विषयों की वासना) भी जाते है।] काममय एवायं पुरुष। यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते।।(बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/5)
(यह (आत्मा) पुरुष काममय है।वह कामनाके अनुरुप संकल्प करता है।संकल्पके अनुरुप कर्म करता है। कर्मके अनुरुप फल पाता है।)
योऽकामो निष्काम आप्तकाम आत्मकाम न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति।।(बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/6)
(परंतु जो पुरुष कामनाहीन, निष्काम, आप्तकाम, और आत्मकाम है, उसके प्राणों का (परलोक में) उत्क्रमण नहीं होता। वह ब्रह्म ही रहकर ब्रह्मको प्राप्त होता है।)(बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/6).
(But the stepping out of Subtle Body of the desireless, disinterested, one who has realized the Atmaa, desirous of emancipation; doesn’t happen. He avails Parmatma by remaining being Parmatma only.) (Brahdaranyaka Upanishad-4/4/6).
स एष नेति नेत्यात्मा।
(बृहदारण्यकोपनिषद-4/3/4)(4/4/22)
(यह आत्मा नेति नेति रुपसे कहा गया है)
मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यौ: स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।।
(बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/19)
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यौ: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
(कठोपनिषद-2/1/11)
((ब्रह्म एक ही यहाँ है), यहाँ अलग-अलग जैसा कुछभी नहीं है, (प्रगमनशील हुए) मनसे ही यह तत्त्व प्राप्त करने योग्य है। जो मनुष्य यहाँ अलग-अलगसा दिखता है, वह मृत्युसे मृत्युको ही प्राप्त होता रहता है।) (बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/19)(कठोपनिषद-2/1/11)
[(Parmatma alone is here), there is nothing like diversity here, this has to be realized by a Mind (that is made an excellent). Whoever is understanding that there prevails diversity here, ensures from death to death for himself] (Brihdaranyaka Upanishad-4/4/19) (Katha Upanishad-2/1/11).
यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति। यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत तत् केन कं पश्येत्। येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानियात्।स एष नेति नेत्यात्मागृह्यो।।(बृहदारण्यकोपनिषद-4/5/15)
जहाँ (अविद्यासे) द्वैतसा लगता है, वहीं अन्य अन्यको देखता है। किन्तु जहाँ इसके लिए सब आत्मा ही हो गया है, वहाँ किसके द्वारा किसे देखे? जिसके द्वारा पुरुष इस सबको जानता है, उसे किस साधनसे जाने? वह यह ‘नेति-नेति’ इस प्रकार निर्देश किया गया आत्मा अगृह्य है।(बृहदारण्यकोपनिषद-4/5/15)
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। (इशावास्योपनिषद-15) (ब़ह्दारण्यकोपनिषद-5/15/1)
(सत्यनुं मुख सोनाना पात्रथी ढंकायेल छे । )

BRAHMBINDU UPANISHAD
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयौ: ।
(ब्रह्मबिंदुउपनिषद-2) (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/K)
(मन ही मनुष्यके बन्धन या मूक्तिका कारणरुप है।)
तावदेव निरोद्धव्यं ह्रदि यावत्क्षयं गतं मनो।
एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रंथ विस्तरा । (ब्रह्मबिंदूपनिषद-5)(मैत्रायण्युपनिषद-4/3/H)
(मनका ह्रदयमें तबतक ही निरोध करना चाहिये जबतक उनका क्षय (यानि मनकी उन्मनी rस्थिति) न हो जाय। (संपूर्ण शास्त्रोंका साररुप) यही ज्ञान है और यही मोक्ष है, बाक़ी सबतो ग्रंथका (बिनजरुरी) विस्तार ही है।)
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थित:।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचंद्रवत।। ( ब्रह्मबिंदुउपनिषद-12)
(अलग अलग प्राणि में एक हि आत्मा रहा हुआ है; एक होते हुए भी अलग अलग दिखते है,
जीस तरह एक ही चंद्र अलग अलग जलपात्र में अलग अलग दिखता है, वैसे ही।) ( ब्रह्मबिंदुउपनिषद-12)
(The one and alone Atmaa pervades in each individual creature; in spite of being one, sounds to be individual; as the one alone moon is seen separate in each individual water pot.) (Brahmabindu Upanishad-12)
घटसंवृतमाकाशं लीयमाने घटे यथा। घटो लियते नाकाशं तद्वज्जीवो नभोपम:।। ( ब्रह्मबिंदुउपनिषद-13)
(घटमें आकाश पूर्णरुपसे विद्यमान है, परंतु जैसे घटके तूटनेपर केवल घटका ही नाश होता है; उसमें रहे आकाशका नहीं, ऐसे ही शरीर नष्ट होनेसे आत्माका नाश नहीं होता।)

BRAHMVIDYA UPANISHAD
गुरुरेव हरि: साक्षान्नान्य इत्यब्रवीच्छ्रुति:।।
(ब्रह्मविद्योपनिषद-31)
(केवल गुरु ही साक्षात् परमात्मा है। अन्य नहीं है, ऐसा श्रुति का वचन है।)(ब्रह्मविद्योपनिषद-31)
उल्काहस्तो यथालोके द्रव्यमालोक्य तां त्यजेत्।
ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य पश्र्चाज्ज्ञानं परित्यजेत्।।
(ब्रह्मविद्योपनिषद-36)
(जैसे मशाल के प्रकाश से वस्तु को देख लेने से मशाल को छोड़ दि जाती है, वैसे ही ज्ञान से ज्ञातव्य विषय की प्राप्ति हो जाने से ज्ञान का परित्याग कर दिया जाता है।)(ब्रह्मविद्योपनिषद-36)
ब्रह्महत्याश्वमेधै: पुण्यपापैर्न लिप्यते।
चोदको बोधकश्चैव मोक्षदश्च पर: स्मृत:।।
इत्येषां त्रिविधो ज्ञेय आचार्यस्तु महीतले।
चोदको दर्शयेन्मार्गं बोधक: स्थानमाचरेत्।।
मोक्षदस्तु परं तत्त्वं यज्ज्ञात्वा परमश्नुते।
(ब्रह्मविद्योपनिषद-51-53)
(जो ब्रह्महत्या के पाप से और अश्वमेधादि के पुण्य से लिप्त नहीं होता है; (ऐसे आचार्य को) प्रेरक, बोधक और मोक्षदाता माना जाता है।यहाँ संसार में आचार्य तीन श्रेणी के कहे गये है। प्रेरक आचार्य मार्ग बताते है। बोधक आचार्य लक्ष्य तक ले जाता है। मोक्षदाता आचार्य परं तत्त्व प्रदान कराते है, जिसको जानकर परमात्मा की प्राप्ति होती है।)
(ब्रह्मविद्योपनिषद-51-53).
अकारे संस्थितो ब्रह्म उकारे विष्णुरास्थित:।
मकारे संस्थितो रुद्रस्ततोऽस्यान्त: परात्पर:।।
(ब्रह्मविद्योपनिषद-71-72)
(‘अ’कार में ब्रह्मा का, ‘उ’कार में विष्णु का तथा ‘म’कार में रुद्र का स्थान रहा है; उस के आगे परात्पर ब्रह्म रहे हुए है।)(ब्रह्मविद्योपनिषद-71-72)

CHHANDOGYA UPANISHAD
यद्वै प्राणिति स प्राणो यदपानिति सोऽपानोऽथ य: प्राणाप्रानयो: सन्धि: स व्यानो।
(छांदोग्योपनिषद-1/3/3)
(मनुष्य स्वास द्वारा जो वायु बहार निकालता है, वह प्राण है और जो वायु अंदर लेता है, वह अपान है। जो प्राण अपानकी संधि है, वह व्यान है।)
देवा वै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्या प्राविशँस्ते छन्दोभिरच्छादयन्यदेभिरच्छादयँस्तच्छन्दसां छन्दस्त्वम्।। (छांदोग्योपनिषद-1/4/2)
(मृत्युसे डरे हुए देवोने त्रयी विद्यामें प्रवेश किया और अपनेको छन्दोसे आच्छादित कर लिया।आच्छादित करने वाले होनेके कारन वे छन्द कहे गये।)
सत्यकामो जाबालो ह जबालां: किं गोत्रोन्वहमस्मीति। सा हैनमुवाच नाहमेतद्वेद तात यद्गोत्रस्त्वमसि बह्वहं चरन्ति परिचारिणी यौवने त्वामलभे साहमेतन्न वेद यद्गोत्रस्त्वमसि जबाला तु नामाहमस्मि सत्यकामो नाम त्वमसि स सत्यकाम एव जाबालो ब्रुविथा इति।। (छांदोग्योपनिषद-4/4/1-2)
((सत्यकाम जाबालने (अपनी माता) जबालाको पूछा: मुझे बताइये मैं कौनसे गोत्र का हूँ? जबाला ने उत्तर दिया: तात! तुम जीस गोत्रका है उसको मैं भी नहीं जानती। युवा वस्थामें मैं जब मैं अनेक के साथ समागम करती परिचारिणी थी वैसेमें तुझको पाया। इसीलिये मैं यह नहीं जानती कि तुम कोनसे गोत्र का हो। जाबाला मेरा नाम है और तु सत्यकाम नामका है, तो (आचार्य को) कहना “मैं सत्यकाम जाबाल हुँ”।) (छांदोग्योपनिषद-4/4/1-2)
(Satyakaam Jabaal asks (his mother): “Tell me of what clan I am. Jabaalaa replied: “My son, I even don’t know of what clan you are. While being youth, when I was a maid servant, rendering intercourse services to many, I got you in those circumstances. That is why I don’t know that of what clan you are. Jabaalaa is my name and you are having the name of Satyakaam; so tell (your Acharya in Gurukul) that you are Satyakaam Jabaal”). (Chhandogya Upanishad-4/4/1-2).
प्रथम आहुति: प्राणाय स्वाहा
द्वितिय आहुति: व्यानाय स्वाहा
तृतिय आहुति: अपानाय स्वाहा
चतुथीॅआहुति: समानाय स्वाहा
पंचमीआहुति: उदानाय स्वाहा (छांदोग्योपनिषद)
मनो ह वा आयतनम्। (छांदोग्योपनिषद- 5/1/5) (अवश्य मन ही आयतन (आश्रय) शरीर है). (छांदोग्योपनिषद- 5/1/5)
(Verily the Mind itself is a body) (Chhandogya Upanishad-5/1/5).
त्वं न: श्रेष्ठोऽसि मोत्क्रमीरिति। (छांदोग्योपनिषद5/1/12)
((प्राण) आपही हम सबमें श्रेष्ठ है, आप बहार न जाना)
यथेतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति धूमोभूत्वाभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति मेघो भूत्वाप्रवर्षति त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इतिजायन्ते। यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेत: सिंचति तद्भूय एव भवति। (छांदोग्योपनिषद-5/10/5-6)
(वहांसे वह (सूक्ष्मशरीर) प्रथम आकाशको प्राप्त होता है, आकाशसे वायुको प्राप्त करने के बाद वायुमे से धूम्र होता है, धूम्र में से बादल बन जाता है। बादल में से जब वर्षा बनकर बरसता है, तब सभी प्राणीओं इस लोकमें डांगर, जव, औषधि, वनस्पति, उड़द और तील बनकर प्रादुर्भूत होते है। (कर्मानुसार) जो जो इस अन्नको खाता है, और उनसे उत्पन्न विर्यका सिंचन करनेसे जो जीव बनता है, वह वैसा बन जाता है।) (छांदोग्योपनिषद-5/10/5-6)
[From there the Jiva (subtle body) transforms into the sky, from sky into air, from air into vapour, from vapour into cloud, when it rains from the cloud; then all the Jivas are born into paddy, barley, herbs, plants, sesame, pulses, etc. (According to the actions) whoever eats this grain, etc and procreates (species) through the semen that is produced out of said (grain, etc), those (species) are identical to those (eaters)] (Chhandogya Upanishad-5/10/5-6).
न वै सोम्यास्मत्कुलीनोऽननूच्य ब्रह्मबन्धुरिव भवतीति।(छांदोग्योपनिषद -6/1/1)
(हमारे कुलमें जन्म लेनेवाला बालक बिना ब्रह्मविद्याके अध्ययन किये, ब्राह्मण नहीं बन सकता)
येनाश्रुतंश्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातमिति स उपदेशो भवतीति।(छांदोग्योपनिषद -6/1/3) [( पिता उदाल अपने पुत्र श्वेतकेतुसे पूछते है:) जीसके द्वारा जो अश्रुत रहा है वह श्रुत हो जाता है, नहीं माना हुआ रहा है वह माना हुआ हो जाता है और जो नहीं जाना हुआ रहा है, वह विशेषरुपसे जाना हुआ हो जाता है, वह ब्रह्मविद्या तुमने प्राप्त कर लि क्या?].
(छांदोग्योपनिषद -6/1/3)
[(Father Udaalak asks his son:) have you attained that BrahmVidya by which what is not yet listened becomes listened, what is yet not believed becomes believed and what is yet not known becomes exclusively known?] (Chhandogya Upanishad-6/1/3).
यथा सोम्यैकेन मृत्पिंडेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्। (छांदोग्योपनिषद-6/1/4)
सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितियं।
(छांदोग्योपनिषद-6/2/1)
(हे सोम्य प्रारंभमें एक मात्र अद्वितीय सत ही था।)
तद्वैक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति। (छांदोग्योपनिषद-6/2/3)
(उसने संकल्प कियाकि मैं विभिन्न रुपोंमें उत्पन्न होजाउ।)
स्वपितित्याचक्षते । (छांदोग्योपनिषद-6/8/1)
(अपने स्वरुपको प्राप्त करलेता है ऐसा कहते है।)
प्राणबंधनं हि सोम्य मन । (छांदोग्योपनिषद-6/8/2)
(हे सौम्य! मन प्राणरुप बंधनवाला है)
सन्मूला: सोम्येमा: सर्वा: प्रजा: सदायतना: सत्प्रतिष्ठा:।। (छांदोग्योपनिषद-6/8/4)
((उदालक श्वेतकेतु को) हे सौम्य (इस तरह) यह सब प्रजाका मूल सत्य हि है, वह सत्यमें हि आश्रित और सत्यमें हि प्रतिष्ठित है।)
सोम्य पुरुषस्य प्रयतो वाँगमनसि संपद्यते मन:प्राणेप्राणस्तेजसि तेज:परस्यां देवतायाम् । (छांदोग्योपनिषद-6/8/6)
(हे सौम्य! अंत काले मनुष्यकी वाणी मनमां, मन प्राणमां, प्राण तेजमां और तेज़ परम देवमां लीन होताहै। )
स य अषोऽणिमैतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो। तस्मात् त्वं तु विज्ञातं सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति। (छांदोग्योपनिषद-6/8/7)
((पिता उदालकने पुत्र श्वेतकेतुको कहा) हे सौम्य! जैसे एक माटीके पिंड (को जान लेने)से माटीके पिंडमेंसे बने सब पदार्थोंका बोध हो जाता है, वास्तवमें विभिन्न प्रकारके (माटीके उपकरणोंके) नाम तो मात्र वाणीका विकार ही है। माटी ही एक मात्र सत्य है।
(वैसे ही यहाँ) सब वही सत्य ही है। वही आत्मा है। और श्वेतकेतु तुम भी वही (सत्य या ब्रह्म) हो। अत: अपनेको जान लेनेसे सबको विशेषरुपसे जान लिया है, ऐसा हो जाता है।)
(जब नारदजीने सनतकुमारोंको उपदेशके लिये कहा तो सनतकुमारोंने कहा)
नामैवैतत् । ( नाम एव एतत्)(छांदोग्योपनिषद-7/1/3) (रुग्वेद विगेरे नामही है)
सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नात्मविच्छ्रुतं।
तरति शोकमात्मविदिति।। (छांदोग्योपनिषद-7/1/3)
(नारदजीने कहा- भगवन! मैं तो मंत्र विद ही हुँ। मैं आत्मज्ञानी नहीं हुं। मैंने सुना है आत्मज्ञानी (जन्म मरणके) शोकको पार कर जाता है।)
मत्वैव विजानाति । (हे नारद मननसे हीजानाजाशकता है । ) (छांदोग्योपनिषद-7/18/1)
यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति । (छांदोग्योपनिषद-7/23/1)
(जो निरतिशय है, उस (परमात्मा होने) में सुख है, अल्प (जीव हो जाने) में सुख नहीं है।) (छांदोग्योपनिषद-7/23/1)
[There is bliss in (Being) infinite (Parmatma), bliss is not in (being) finite (Jiva).)
(Chhandogya Upanishad-7/23/1).
यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमा। यो वै भूमा तदमृतम्।। (छांदोग्योपनिषद-7/24/1)
(जहाँ अन्य कोई न देखता है, अन्य कोई न सुनता है, अन्य कोई न जानता है, वही भूमा है। जो भूमा है वही अमृत है)
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि:। सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति ।स्मृतिलम्भे सवॅग्रंथीनां विप्रमोक्षस्तस्मै । (छांदोग्योपनिषद-7/26/2)
( आहार शुद्धिसे (अंत:करणनी शुद्धि, अंत:करणकी शुद्धिसे अचल स्मृति, स्मृति मीलनेसे सब ग्रंथीयोंकी निवृत्ति हो जाती है ) (छांदोग्योपनिषद-7/26/2)
यच्चास्येहास्ति यच्च नास्ति सर्वं तदस्मिन्समाहितमिति।। (छांदोग्योपनिषद-8/1/3)
(जो कुछ भी इस लोकमें है, और जो नहीं भी है, वह सब पूर्णरुपसे इस (आत्मा) में रहा हुआ है।)
(यत् च अस्य इह अस्ति)
तद्यथेह कर्मजितो लोक: क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोक: क्षियते। (छांदोग्योपनिषद-8/1/6)
(जिस तरह इस लोकमें कर्मके द्वारा अर्जित किया सब पदार्थ नष्ट हो जाते है, वैसे ही परलोकमें पुण्य द्वारा प्राप्त किया सब कुछ नष्ट हो जाता है।)
(यद् यथा इह)
यो वेदेदं जिध्राणीति स आत्मा।
यो वेदेदं श्रृणवानीति स आत्मा । । (छांदोग्योपनिषद-8/12/4)
(जो अनुभव करता है की मैं सुंघता हूँ वह आत्मा है, जो अनुभव करता है की मैं सूनता हूँ वह आत्मा है)

DHYANBINDU UPANISHAD
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुन:।
हंसहंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा।
शतानि षड् दिवारात्रं सहस्त्राण्येकविंशति:।।
(ध्यानबिंदुपनिषद-61-62) (योगचूडामण्युपनिषद-31-32)
(‘ह’कार ध्वनिसे प्राण बहार निकलता है और ‘स’कार ध्वनिसे फिर अंदर पिरवेशता है। हंस हंस इस प्रकार मंत्रजप जीव हंमेशा जपता रहता है। जिसकी संख्या दिन-रातमें मिलकर 21600 होती है।)
स एव र्द्विविधो बिन्दु: पाण्डरो लोहितस्तथा।पाण्डरं शुक्रमित्याहुर्लोहिताख्यं महाराज:।।
योनिस्थाने स्थितं रज:।। शशिस्थाने वसेद्बिन्दुस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम्।
बिन्दु: शिवो रज: शक्तिर्बिन्दु रजो रवि:।।
(ध्यानबिंदूपनिषद-86-88)
विर्य दो प्रकार के होते है: सफ़ेद और लाल।सफ़ेद को शुक्र और लाल को महारज कहा है। रज का निवास योनि स्थान में और बिन्दु चंन्द्र स्थान में निवास करता है। दोनोंका संयोग अतिदुर्लभ माना गया है।बिन्दु शिव और रज शक्ति है; बिन्दु चंन्द्र और रज को सूर्य कहा गया है।
यदा तुरियातीतावस्था तदा सर्वेषामानन्दस्वरुपो भवति द्वन्द्वातीतो भवति।।(ध्यानबिंदुपनिषद-93-94)
जब तुरियातीतावस्था प्राप्त होती है, तब सब कुछ आनंदस्वरुप लगने लगता है और द्वन्द्वभाव समाप्त हो जाता है।

DVAYA UPANISHAD
आचिनोति हि शास्त्रार्थानाचारस्थापनादपि। स्वयमाचरते यस्तु तस्मादाचार्य उच्यते।
(द्वयोपनिषद-3)
(जो शास्त्रोंका सम्यक अर्थ करता है, और जो सदाचारकी केवल स्थापना ही नहीं करता बल्की स्वयम् उसका आचरण भी करता है, उसको आचार्य कहते है।)
गुशब्दस्त्वन्धकार: स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधक:।
अन्धकारनिरोधित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते।।
(द्वयोपनिषद-4)
(गु शब्दका अर्थ अंधकार और रु शब्दका अर्थ उस (अंधकार) का निरोधक होता है। (अज्ञानके) अंधकारको रोकनेके कारण ही (अंधकारको रोकनेवाली व्यक्तिको) गुरु कहते है।) (द्वयोपनिषद-4)

GOPALPURVATAPIN UPANISHAD
गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद
कृषिर्भूवाचक: शब्दो नश्च निर्वृतिवाचक:।
तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।।
ॐ सच्चिदानन्दरुपाय कृष्णायाक्लिष्टकर्मणे।
नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे।।
(गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद-1)
(‘कृष्’ शब्द सत्तावाचक है और ‘न’ शब्द आनंदबोधक है। उन दोनोंकी समीपता ही परब्रह्म श्रीकृष्णके नामको प्रतिपादित करती है। जो अनायास ही सब करनेको शक्तिमान है, जो वेदांतके द्वारा जानने योग्य है, जो सभीकी बुद्धिके साक्षी और समग्र विश्वके गुरु है, वह सच्चिदानंदस्वरुप भगवान श्रीकृष्णको सादर नमस्कार।)
कृष्णो वै परमं दैवतम्। गोविन्दान्मृत्युर्बिभेति। गोपीजनवल्लभज्ञानेनैतद्विज्ञातं भवति।
स्वाहेदं विश्वं संसरतीति।।
(गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद-3)
(श्रीकृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ देवता है। गोविंदसे मृत्यु भी भयभीत रहता है। गोपीजनवल्लभको जाननेसे सब अच्छी तरह जान लिया हो जाता है। उनकी स्वाहारुप मायाशक्तिसे प्रेरित यह समग्र जगत आवागमनके चक्रमें घूमाकरता है।)
क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।। (गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद-12)
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो विद्यां तस्मै गोपायति स्म कृष्ण:।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षु: शरणं व्रजेत्।। (गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद-22) (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/18)
(जो सृष्टिके आरंभमें ब्रह्माजीको प्रकट करके उनको वेदविद्याका ज्ञान प्रदान करते है, उस भगवान श्रीकृष्णके शरणमें मुमुक्षुओंको आत्म बुद्धि प्रकाशकी आकांक्षासे जाना चाहिये।)

ISHAVASYAM UPANISHAD
ॐ ईशावास्यंमिदं सवॅं यत्किंच जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनं ।(ईशावास्योपनिषद-1)
(Ishaavasyam idam sarvam yatkinchjagatyamjagat- Ishavasyopanishad-1). Whatever live or dead is visible here, in this world, is Brahm.
(यह लोकमें जो कुछभी है, वह सब ईशमय है । केवल उनके द्वारा जो त्यागा हुआ है, उसका ही उपयोग करो । लालच न करो । धन कभी किसीका हुआ है?)
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः ।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः । (ईशावास्योपनिषद-3)
(उपरोक्त अनुशासनका भंग करनेवाले जो आत्म हनन करने वाले है वे लोग है वे (मृत्युके बाद) प्रेतरुपमें गाढ अंधकारयुक्त वह असुर्या नामसे जानेजाते लोकमें जाते है।)
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।(ईशावास्योपनिषद-6)
परंतु जो (मनुष्य जड-चेतन) सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेमें ही निरंतर देखता है, और सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपनेको (देखता है); उसके पश्च्यात (वह कभी भी किसी से) अगोचर नहीं हो सकता है।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्यं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।। (ईशावास्योपनिषद-11)
(विद्या और अविद्याको दोनोंको एक साथ जानों। अविद्या (भौतिक ज्ञान) द्वारा मृत्युको पार करके, विद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) द्वारा अमरत्वकी प्राप्ति हो सकती है।)
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। (इशावास्योपनिषद-15) (ब़ह्दारण्यकोपनिषद-5/15/1)
(सत्यका मुख सुवर्ण पात्रसे ढंका हुआ है। )
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।। (ईशावास्योपनिषद-18)
(हे अग्ने (यज्ञ प्रभु) आप हमें श्रेष्ठ मार्गसे ऐश्वर्यकी और ले जाइये। हे विश्वके अधिष्ठाता देव! आप कर्म मार्गोंके श्रेष्ठ ज्ञाता है। हमें कुटिल पापकर्मोंसे बचाइए। हम बारं-बार नमन करके आपसे विनंति कर रहे है।)

JABAL DARSHANA UPANISHAD
આ ઉપનિષદ મા, ભગવાન દત્તાત્રેય પોતાના શિષ્ય સાંકૃતિ ને જીવન મુક્તિ ના સાધન એવા અષ્ટાંગ યોગનો બોધ આપેછે.
आत्मन्यनात्मभावेन व्यवहारविवर्जितम्।
यत्तदस्तेयमित्युक्तमात्मविद्भिर्महामुने।। (जाबालदर्शनोपनिषद1/12)
(हे मुनि!! इस संसारके समस्त व्यवहारमें अनात्मबुद्धि रखकर, आत्मासे उसको दूर रखनेका जो भाव है, उसको ही आत्मज्ञानी लोग “अस्तेय” कहते है)
स्वात्मवत्सर्वभूतेषु कायेन मनसा गिरा सा दया। (जाबालदर्शनोपनिषद1/15)
(तमाम भूत प्राणीओंको शरीर, मन और वचनसे अपने समान मानना दया है।)
पुत्रे मित्रे कलत्रे च रिपौ स्वात्मनि संततम्।एकरुपं यत्तदार्जविमित्युक्तम्। (जाबालदर्शनोपनिषद1/16)
(पुत्र, मित्र, स्त्री और अपनेमें भी हंमेशा मनका समान भावको आर्जव (सरलता) कहते है।)
वेदादेव विनिर्मोक्ष: संसारस्य न चान्यथा। (जाबालदर्शनोपनिषद1/18)
(वेदज्ञानसेही संसारका संपूर्ण मोक्ष होता है, अन्यथा कीसीसे नहीं।)
अत्यन्त मलिनो देहो देही चात्यन्त निर्मल:।
(जाबालदर्शनोपनिषद-1/21)
(देह अत्यन्त मलिन है और आत्मा अत्यन्त निर्मल है।)
न चास्ति किंचित्कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्त्ववित्।।
(जाबालदर्शनोपनिषद-1/23)
(ब्रह्मज्ञानीको इस जगतमें कुछभी कर्तव्य बाक़ी नहीं है। अगर बाक़ी है तो वह ब्रह्मज्ञानी नहीं है।)
रागाद्यपेतं ह्रदयं वागदुष्टानृतादिना।
हिंसादिरहितं कर्म यत्तदीश्वरपूजनम्।। (जाबालदर्शनोपनिषद-2/8)
(राग आदि विकारोंसे मुक्त ह्रदय, असत्य आदि दोषोंसे पर वाणी और हिंसा आदि दोषोंसे मुक्त कर्म ही ईश्वर-पूजन है।)
अष्टप्रकृतिरुपा सा कुण्डली मुनिसत्तम।। (जाबालदर्शनोपनिषद4/11)
(हे मुनि कुंडलिनीको अष्ट प्रकृति रुपा (पृथ्वी, जल, तेज़, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार युक्त) कही जाती है।)
सुषुम्नाया इड़ा सव्ये दक्षिणे पिंगला स्थिता। (जाबालदर्शनोपनिषद-4/13)
(सुषुम्नाके बांये भागमें इड़ा और दाहिने भागमें पिंगला रही हुइ है।)
सुषुम्नाया: शिवो देव उड़ाया देवता हरि: पिंगलाया विरंचि। (जाबालदर्शनोपनिषद-4/36)
शिवमात्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिन:।
अज्ञानां भावनार्थाय प्रतिमापरिकल्पिता ।। (जाबालदशॅनोपनिषद4/59)
“Men with wisdom see God in themselves, and not in the idols. The idols are imagined just to shelter the sentiments of ignorant people”.
आत्मस्वरुपविज्ञानादज्ञानस्य परिक्षय:। क्षीणेऽज्ञाने महाप्राज्ञ रागीदीनां परिक्षय:।। रागाद्यसंभवे प्राज्ञ पुण्यपापविमर्दनम्। तयोर्नाशे शरीरेण न पुन: संप्रयुज्यते।। (जाबालदर्शनोपनिषद-6/50-51)
(आत्मस्वरुपके सम्यक् ज्ञान हो जानेसे, अज्ञानका नाश हो जाता है। हे महा प्राज्ञ! अज्ञान नष्ट होनेसे राग द्वेष आदिका भी विनाश हो जाता है। हे प्राज्ञ! रागादि विषयों न रहनेसे पाप-पुण्यका भी विलय हो जाता है।और पाप-पुण्य न रहनेसे (ऐसे ज्ञानीको) फिर शरीरसे नहीं जोड़ा जा सकता।)
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु स्वभावत:। बलादाहरणं तेषां प्रत्याहार: स उच्यते। यत्पश्यति तु तत्सर्वं ब्रह्म पश्यन्समाहित:।। प्रत्याहारो भवेदेष ब्रह्मविद्भि: पुरोदित:। (जाबालदर्शनोपनिषद7/1-3)
(विषय भोगोंमें स्वभाववश विचरने वाली सभी इन्द्रियोंको वहाँसे बलपूर्वक पुन: खिंचनेका जो प्रयास है, उसको प्रत्याहार कहा जाता है। मनुष्य जो कंई दिखता है वह सब ब्रह्म ही है, इस तरह जानकर उस ब्रह्ममें चित्त एकाग्र करना हि प्रत्याहार है, ऐसा ब्रह्मवेत्ता कहते है।)
अहमस्मीत्यभिध्यायेयातीतं विमुक्तये।। (जाबालदर्शनोपनिषद9/5)
((परमात्मा) मैं स्वयम् ही हूँ , इसतरह किया हुआ ध्यान मोक्ष प्राप्त करानेवाला है।)
समाधि: संविदुत्पत्ति: परजीवैकतां प्रति।। (जाबालदर्शनोपनिषद10/1)
(परमात्मा और जीवात्मा एक हि है ऐसे प्रज्ञानका निरंतर रहना हि समाधि है।)
नित्य: सर्वगतो ह्यात्मा कूटस्थो दोषवर्जित:।
एक: संभिद्यते भ्रान्त्या मायया न स्वरुपत:।। (जाबालदर्शनोपनिषद-10/2)
(आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल और सर्वदोषरहित ही है। एकही है फीरभी माया द्वारा उत्पन्न भ्रमके कारण अलग-अलग दिखते है, वास्तवमें अलग-अलग नहीं है।) (जाबालदर्शनोपनिषद-10/2)
(Atmaa is eternal, omnipresent, changeless and with the exception of any defects. In reality it is one alone and not individual; but sounds individual because of confusion born out of illusion.) (Jabaldarshana Upanishad-10/2)
तस्मादद्वैतमेवास्ति न प्रपंचो न संसृति:।
इसलिए केवल अद्वैतरुप (परमात्मा) ही यहाँ है, प्रपंच या संसार जैसा कुछ भी नहीं है।
यथा फेनतरंगादि समुद्रादुत्थितं पुन: समुद्रे लीयते। तद्वज्जगन्मय्यनुलीयते।। (जाबालदर्शनोपनिषद10/6)
(जैसे समुद्रसे उत्पन्न फिण और लहरें वापस समुद्रमें विलीन हो जाते है, वैसे ही जगत (मेरेमेंसे उत्पन्न होकर) मेरेमें ही विलीन हो जाता है।)
यदा सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येव हि पश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ब्रह्म संपद्यते तदा।। (जाबालदर्शनोपनिषद10/10)
जब (योगी) सब प्राणिओंको अपनेमें देखता है और अपनेको सब प्राणिओंमें देखता है, तब वह स्वयं ब्रह्म ही बन जाता है।)

JABALA UPANISHAD
सोअविमुक्त ज्ञानमाचष्टे यो वै तदेतदेवं वेदेति।(जाबालोपनिषद-2/2
(जीसने अविमुक्तका ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वही यह अात्मा-देवके विषयमें उपदेश दे शकते है))

JABALI UPANISHAD
पशुपतिरहंकाराविष्ट: संसारी जीव: स एव पशु:।
(जाबाल्युपनिषद-11)
( पशुपति स्वयम् अहंकारयुक्त हो जानेसे संसारी जीव हो जाता है, वही पशु भी है।)

KALISANTARN UPANISHAD
द्वापरान्ते नारदो ब्रह्माणं जगाम कथं भगवन् गां पर्यटन्कलिं संतरेयमिति। स होवाच।
भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निर्धूतकलिर्भवति। (कलिसंतरणोपनिषद-1)
द्वापरयुगके अंतिम समयमें एकबार देवर्षि नारदजीने ब्रह्माजीको पूछा कि “हे भगवन पृथ्विलोकमें भ्रमन करता मैं कलियुगसे कैसे मूक्ति पा शकता हूँ” ? ब्रह्माजीने कहा: “भगवान आदिपुरुष श्रीनारायणके मात्र नामोच्चारसे ही (मनुष्य) कलियुगके सभी दोषोंसे मूक्त हो जाता है”।)

KATHOPANISHAD
सस्यमिव मर्त्य: पच्यते सस्यमिवाजायते पुन:।। (कठोपनिषद-1/1/6)
(मरणधर्मा मनुष्य फसलके समान पकता है (वृद्ध होकरमृत्युको प्राप्त होता है) और पुन: कालक्रमानुसार फसलके समान उत्पन्न होता है)
अग्निं विद्धि त्वमेतन्निहितं गुहायाम्।। (कठोपनिषद-1/1/14)
((नचिकेत संसारकी आधाररुप) इस अग्निको तुम गुफ़ामें (गुप्त) रही हुइ समजो)
चित्तका स्थान नाभी है। नाभीको गुफ़ाभी कहा जाता है। कुंडलीनीका स्थान भी नाभी कहा जाता है जो विश्वउर्जा का रुप कही जाती है। यहाँ यम नचिकेतको यह कुंडलिनी विद्या दे रहे है।
न वित्तेन तपॅणियो मनुष्यो ।(कठोपनिषद-1/1/27)
(मनुष्य कभीभी वित्तसे संतुष्ट नहीं होता । )
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ संपरीत्य विविनक्ति धीर:।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणिते प्रेयो मन्दोयोगक्षेमादवृणिते।। (कठोपनिषद-1/2/2)
(श्रेय (मार्ग) और प्रेय (मार्ग) दोनों मार्ग मनुष्यके सामने क़रीब एक साथ ही उपस्थित होतेहै। विवेकी मनुष्य ही दोनोंके भेदको समज लेता है। विवेकी जन ही प्रेय (मार्ग) से श्रेय (मार्ग) को कल्याणकारी समजकर पसंद कर लेता है, जबकी मंदमती योग़क्षेमकी लालसासे प्रेयमार्गको ही पसंद कर पाता है।) (कठोपनिषद-1/2/2)
[Both the Righteous (Path) and the Pleasant (Path) present themselves almost simultaneously to a man. The Enlightened examines them well and discriminates good and evil (among both). The Enlightened man selects the Righteous (Path) over the Pleasant (Path); but the idiot selects the Pleasant (Path) for procuring sustenances.](Katha Upanishad-1/2/2)
अविद्यायामन्तरे वतॅमाना: स्वयं धीरा: पण्डितं मन्यमाना:।
दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढा अंधेनैव नीयमाना यथान्धा:।।(कठोपनिषद-1/2/5)(मुंडकोपनिषद-1/2/8).
(अविद्यारुप अंधकारमें रहते हुए भी, अपनेको ज्ञानी और पंडित समजने वाले मूढ़ों, ठीक वैसे ही अनेक ठोकरों खाते हुए भटकते फिरते है; जैसे अंधों मनुष्यों के द्वारा चलाये जानेवाले अंधे।)(कठोपनिषद-1/2/5) (मुंडकोपनिषद-1/2/8).
(The idiots, even though they are staying in the darkness of the Ignorance, yet believing themselves to be wise and erudite, are peregrinating and repeatedly stumbling exactly likewise the blinds that are being lead by the blind leaders).
(Katha Upanishad-1/2/5). (Mundaka Upanishad-1/2/8)
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनवॅशमापद्यतेमे। (कठोपनिषद-1/2/6)
(यह लोक ही है, पर लोक नहीं है, ऐसा जो मानता है, वह वारंवार मेरे पाशमें आता है।) यमराजा
न ह्यध्रृवै: प्राप्यते हि ध्रुवं तत्। (कठोपनिषद-1/2/10)
(नश्वर साधनोसे उस अनश्वर (परमात्मा) का साक्षात्कार नहि हो सकता) (कठोपनिषद-1/2/10).
(What is eternal (Parmatma) that can’t be realized by the ephemeral applications). (Katha Upanishad-1/2/10.).
स मोदते मोदनीयंहि लब्धवा। (कठोपनिषद-1/2/13) (वे आनंदस्वरुप परमात्माको प्राप्त करके आनंदमें लीन हो जाते है।)
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च तद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचयँ चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेणब्रवीम्योमित्येतत्।। (कठोपनिषद-1/2/15)
(सवॅ वेदों जीस पदका वारंवार वणॅन करते है, सवॅ तपों जीसकी प्राप्तिकेसाधन है, जीसकी प्राप्तिकी इच्छाके लिये ब्रह्मचयॅका पालन करा जाता है, वह मैं पद टूंकमें कहता हुँ। ॐ ही वह पद है) (कठोपनिषद)
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।। (कठोपनिषद-1/2/16)
(यह ॐ अक्षर ही ब्रह्म है, यह ॐ अक्षर ही परम है, यह ॐ अक्षरको जान लेनेसे वह जो इच्छता है, उनका वो हो जाता है।)
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैव आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।। (कठोपनिषद-1/2/23) (मुंडकोपनिषद-3/2/3)
(यह परमात्मा नतो धर्मोपदेश करनेसे, नहीं बुद्धिसे और नहीं वेदों के ज्ञान को बहुत सुनने से भी प्राप्त होनेवाला है। केवल जिसको परमात्मा ने चयनित किया है, वह हि परमात्मा को प्राप्त करने के योग्य बनता है; क्योंकि परमात्मा खुद हि उनके सामने अपने स्वरुपको प्रकट कर देते है।) (कठोपनिषद-1/2/23) (मुंडकोपनिषद-3/2/3)
(This Parmatma is neither obtainable by spiritual preaching, nor by intellect and nor by severely listening to the knowledge of Vedas. Only the one who has been selected by Parmatma, becomes capable of obtaining Parmatma; because Parmatma Himself unsheathes His own form before that person). (Katha Upanishad-1/2/23) (Mundaka Upanishad-3/2/3).
यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवत: औदन:।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र स:।।
(ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों जिसका आहार हो जाते है, स्वयं मृत्युतो उस(ब्रह्म )का चटनी जैसा व्यंजन है, उसको जाननेवाला यहाँ कौन है?)
मृत्यु: यस्य उपसेचनम्। (कठोपनिषद-1/2/25)
मृत्युर्यस्योपसेचनम्।
(मृत्युतो उस(ब्रह्म )का चटनी जैसा व्यंजन है । )
या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तिं या भूतेभिर्व्यजायत, एतद्वै तत्।। (कठोपनिषद2/1/7)
(जो प्राणसे उत्तपन्न हुई है, जो भूतोंके साथ ही उत्तपन्न हुई है, वह देव क्षमता संपन्न अखंडचेतना सभीकी गुफ़ामें प्रवेश करके रहती है, वही उस (परमात्मा) है।)
आत्मानं रथिनं विद्धि शरिरं रथमेव च।
बुद्धिं तु सारथि विद्धि मन: प्रग्रहमेव च ।। (कठोपनिषद-1/3/3) (पेंगलोपनिषद)
तस्माद्भूयो न जायते। (कठोपनिषद-1/3/8)
(जहाँ जानेसे फिर पुन: जन्म नहीं होता)
महत: परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुष: पर: ।
पुरुषान्न परं किचिंत्सा काष्ठा सा परा गति:।। (कठोपनिषद-1/3/11)
(बुद्धिसे प्रकृति श्रेष्ठ है, प्रकृतिसे परमात्मा श्रेष्ठ है और परमात्मासे श्रेष्ठ कुछभी नहीं है। वह सबकी पराकाष्ठा और परमगति है।)
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:।। (कठोपनिषद-1/3/12)
(संपूर्ण भूतोंमें छीपा यह परमात्मा दृष्यमान नहीं होता। यह तो सूक्ष्मदर्शि पुरुषों द्वारा अपनी सूक्ष्म बुद्धिसे ही देखा जाता है।)
परांचि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्परांपश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धिर: प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।। (कठोपनिषद-2/1/1)
(स्वयंभू परमात्माने सभी इन्द्रियोंके द्वार बहिर्मुख करके बनाये है, इसलिये (मनुष्य स्वाभाविकरुपसे) बाहर ही देखता है, अंतरात्माको नहीं। अमृतत्व पानेकी आकांक्षासे जीस धीर पुरुषने अपनी इन्द्रियोंको बाहर देखने से रोक लिया है, उसने ही प्रत्यगात्माको देखा है।)(कठोपनिषद-2/1/1).
(Self Existent Parmatma has made the openings of sense organs outwardly, therefore (man naturally) observes outwardly only and not the inner Atmaa. A rare man having the Knowledge of Discernment, who has obstructed his sense organs from looking outwardly with a view to attaining immortality, that alone has realized Parmatma)(Katha Upanishad-2/1/1).
यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्यो: स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।।(कठोपनिषद-2/1/10)
इह तत् एव अमुत्र यत् अमुत्र तत् अनु इह
जो (ब्रह्म) यहाँ है, वही वहाँ (परलोकमें) भी है, जो (वहाँ है, वही यहाँ (इस लोकमें) भी है। वह वारंवार मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है, जो यहाँ (ब्रह्मको) अनेकरुप समजता है।)
नेह नानास्ति किंचन। (कठोपनिषद-2/1/11)
(जगतमें ब्रह्मके सिवाय कुछभी नहीं है।)
यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।
एवं धर्मान्पृथक्पश्यंस्तानेवानुविधावति।।(कठोपनिषद-2/1/14)
(जैसे शिखरों के पर वर्षा हुआ पानी पर्वतों में चारों ओर बह (कर नष्ट हो) जाता है, वैसे ही धर्मों को अलग अलग समजता हुआ (मनुष्य) उसी तरह चारों ओर भटक (कर नष्ट हो) जाता है।)
योनिमध्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिन:।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथा श्रुतम्।। (कठोपनिषद-2/2/7)
(આ ત્રીજા પ્રશ્નનો ઉત્તર છે.)
(अपने कर्म और ज्ञानके अनुसार कितने ही जीव तो देह धारण करने लिये अलग अलग योनीको प्राप्त होते है, और कितने ही स्थावरभावको प्राप्त हो जाते है।)
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रुपं रुपं प्रतिरुपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रुपं रुपं प्रतिरुपो बहिश्च।। (कठोपनिषद-2/2/9)
(जैसे एक ही अग्नि (प्रकृतिकी अलग अलग) कृतिमें प्रवेश करके उस कृतिके रुपका ही हो जाता है, वैसे ही समस्त प्राणिओंके अंदर एक ही आत्मा उस प्राणीओंके अनुरुप हो जाता है।)
(As fire which is one, on entering creation, conforms its own form to the form of each being; so also one Atma, while dwelling in all beings, assumes their forms. It dwells outside them also.)
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रुपं रुपं प्रतिरुपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रुपं रुपं प्रतिरुपो बहिश्च।। (कठोपनिषद-2/2/9)
(जैसे एक ही वायु (प्रकृतिकी अलग अलग) कृतिमें प्रवेश करके उस कृतिके रुपका ही हो जाता है, वैसे ही समस्त प्राणिओंके अंदर एक ही आत्मा उस प्राणीओंके अनुरुप हो जाता है।)
(As air which is one, on entering creation, conforms its own form to the form of each being; so also one Atma, while dwelling in all beings, assumes their forms. It dwells outside them also.)
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रुपं रुपं प्रतिरुपो बहिश्च।। (कठोपनिषद-2/2/10)
(समस्त प्राणिओंमें विद्यमान परमात्मा एकही होनेपर भी विभिन्न रुपों वाले दिखते है, बहार भी वही है।)
मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यौ: स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति।।
(बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/19)
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यौ: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
(कठोपनिषद-2/1/11)
((ब्रह्म एक ही यहाँ है), यहाँ अलग-अलग जैसा कुछभी नहीं है, (प्रगमनशील हुए) मनसे ही यह तत्त्व प्राप्त करने योग्य है। जो मनुष्य यहाँ अलग-अलगसा दिखता है, वह मृत्युसे मृत्युको ही प्राप्त होता रहता है।) (बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/19)(कठोपनिषद-2/1/11)
[(Parmatma alone is here), there is nothing like diversity here, this has to be realized by a Mind (that is made an excellent). Whoever is understanding that there prevails diversity here, ensures from death to death for himself] (Brihdaranyaka Upanishad-4/4/19) (Katha Upanishad-2/1/11).
यो विदधाति कामान्। (कठोपनिषद-2/2/13) (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/13)
(जो (परमात्मा समस्त जीवोंको) कर्मानुसार फल देनेवाला है।)
तस्य भासा सवॅमिदं विभाति। (कठोपनिषद-2/2/15) (मुंडकोपनिषद)
(उसके प्रकाशने से ही यह समस्त जगत प्रकाशमान दिखता है।)
ऊर्ध्वमूलोऽवाकशाख एषोऽश्वत्थ: सनातन:। (कठोपनिषद-2/3/1)
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य:।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचम:।। (कठोपनिषद-2/3/3)
भीषाअस्माद्वातः पवते । भीषोदेति सूयॅ।भीषाअस्मादग्निश्चेन्द्रश्च। मृत्युर्धावति पंचम इति।
(तैत्तिरीयोपनिषद-2/8/1)
(वह परमात्माके भयसे वायु वाता है, उसके भयसे सूयॅ उगता है, और उसके भयसे ही अग्नि, इंन्द्र और पांचवा मृत्यु दोडता है ।)
न चक्षुसा पश्यति कश्चनैनम्। (कठोपनिषद-2/3/9) (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/20) (अांखसे कोइ उसे देख नहि शकता)
(Na chakshusa pasyati kaschaneinam-Kathopanishad-2/3/9)(None can see That(Brahman) with eyes).
यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहु: परमां गतिम्।। (कठोपनिषद-2/3/10)(આનેજ યોગ કહ્યો છે.)
(जब मनके साथ पाँचो ज्ञानेन्द्रिय (आत्मतत्वमें) स्थिर हो जाती है, और बुद्धिभी चेष्टा रहित हो जाती है, तब वह परम स्थिति कहलाती है।)
तां योगमिति मन्यन्ते।।(कठोपनिषद-2/3/11)
(इसको ही योग माना गया है।)

KAUSHHITAKIBRAHMNA UPANISHAD
स होवाच ये वै के चास्माल्लोकात्प्रयन्ति चन्द्रमसमेव ते सर्वे गच्छन्ति। तेषां प्राणै: पूर्वपक्ष आप्यायते। अथारपक्षे न प्रजनयति। (कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-1/2)
(उस (गर्गना प्रपौत्र महर्षि चित्रने श्वेतकेतुके पिता और आरुणके पुत्र महात्मा उदालक (गौतम, आरुणि)को) कहा हे ब्रह्मन! जो कोई (अग्नि होत्रादि सत्कार्योंका अनुष्ठान करने वाले सब) लोगों, जब इस लोकमेंसे प्रयाण करते है, तो वै चन्द्रलोक ( स्वर्गलोक)में जाते है। पूर्वपक्ष (पुण्य बाक़ी होता है तब) तक वे प्राणोंके द्वारा वहाँके भोग पदार्थोंका सेवन करते है। दूसरे पक्षमें (अर्थात् पहेलेके पुण्यों क्षीण होते हि चन्द्रलोक उसको) तृप्ति प्रदान नहीं कर सकता (तब वहाँसे गीरा देते है)
इह वृष्टर्भूत्वा वर्षति स इह कीटो वा पतंगो वाशकुनिर्वा शार्दूलो वा सिंहो वा मत्स्यो वा परश्वा वा पुरुषो वान्यो वैतेषु स्थानेषु प्रत्याजायते यथाकर्म यथाविद्यम्।
(कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-1/3)
(इस लोकमें उन (सूक्ष्म जीव) को वर्षाके रुपमें बरसा देते है। यहाँ वह जीव अपने कर्म और विद्या और वासनाके अनुसार कीट, पतंगा, पक्षी, वाघ, सिंह, मछली, साँप, मनुष्य, अथवा अन्य कोइ योनीका शरीर प्राप्त करके कर्मानुसार स्थानमें रहता है।)
तत्सुकृतदुष्कृते धुनुते। तस्य प्रिया ज्ञातय: सुकृतमुपयन्त्यप्रिया दुष्कृतम्।
(कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-1/4)
((ब्रह्मज्ञानी विरजा नदीको पाप करके) वहाँ वह ब्रह्मज्ञानी सब पुण्य और पापको छोड़ देता है। (उस ब्रह्मज्ञानीके) जो प्रिय कुटंबीजन है उनको पुण्य कर्म प्राप्त होते है, और जो उनका द्वेष करनेवाले है, उनको पाप उठाने पड़ते है।)
तद्यथा रथेन धावयन्रथचक्रे पर्यवेक्षत, एवमहोरात्रे पर्यवेक्षत एवं सर्वाणि च द्वन्द्वानि स एष ब्रह्म विद्वान्ब्रह्मैवाभिप्रैति।।(कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-1/4)
जिस तरह रथसे यात्रा करनार को, (रथके पैडेका ज़मीन से होता संयोग वियोग) दृष्टा होनेके कारण (अपना संयोग वियोग नहीं लगता वैसे ही) दिवस रात और अन्य सभी द्वन्द्वोका दृष्टा होनेके कारण ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म को ही प्राप्त होते है।
वै प्राणा: एकैकमेतानि सर्वाण्येव प्रज्ञापयन्ति। (कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-3/2)
(वे सब प्राण क्रमश: एक-एक विषयकी अनुभूति करते है।)
यो वै प्राण: सा प्रज्ञा या वा प्रज्ञा स प्राण:। (कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-3/3)
((क्रियाशक्तिका ज्ञान जिससे होता है) वह जो प्राण है, वहि (ज्ञानका बोध जिससे होता है वह) प्रज्ञा है, और जो प्रज्ञा है वहि प्राण है।)
न हि प्रज्ञापेता धी: काचन सिद्धयेन्न प्रज्ञातव्यं प्रज्ञायेत।।(कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-3/7)
कोई भी बुद्धिवृत्ति प्रज्ञा से पृथक होनेपर नहीं सिद्ध हो सकती, उसके द्वारा ज्ञातव्य वस्तुका बोध भी नहीं हो सकता।
स एष प्राण एव प्रज्ञात्मानन्दोऽजरोऽमृत:। स मआत्मेति विद्यात्।।(कौषीतकिब्राह्मणोपनिषद-3/9)
(यह जो प्राण है वही प्रज्ञात्मा, आनंदस्वरुप, अजर-अमर है। यह प्राण को हि आत्मा है, ऐसा समजना चाहिये।)

KEVALYA UPANISHAD
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
संप्रश्यन्ब्रह्म परमं याति नान्येन हेतुना।। (कैवल्योपनिषद-10)
(जब सब प्राणिओंमें रहे हुए आत्माको मनुष्य समभावसे देखता है और अपनेको सब प्राणिओंमें देखता है, तब वह परब्रह्मको प्राप्त हो जाता है; अन्य कोइ उपायसे नहीं।)
स्त्रियन्नपानादिविचित्रभोगै: स एव जाग्रत्परितृप्तिमेति।
स्वप्ने स जीव: सुखदु:खभोक्ता स्वमायया कल्पितजीवलोके।
सुषुप्तिकाले सकले विलिने तमोऽभिभूत: सुखरुपमेति।। (कैवल्योपनिषद-12-13)
(जीव जाग्रतावस्थामें स्त्रि, अन्नपान, विगेरे विविध भोगोंको भोगके तृप्त होता है। स्वप्नावस्थामें वह जीव अपनी माया द्वारा कल्पित सब प्रकारके सुख-दु:ख जीवलोकमें भोगता है। तथा सुषुप्तिकालमें (जब माया द्वारा रचे गये सब प्रपंचो) विलिन हो जाते है; (तब वह जीव) तमोगुणरुप सुखस्वरुपको प्राप्त होता है)
तत्त्वमेव त्वमेव तत्। (कैवल्योपनिषद-16)
((वह ब्रह्म) तत्त्व तुम हो, तुम वह हो।)

KEN UPANISHAD
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
(केनोपनिषद-1/4)
(जो वाणिसे प्रकाशित नहीं है, किन्तु जिससे वाणि प्रकाशित होती है, उसीको तू ब्रह्म जान, जिस इस (देशकालावच्छिन्न वस्तु) की लोक उपासना करते है वह ब्रह्म नहीं है।)
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राण: प्रणियते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। (केनोपनिषद-1/8)
जिसको प्राणके द्वारा सजीवन नहीं किया जाता है, लेकिन जिससे प्राण उपजते है; उसीको तू ब्रह्म जान।जिस इस (देशकालावच्छिन्न वस्तु) की लोक उपासना करते है वह ब्रह्म नहीं है।)
यदि मन्यसे सुवेदेति दभ्रमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रुपम्। (केनोपनिषद-2/1)
((आचार्य शिष्यको कहते है)अगर आपकी मान्यता है की मैंने ब्रह्मको अच्छी तरहसे जान लिया है , तो निश्चितही आपने ब्रह्मकाअल्प अंश ही जानाहै।)
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च।। (केनोपनिषद-2/2)
((शिष्य उत्तर देता है:(ब्रह्मको पूर्णतया जान लिया है, ऐसा मैं मानता नहीं हुँ और ऐसा भी नहीं मानता कि नहीं जानता, क्योंकि जानता भी हुँ।हम शिष्योंमेंसे जो उसे ‘न तो नहीं जानता हुँ और जानता ही हुँ’ इस प्रकार जानता है वही जानता है)
यस्यामतं तस्यमतं मतं यस्य न वेद स:।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।।
(केनोपनिषद-2/3)
[(ब्रह्म जाना जा सकता) नहीं है (ऐसा) मत जिसका है, (यह) उस (ज्ञानी) का मत है।(ब्रह्म जाना जा सकता है ऐसा) मत जिसका है, वह अज्ञानी है।ज्ञानीओं का (ब्रह्म उससे जो) अज्ञात (रह गया वह) होता है और अज्ञानी का (ब्रह्म मन, बुद्धि, शरीर जो उसे) ज्ञात (लगता है वह) होता है।] (केनोपनिषद-2/3)
[Whose supposition is (that Parmatma could) not (be known), is supposition that of (sapient). Whose supposition is (that Parmatma can be known), that is ignorant. (Parmatma) for sapient happens to be (what remains) unknown (to them) and (Parmatma) for ignorant happens to be (mind, intellect, body that sounds) known (to him.)
(Kena Upanishad-2/3).
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते।(केनोपनिषद-2/4)
(बोध प्रतीति (ऐसा बोध जिसके द्वारा प्रत्येक वस्तुका ज्ञान प्राप्त हो जाता है उसके) द्वारा मनुष्य (अमृत स्वरुप) ब्रह्मको हि प्राप्त कर लेता है।)
तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा। (केनोपनिषद-4/4)
(ब्रह्मकी उपस्थितिका संकेत विद्युतके चमकारा जैसा होता है।)

KSHURIKA UPANISHAD
इड़ा तिष्ठति वामेन पिंगला दक्षिणेन च।।
तयोर्मध्ये वरं स्थानं यस्तं वेद स वेदवित्। (क्षुरिकोपनिषद-16)
(इड़ाका निवास बाँयी और है, पिंगलाका दाहिनी और होता है। उसके बिचमें परम स्थान है, उसको जो जानता है, वही वेद यानी ज्ञानको जानने वाला है।)
यथा निर्वाणकाले तु दिपो दग्ध्वा लयं व्रजेत।
तथा सर्वाणि कर्माणि योगी दग्ध्वा लयं व्रजेत।। (क्षुरिकोपनिषद-23)
(जैसे निर्वाणकालमें ( बूझनेके वक़्त) दीप ज्योति (दिपककी बाट और तैल) सबको जलाकर स्वयं परम प्रकाशमें लीन हो जाती है, वैसे ही योगी अपने सभी कर्मोंको भस्म करके परमात्मामें लीन हो जाता है।)
अमृतत्वं समाप्नोति यदा कामात्प्रमुच्यते। (क्षुरिकोपनिषद-25)

MAHA UPANISHAD
स एकाकी न रमते। (महोपनिषद-1/3)
(उस (ब्रह्म) को (यहाँ) अकेला (होना) पसंद न आया।)
संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं मुने। कथं च प्रशमं याति। (महोपनिषद-2/15)
(शुकदेवजी व्यास भगवान से पूछते है की हे मुनी! यह जगतरुपी प्रपंचका प्रगट्य कैसे हुआ और यह कैसे नाश हो जाता है?।)
संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं गुरो। कथं च प्रशममायाति। (महोपनिषद-2/30)
(शुकदेवजी जनक राजा से पूछते है की हे गुरुवर्य! यह जगतरुपी प्रपंचका प्रगट्य कैसे हुआ और यह कैसे नाश हो जाता है?।)
मनोविकल्पसंजातं तद्विकल्पपरिक्षयात् क्षीयते संसारो। (महोपनिषद-2/34)
(मनके विकल्पमेंसे संसारिक प्रपंचका प्रादुर्भाव होता है, और विकल्पका नाश होते ही इस प्रपंचका भी नाश हो जाता है।)
भोगा इह न रोचन्ते स जीवन्मुक्त उच्यते । (महोपनिषद-2/42)
(जिनको यहाँ विषयभोग पसंद न होने का स्वभाव बन गया है, वह जीवनमुक्त कहलाता है।)(महोपनिषद-2/42).
(Jivanmukta is one whose temperament has become to be that of not liking the lusts here) (Maha Upanishad-2/42).
भुंक्ते य: प्रकृतान्भोगान्स जीवनमुक्त उच्यते।।
(महोपनिषद-2/60)
(जो भोगोंको (मनसे नहीं लेकिन इन्द्रियदि शरीर रुप) प्रकृतिसे भोक्ता है, उसे जीवनमुक्त कहते है।)
जायते म्रृतये लोको म्रियते जननाय च। (महोपनिषद-3/4).
(लोगों मरने के लिये जन्मते है और जन्मनेके लिये मरते है।) (महोपनिषद-3/4).
(The people take birth just to die only and they die just to take birth only.).
(Maha Upanishad-3/4).
प्राप्यं संप्राप्यते येन भूयो येन न शोच्यते। पराया निवृते: स्थानं तज्जीवितमुच्यते। (महोपनिषद-3/12)
(जीससे प्राप्य करने योग्यकी प्राप्ति हो जाती है, जीससे शोककी निवृत्ति होती है, और जीससे परम शान्तिकी उपलब्धि होती है वही वास्तवमें जीवन है।)
जन्तव: साधुजिविता: ये पुनर्नेह जायन्ते शेषा जरठगर्दभा:। (महोपनिषद-3/14)
(वह ही प्राणी सही अर्थमें जीवित है जो पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता, बाक़ी सब तो वृद्ध होते हुए गधे जैसे है।)
भारो विवेकिन: शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिण:
अशांतस्य मनो भारो भारोअनात्मविदो वपु: । (महोपनिषद-3/15)
(जो विवेकी है उनको शास्त्र भाररुप है, रागी पुरुषके लिये ज्ञान भाररुप है। अशांत पुरुषके लिये मन भाररुप है ओर जिसको आत्मज्ञान नहीं हुआ उनके लिये शरीर भाररुप है।)
जन्मान्तरन्धा विषया एकजन्महरं विषम्। (महोपनिषद-3/55)
(झहर एकही जन्मका नाश करता है, विषयासक्त तोजन्मजन्मान्तरका नाश करता है।)
मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वार: परिकीर्तिता:।
शमो विचार: संतोषश्चतुर्थ: साधुसंगम:।। (महोपनिषद-4/2)
निरिच्छे संस्थिते रत्ने यथा लोक: प्रवर्तते।
सत्तामात्रे परे तत्त्वे तथैवायं जगद्गण:।। (महोपनिषद-4/13)
(जैसे इच्छारहित पड़े रहनेपर भी लोग रत्नकी और सहजरुपसे आकर्शित होते है, वैसे ही सत्तामात्ररुप विद्यमान परम तत्त्व प्रति जगत आकर्शित होता है।)
द्रष्टव्यः सवॅसंहर्ता न मृत्युरवहेलया । (महोपनिषद-4/22)
(सवॅनो संहारक मृत्युने जोया पछी तेनी उपेक्षा करवीजोइए नहिं । )
ऋतमात्मा परं ब्रह्म सत्यमित्यादिका बुद्धै:। कल्पिता व्यवहारार्थं यस्य संज्ञा महात्मन:। (महोपनिषद-4/45)
(ऋत, आत्मा, परपब्रह्म, सत्य, वगेरे आत्माकी संज्ञायें व्यवहारके लिये महात्माओं द्वारा कल्पित है।)
यतो वाचो निवर्तन्ते यो मुक्तैरवगम्यते। यस्य चात्मादिका: संज्ञा: कल्पिता न स्वभावगत:।। (महोपनिषद-4/57)
(जहाँसे वाणि परत होती है, जीसको मूक्त पुरुष द्वाराही जाना जा सकता है; जीसकी आत्मा वग़ैरह संज्ञायें कल्पनामात्र है, वास्तविक नहीं है,(वो ही अविनाशी ब्रह्म कहलाता है))
कल्पं क्षणीकरोत्यन्त: क्षणं नयति कल्पताम्।
मनोविलाससंसार इति मे निश्चिता मति:।।
(महोपनिषद-4/68)
(यह मन ही कल्पको क्षण बना देता है, और क्षणमें कल्पत्व भर देता है। मेरा (ऋषि ऋभु पुत्र निदाधको कहते है) मत है कि जगत केवल मनोविलास ही है।)
द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च।
ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते।। (महोपनिषद-4/72)
तस्मान्मुमुक्षुभिर्नैव मतिर्जीवेशवादयो:।
कार्या किंतु ब्रह्मतत्त्वं निश्चलेन विचार्यताम्।। (महोपनिषद-4/75)
(अत: जो पुरुष मोक्षकी आकांक्षा रखता है, वह जीव-ईश्वरके विवादमें अपनी बुद्धिको भ्रमित न करते हुए द्रढतासे ब्रह्मतत्त्वका ही चिंतन करे)
उत्पन्नशक्तिबोधस्य त्यक्तनिःशेषकमॅणः ।
योगिनःसहजावस्था स्वयेमेवोपजायते।। (महोपनिषद-4/78)
जेणे बोधातमिका शक्ति जाग्रत करी लीधीछे समस्तकर्मोनो त्याग करी दीधोछे तेवो योगी स्वयमेव सहजावस्था प्राप्त करी लेछे ।
सर्वगं सच्चिदानन्दं ज्ञानचक्षुर्निरीक्षते। (महोपनिषद-4/80)
(सर्वव्यापी सच्चिदानंदस्वरुप परमात्माको ज्ञानरुप चक्षुओं से दिखा जाता है।)
भिद्यते ह्रदयग्रन्थि छिद्यन्ते सवॅसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
(जब साधक प्रकृतिविषयक समझ को आत्मसात कर लेता है, तो उसके सब संशयों का निराकरण हो जाता है, उसके सब कर्मों क्षीण हो जाते है, उसका सूक्ष्म शरीर का विसर्जन हो जाता है, (जो तुरन्त हि उसको कैवल्य को उपलब्ध करा देता है।)(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
[When the seeker assimilates the understanding about the Nature, then all his doubts get allayed, all his actions get waned, his Subtle Body gets disunited, (which instantly avails him to Keivalya)] (Mundaka Upanishad-2/2/8).
(Maha Upanishad-4/82). (Saraswatirahasya Upanishad-67)
भवादुत्तारयात्मानं नासावन्येन तार्यते। (महोपनिषद-4/106)
(you can cross this Bhavsagar on your own only, none can make you cross)
एष एव मनोनाशस्त्वविद्यानाश एव च। (महोपनिषद-4/109)
(जो मनका विनाश है, उसको ही अविद्याका नाश कहा जाता है।)
अविद्या विद्यमानैव नष्टप्रज्ञेषु दृश्यते । (महोपनिषद-4/110)
(जो प्रज्ञा रहित है, उसमें ही अविद्या रहती है।)
मा भवाज्ञो भव ज्ञस्त्वं जहि संसारभावनाम् ।(महोपनिषद-4/128)
(तुम अज्ञानी न हो। ज्ञानी बनके संसारिक बंधनकी सभी भावनाओंका नाश कर दे।)
मन: समुदितं परमात्मतत्त्वात्।(महोपनिषद-5/52) (मनकी उत्पत्ति परमात्व तत्त्वमेंसे हुई है।)
मनसो विजयान्नान्या गतिरस्ति भवार्णवे। (महोपनिषद-5/76)
(यह संसारसागरमें मनके पर विजय प्राप्त करनेके अलावा (जीवनका) और कोई ध्येय नहीं है।)
भृत्योऽभिमतकर्तृत्वान्मन्त्री सर्वार्थकारणात्।
सामन्तश्चेन्द्रियान्क्रान्तेर्मनो मन्ये विवेकिन:।। (महोपनिषद-5/79)
(विवेकशील मनुष्यों अपने मनको अभिष्टकी सिद्धिके लिये सेवककी तरह, सभी प्रयोजनोंकी पूर्ति हेतु मंत्रीकी तरह और इन्द्रियों पर नियंत्रणके लिये सामंतरुप बना लेते है ऐसा मैं मानता हुँ ।)
अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत्।
महानरकजालेषु स तेन विनियोजित:।। (महोपनिषद-5/105)
(अपरिपकव बुद्धिवालेको और अज्ञानीको “यह सब ब्रह्ममय है” , ऐसा कहना उनको जैसे नरकमें हडसेलना जैसा है।)
चितो रुपमिदं ब्रह्मन्क्षेत्रज्ञ इति कथ्यते।
वासना: कल्पयन्सोऽपि यात्यहंकारतां पुन:।। 124
अहंकारो विनिर्णेता कलंकी बुद्धिरुच्यते।
बुद्धि: संकल्पिताकारा प्रयाति मननास्पदम्।। 125
मनो धनविकल्पं तु गच्छतीन्द्रियतां शने:।
पाणिपादमयं देहमिन्द्रियाणि विदुर्बुधा:।। 126 (महोपनिषद-5/124-126)
(हे आत्मज्ञानी! चेतन (ब्रह्म) जब रुप (नाम, देश, काल) विगेरे प्राप्त करता है, तो वह क्षेत्रज्ञ (ईश्वर) कहलाता है। वह (क्षेत्रज्ञ) जब वासना का चिंतन करता है तो वह फिरसे अहंकार हो जाता है। जब अहंकार निश्चयात्मक और दोषयुक्त हो जाता है तब वह बुद्धि कहलाता है। बुद्धि जब संकल्प और मनन करने लगती है तो मनरुप हो जाती है। मन जब गहरे विकल्पमें डूब जाता है तो धीरे-धीरे इन्द्रियत्वको प्राप्त कर लेता है। मेधावी पुरुषों (भी) अपनेको हस्तपादयुक्त इन्द्रियोंवाला शरीर ही तो मानते है।) (महोपनिषद-5/124-126)
(O Self Realized! When the Absolute avails form (name, time, space),etc, it is called Kshetragya (Ishwar), when that (Kshetragya) contemplates of carnal pleasures, again it becomes Ego, when the Ego becomes divisive and defiled, then it is called Intellect, when the Intellect becomes pulsatile and speculative, it turns to be a Mind, when the Mind sinks into deep uncertainty, it gradually instates the condition of being an organ. Even the sagacious men also believe themselves to be the body having hands and legs, etc.)
(Maha Upanishad-5/126-126).
सबाह्याभ्यन्तरं दृश्यं मा गृहाण विमुच मा । (महोपनिषद-5/172)
(जो बाहर अंदर दृश्यमान जगत है, उसको पकड़ना भी नहीं और त्यागना भी नहीं। )
तांडुलस्य यथा चमॅ पुरुषस्य तथा मलं सहजम् ।नश्यति क्रियया न संदेह ।। (महोपनिषद-5/185-186)
(जेवीरीते चोखाने फोतरुं होयछे तेम माणसने वासना सहजज होयछे । योग्य क्रियाथी तेनो नाश थइ शकेछे तेमां संदेह नथी । )
स्वसंकल्पे क्षयं याते समतैवावशिष्यते। (महोपनिषद-6/3)
(अपने संकल्पोंका क्षय हो जाते ही, केवल समत्वभाव ही शेष रहता है।)(महोपनिषद-6/3)
(When all the volitions of a person are declined, what remains is Equanimity only). (Maha Upanishad-6/3).
सवॅं त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्त्यज । (महोपनिषद-6/5-6)
(सबका त्याग करके (अंतमें) जिससे सब छोड़ते हो उनका भी त्याग कर दो।)
(After renunciating everything, leave that, too by which you renunciated everything.- Mahopanishad-6/5-6)
ज्ञस्य संसारो गोष्पदाकृतिः । (महोपनिषद-6/9) (ज्ञानीनोसंसार गायना पगलाथी बनता खाबोचिया जेवोछे । )
न तदस्ति न यत्राहं न तदस्ति न तन्मयम् । योअसिसोअसि ।।(महोपनिषद-6/11)
(यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसमें मैं न रहा हूँ।
और यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरेसे व्याप्त नहीं है। यहाँ जो कुछ भी है, वह मैं ही हूँ।)
त्यागादानपरित्यागी विज्वरो भव सर्वदा। (महोपनिषद-6/15)
((कीसीभी वस्तुका) न तो त्याग करो और न हीं ग्रहण करो। इसी तरह संतापरहित होकर जीयो।)
मा खेदं भज हेयेषु नोपादेयपरो भव । (महोपनिषद-6/28)
(जो खो दिया है उसका खेद मत कर और जो मिला हुआ है उसमें आसक्त मत हो।)
नाहं नेदमिति । (महोपनिषद-6/36) हुं नथी ((तेमज)आ (जगत )पण नथी । )
रज्जुबद्धा विमुच्यन्ते । तृष्णाबद्धा न केनचित्।।(महोपनिषद-6/39)
दोरडीथी बंधायेल छूटी जाय परंतु तृष्णाथी बंधायेलकोइरीते नहिं
कुवॅतो लिलया क्रियाम् । (महोपनिषद-6/43) (नियत क्रियायें ऐसे करें जैसे वेशभूषा में अभिनय करते हैं।) (महोपनिषद-6/43)
(Perform destined deeds as if performing in a pageant.)
(Maha Upanishad-6/43).
उदारचरितानां वसुधैव कुटुंबकम् । (महोपनिषद-6/72)
चिदचैत्या किलात्मेति सर्वसिद्धान्तसंग्रह:। (महोनिपषद-6/78)
(चित्तवृत्ति रहित हुआ चित्तही आत्मा (परमात्मा) है।यहि निश्चयपूर्वक समग्र( वेदोंके) सिद्धान्तों का सार है) (महोनिपषद-6/78)
(The Chitta that has rendered without Chittavritti, itself is Atmaa (Brahmn). This certainly is comprehensive knowledge of all the Vedas together). (Maha Upanishad-6/78).

MANDUKYA UPANISHAD
ऐषः योनि सवॅस्य । (मांडुक्योपनिषद-6)
आ(ब्रह्म)ज सबका उद्भव स्थान है ।
अयमात्मा ब्रह्म। (मांडुक्योपनिषद-2)

MANTRIKA UPANISHAD
ध्यायतेऽध्यासिता तेन तन्यते प्रेर्यते पुन:।
सूयते पुरुषार्थं च तेनैवाधिष्ठितं जगत्।।
(मंत्रिकोपनिषद-4)
ध्यानमग्न हो जाने से प्रसन्नता बढ़ती है, और (कैवल्य के लिए) प्रेरणा भी मिलती है। पुरुषार्थ में मग्न होने से तो यह संसार बढता है।(मंत्रिकोपनिषद-4)

MEYTRAN UPANISHAD
एष आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद्ब्रह्मेति। (मैत्रायण्युपनिषद-2/2)
(यह आत्माको वह अमृतरुप, भयरहित और ब्रह्म है ऐसा कहा गया है)
शकटमिवाचेतनमिदं शरीरम्। (मैत्रायण्युपनिषद-2/3)
(यह शरीर गाडेकी तरह अचेतन है) (मैत्रायण्युपनिषद-2/3)
(This body is inanimate just like a cart)(Meitranya Upanishad-2/3)
आत्मेन चेतनेनेदं शरीरं चेतनवत्। (मैत्रायण्युपनिषद-2/5)
(आत्माके चैतन्यसे यह शरीर चेतनवंत (दिखता) है) (मैत्रायण्युपनिषद-2/5)
(This body (sounds) animate because of the consciousness of Atmaa)
(Meitranyu Upanishad-2/5).
अकर्ता कर्तेवावस्थित:। (मैत्रायण्युपनिषद-2/10)
(अकर्ता होनेपर भी आत्मा कर्ता प्रतीत होता है।)
अस्ति खल्वन्योऽपरो भूतात्मा योऽयं सितासितै: कर्मफलैरभिभूयमान: सदसद्योनिमापद्यत इत्यवाचीं वोर्ध्वागतिं। (मैत्रायण्युपनिषद-3/2)
(जो शुभ-अशुभ कर्मोंके कारण अधेगामी हुआ है, वो(आत्मा नही है पर वो) तो अन्य भूतात्मा (जीवात्मा)है। वह कर्मानुसार अच्छी बुरी योनीयोंमें गमन करता हैऔर उँची या नीची गतीयोंको प्राप्त होता है।)
इत्यहं सो ममेदमित्येवं मन्यमानो भूतात्मा । (मैत्रायण्युपनिषद-3/2)
(यह मैं हुँ , वह मेरा है, ऐसा माना हुआ ही जीवात्मा है।) (मैत्रायण्युपनिषद-3/2)
(Jiva is one who has believed: “I am this, that is mine”.) (Meitrani Upanishad-3/2).
चतुरशीतिलक्षयोनिपरिणतम् । (मैत्रायण्युपनिषद-3/3)
(चोराशी लाख योनियोमें भ्रमण करता रहता है । )
यथा निरिन्धनो वह्नि: स्वयोनावुपशाम्यति
तथा वृत्तिक्षयाच्चितं स्वयोनावुपशाम्यति(मैत्रायण्युपनिषद-4/3/A)(मैत्रेय्युपनिषद-1/7)
(Just as the fire becomes extinct on its own when the wood lasts, same way the Chitta becomes extinct on its own when its tendency gets inhibited.)
तावदेव निरोद्धव्यं ह्रदि यावत्क्षयं गतं मनो।
एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रंथ विस्तरा । (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/H)(ब्रह्मबिंदूपनिषद-5)
(मनका ह्रदयमें तबतक ही निरोध करना चाहिये जबतक उनका क्षय (यानि मनकी उन्मनी स्थिति) न हो जाय। (संपूर्ण शास्त्रोंका साररुप) यही ज्ञान है और यही मोक्ष है, बाक़ी सबतो ग्रंथका (बिनजरुरी) विस्तार ही है।)
(Only so long must the mind be confined in the heart, until it is annihilated: this truly is the knowledge as well as liberation; the rest is nothing but pedantic superfluity.)
(जयांसुधी मननो क्षय नथाय त्यांसुधीज ह्रदयमां अेनो निरोध करवो जोइए । मात्र आज ज्ञान अने मोक्ष छेबाकी बीजुंतो ग्रंथनो विस्तारज छे । )
न शक्यते वणॅयितुं गिरा तदा । (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/I)
(That (Brahm) can never be expressed by words).
(त्यारे तेनुं वणॅन वाणीद्वाराकरवा कोइ समथॅ नथी । )
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयौ: । (मैत्राण्युपनिषद-4/3/K) (Brahmbindupanishad-2)
(मन ही मनुष्यके बन्धन या मूक्तिका कारणरुप है।)
(The mind alone is man’s cause of bondage or liberation).
विश्वेश्वर नमस्तुभ्यं विश्वात्मा विश्वकमॅकृत ।
विश्वभुग्विश्वमायस्त्वं विश्वक्रीडारतिः प्रभुः । (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/N)
(हे विश्वेश्वर आपने नमस्कार छे । आप विश्वना आत्माअने विश्वना कमोॅ करनारा विश्वना भरणपोषणकरनारा विश्व मायाने करनारा विश्व क्रिडा करनाराप्रभुछो)
स एव आत्मान्तर्बहिश्चान्तर्बहिश्च। (मैत्रायण्युपनिषद-4/5)
(यह (परमात्मा) आत्माके रुपमें अंदर बाहर अंदर बाहर विद्यमान है)
राजसोंअशोअसौ ब्रह्मा तामसोंअशोअसौ रुद्रसात्विकोंअशोअसौ स एव विष्णुः । (मैत्रायण्युपनिषद-4/5)
(योगचूडामण्युपनिषद-72)(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद-पूर्वकांड-10)
(इस (परमात्मा) के रजोगुण अंशको ब्रह्मा, इस (परमात्मा) के तमोगुण अंशको रुद्र और इस (परमात्मा) के सत्त्वगुण अंशको विष्णु कहते है।) (मैत्राण्युपनिषद-4/5)(योगचूडामण्युपनिषद-72)(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद-पूर्वकांड-10)
(The Rajas part of this (Parmatma) is known as Brahma, the Tamas part this (Parmatma) is known as Shiva and Sattva part this (Parmatma) is known as Vishnu.)
(Meitrannyyu Upanishad-4/5).
(Yoga Chudamani Upanishad-72)
(Pashupat Brahmana Upanishad-10)
(अे परमात्माना रजोगुण अंशने ब्रह्मा तमोगुण अंशने रुद्रसत्वगुण अंशने विष्णु कहेवायछे । )
तमोमायात्मको रुद्र: सात्विकमायात्मको विष्णू राजसमायात्मको ब्रह्मा।
(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद-पूर्वकांड-10)
(रुद्र तमोगुणी मायारुप है, विष्णु सत्त्वगुणी मायारुप है और ब्रह्मा रजोगुणी मायारुप है।)
द्वै वाव ब्रह्मणो रुपे मूर्तं चामूर्तं चाथ यन्मूर्तं तदसत्यं यदमूर्तं तत्सत्यं तद्ब्रह्म। एतदात्मा। (मैत्रायण्युपनिषद-5/3)
(ब्रह्मके दो रुप है- मूर्त और अमूर्त। जो मूर्त है वह असत्य है, जो अमूर्त है वह सत्य है। वही ब्रह्म है। वही आत्मा है)

MEYTREYA UPANISHAD
यथा निरिन्धनो वह्नि: स्वयोनावुपशाम्यति
तथा वृत्तिक्षयाच्चितं स्वयोनावुपशाम्यति(मैत्रेय्युपनिषद-1/7)(मैत्रायण्युपनिषद-4/3/A)
अगोचरं मनोवाचाम्। (मैत्रेय्युपनिषद-1/13)
वर्णाश्रमाचारयुता विमूढा: कर्मानुसारेण फलं लभन्ते।
वर्णादिधर्म हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा: भवन्ति।। (मैत्रेय्युपनिषद-1/17)
(जाति और आश्रमके (आधार पर ही आध्यात्मिकतामें) आचरण करनेवाले पूरी तरहसे मूर्खों ही कर्मानुसार फल भोगते है।
The completely morons, behaving (in spirituality on the basis of) possessed of caste and order, have to be afflicted according to the Karmafal. परंतु जो पुरुषों वणॅ विगेरे धर्मों त्याग देते है, वे अपने नीजानंदमें तृप्त रहते है।)
The people who acts in spirituality on the basis of castes, these completely morons only have to undergo the effect of Theory of Karma. (Meitreya Upanishad-1/17).
अभेददशॅनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मन: ।
स्नानं मनोमलत्यागं शौचमिन्द़िय निग्रह:।।(मैत्रेय्युपनिषद-2/2) (स्कंदोपनिषद-11)
[(सृष्टिमें ब्रह्मका) अभेदरुप दर्शन होना ही ज्ञान है। मनका विषय रहित हो जाना हि ध्यान है। मनके (द्वन्द्वात्मक) मल का त्याग हो जाना ही स्नान है। इन्द्रियोंका (पूरा) वशमें होना ही पवित्रता है।](मैत्रेय्युपनिषद-2/2) (स्कंदोपनिषद-11)
[The identical perception (in Creation of Parmatma) is Knowledge. The Mind becoming devoid of subject is Meditation. The renunciation of (dualistic) filth of Mind is Bath and the (complete) restraint on the sense organs is sacredness). (Meitriya Upanishad-2/2) (Skanda Upanishad-11).
अद्वैतभावना भैक्षमभक्ष्यं द्वैतभावनम् । (मैत्रेय्युपनिषद-2/10)
अद्वैतनी भावनाज भिक्षावृतिछे द्वैतभावना अभक्ष्य वस्तुछे।
मृता मोहमयिमाता जातो बोधमय: सुत: ।
सूतकद्वयसंप्राप्तौ कथं संध्यामुपास्महे ।। (मैत्रेय्युपनिषद-2/13)
एकमेवाद्वितियं ब्रह्म।(मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
(शुकरहस्योपनिषद-20).
(यहाँ केवल परमात्मा एक ही है, बिना किसी दुसरे के।)(मैत्रेय्युपनिषद-2/15)(शुकरहस्योपनिषद-20)।
(Parmatma alone is here, only one without any second) (Meitriya Upanishad-2/15). (Shukarahasya Upanishad-20).
एकमेवाद्वितीयम्। एतदेकान्तमित्युक्तं न मठो न वनान्तरम्।। (मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
[(यहाँ) केवल (परमात्मा) एक ही है, बिना किसी दुसरे के। इस (भावना) को ही एकांत कहा गया है; नहीं कि मठको या तो वन के मध्यभाग को।] (मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
[Parmatma alone is here, the only one without any second. This (notion) is what is called to be solitude, and not the cloister or the middle of the forest.]. (Meitreya Upanishad-2/15)
असंशयवतां मुक्तिः संशयाविश्टचेतसाम् नमुक्तिजॅन्मजन्मान्ते । (मैत्रेय्युपनिषद-2/16)
जे संशय रहित छे ते मुक्ति मेलवी लेँछे । जेने संशयछेते अनेक जन्मोना अंते पण मुक्ति मेलवी शक्ता नथी।
उत्तमा तत्त्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम् ।
अधमा मंन्त्रचिन्ता च तीथॅभ्रान्त्यधमाधमा । (मैत्रेय्युपनिषद-2/21)
(तत्व का चिंतन ही उत्तम है, शास्त्रों का चिंतन मध्यम है, मंत्रो का चिंतन अधम है और तिर्थो का भ्रमण तो अधम का भी अधम है।)(मैत्रेय्युपनिषद-2/21)
(The thought of (contemplation upon) Ṭaṭṭwas is the transcendental one; that of the Śhāsṭras the middling, and that of Manṭras the lowest. The delusion of pilgrimages is the lowest of the lowest)(Meitraya Upanishad-2/21).
धनवृद्धा वयोवृद्धा विद्यावृद्धास्तथैव च ।
ते सर्वे ज्ञानवृद्धस्य किंकरा शिस्यकिंकरा। (मैत्रेय्युपनिषद-2/24) जे धनमां मोटाछे वयमां मोटाछेविद्यामां मोटाछे ते बधां ज्ञानमां मोटा पासे नोकर अथवा शिस्यना नोकर जेवाछे । )
सोऽस्म्यहम्। (मैत्रेय्युपनिषद-3/1)
(I am that)
न जगत्सवॅद्रष्टास्मि । (मैत्रेय्युपनिषद-3/14)
(हुं आसंसारनो सवॅ द्रष्टा नथी । )

MUDGALA UPANISHAD
तं यथायथोपासते तथैव भवति। (मुद्गलोपनिषद-33)
उस (परमात्मा) की (साधक) जो जो भावसे उपासना करता है, (वह परमात्मा उसके लिये) वैसे (भाववाले ही) बन जाते है।)

MUNDAKA UPANISHAD
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सवॅमिदं विज्ञातं भवतीती । (मुंडकोपनिषद-1/1/3)
हे भगवान अेवुं शुं छे जे जाणी लेवाथी बधुंज जाणीलीधेलुं थइ जायछे ।
“Oh Lord, what is that which if known, then even what is unknown, also becomes known”?
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद सामवेदोऽथर्ववेद: शिक्षा कल्पो व्याकरण निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।।(मुंडकोपनिषद-1/1/5)
[(ऋषि अंगिरस ने शौनक ऋषि को कहा) जिसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, (वेदों की उच्चारण विधि), कल्प (यज्ञ-याग विधि), व्याकरण (शब्दप्रयोग नियमावली), निरुक्त (वैदिक शब्दों के अर्थ विधि), छन्द (वैदिक छन्दों के भेद विधि) और ज्योतिष (नक्षत्रों की गति और उसके साथ मानवजात के संबंध की विधि) का ज्ञान है वे सब अपरा विद्या है। जिस से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है वह परा विद्या है।] (मुंडकोपनिषद-1/1/5).
[(Rishi Angiras clarifies to Rishi Shonak that) wherein the Knowledge of Rigveda, Yajurveda, Samveda, Atharva Veda, Shikshaa, Kalp, Vyaakaran, Nirukruta, Chhanda and Jyotisha, etc is contained is Aparaa Vidya. Paraa Vidya is that through which Parmatma is obtained) (Mundaka Upanishad-1/1/5).
यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रम्।(मुंडकोपनिषद-1/1/6)
(वह (परमात्मा) को देख नहीं सकते, पकड़ नहीं सकते, उसका कोई गोत्र नहीं है)
यथोर्णनाभि: सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधय: संभवन्ति।
यथा सत: पुरुषात्केशलोमानि तथाक्षरात्संभवतिहविश्वं।। (मुंडकोपनिषद-1/1/7)
(जैसे करौलियो अपने पेटसे जालको उत्पन्न करता हैऔर अपनी अंदर निगल जाता है, पृथ्विमें जैसे विभिन्नवनस्पति होती है, मनुष्यके शरीरसे जैसे कैश और रोमउत्पन्न होते है, वैसे ही अनश्वर ब्रह्मसे ही यह विश्वउत्पन्न होता है।)
अविद्यायामन्तरे वतॅमाना: स्वयं धीरा: पण्डितंमन्यमाना:।
जअन्घन्यमाना परियन्ति मूढा अंधनैव नीयमानायथान्धा:।।(मुंडकोपनिषद-1/2/8)Kathopanishad-1/2/5)
(अविद्यारुप अंधकारमें रहते हुए भी, अपनेको ज्ञानी और पंडित समजने वाले मूढ़ों, ठीक वैसे ही अनेक ठोकरों खाते हुए भटकते फिरते है; जैसे अंधों मनुष्यों के द्वारा चलाये जानेवाले अंधे।)(कठोपनिषद-1/2/5) (मुंडकोपनिषद-1/2/8).
(The idiots, even though they are staying in the darkness of the Ignorance, yet believing themselves to be wise and erudite, are peregrinating and repeatedly stumbling exactly likewise the blinds that are being lead by the blind leaders).
(Katha Upanishad-1/2/5). (Mundaka Upanishad-1/2/8)
नास्ति अकृत: कृतेन। (मुंडकोपनिषद-1/2/12).
(जो अकृत है वह (स्वयंभू परमात्मा), उसके लिए (कार्य रुप उपासना आदि) करने से प्राप्त नहीं हो सकते है।)(मुंडकोपनिषद-1/2/12).
(the (Self Existent Parmatma that is) Uncreated, cannot be realized by doing (actions of worshipping, etc) for Him.) (Mundaka Upanishad-1/2/12).
परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणि: श्रोत्रियंब्रह्मनिष्ठम्।। (मुंडकोपनिषद-1/2/12)
निर्वेदम् आयात् न अस्ति अकृत: कृतेन। (मुंडकोपनिषद-1/2/12)
[(वेदों में कथित) कर्मों करने से प्राप्य (स्वर्गादि) लोकों (की क्षणभंगुरता) से व्यथित ब्रह्मविद्याके साधक को, वेदों से विमुख होकर इस निर्णय पर आना चाहिये कि जो अकृत है वह (स्वयंभू परमात्मा), उसके लिए (कार्य रुप उपासना आदि) करने से प्राप्त नहीं हो सकते है।अत: उस ब्रह्मविद्याकी प्राप्तिहेतु उसे चाहिये कि वह निश्चित ही हाथमें समिध लेकर वेदज्ञ और ब्रह्मनिष्ठ गुरु की पास विनयपूर्वक जाय।](मुंडकोपनिषद-1/2/12).
[The seeker of the Knowledge of Parmatma, being injured by the (ephemera of) regions (like Heaven etc) obtained by doing the actions (said in the Vedas), after flinching from the Vedas, should come to conclusion that the (Self Existent Parmatma that is) Uncreated, cannot be realized by doing (actions of worshipping, etc) for Him. Therefore, for the Realisation of that Knowledge of Parmatma, he indeed, along with having oblation wood in his hand, needs beseeching proceed to Guru, who is learned in Vedas as well as is dedicated to Parmatma alone.).(Mundaka Upanishad-1/2/12).
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक् प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्।। (मुंडकोपनिषद-1/2/13)
(उस विद्वान महात्मा को शरण को आये हुए पूरे शांतचित्त, जितेन्द्रिय शिष्य को ब्रह्मविद्या का उपदेश करना चाहिये जिससे वह शिष्य अविनाशी, नित्य परमपुरुष को जाण सके।)
पुरुष एवेदं विश्वम्।।(मुंडकोपनिषद-2/1/10)
(यह विश्व पुरुषोत्तम ही है।)(मुंडकोपनिषद-2/1/10)
(This universe is Parmatma only)(Mundaka Upanishad-2/1/10)
प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।।(मुंडकोपनिषद-2/2/4)
(ॐ धनुष्य है, आत्मा बाण है, ब्रह्मको लक्ष्यवेध माना गया है।उसको बाण की तरह तन्मय होकर आलस-प्रमाद रहित मनुष्य हि वेध कर सकता है।)
बाण को एक बार लक्ष्य पर छोड़ दिया जाता है, तो तन्मयता के कारण फिर अपने रास्ते से नही भटकता
भिद्यते ह्रदयग्रन्थि छिद्यन्ते सवॅसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।द(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
(जब साधक प्रकृतिविषयक समझ को आत्मसात कर लेता है, तो उसके सब संशयों का निराकरण हो जाता है, उसके सब कर्मों क्षीण हो जाते है, उसका सूक्ष्म शरीर का विसर्जन हो जाता है, (जो तुरन्त हि उसको कैवल्य को उपलब्ध करा देता है।)(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
[When the seeker assimilates the understanding about the Nature, then all his doubts get allayed, all his actions get waned, his Subtle Body gets disunited, (which instantly avails him to Keivalya)] (Mundaka Upanishad-2/2/8).
(Maha Upanishad-4/82). (Saraswatirahasya Upanishad-67)
तस्य भासा सवॅमिदं विभाति। (मुंडकोपनिषद-2/2/10) (कठोपनिषद-2/2/15)
(तेना प्रकाशथी आ बधुंप्रकाशमान जणायछे । )
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।। (मुंडकोपनिषद-3/1/1)और (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/6)
(समान उम्रवाला मैत्रीभाववाला बे पक्षीओ अेकजजातनावृक्षनी डालीओं पर बेठाछे । ते पैकी एक पिप्पलनावृक्षना फल अति खायछे ज्यारे अन्य फक्त जोया करेछे। )
सत्यमेव जयते नानृतं। (मुंडकोपनिषद-3/1/6)
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैव आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।। (कठोपनिषद-1/2/23) (मुंडकोपनिषद-3/2/3)
(यह परमात्मा नतो धर्मोपदेश करनेसे, नहीं बुद्धिसे और नहीं वेदों के ज्ञान को बहुत सुनने से भी प्राप्त होनेवाला है। केवल जिसको परमात्मा ने चयनित किया है, वह हि परमात्मा को प्राप्त करने के योग्य बनता है; क्योंकि परमात्मा खुद हि उनके सामने अपने स्वरुपको प्रकट कर देते है।) (कठोपनिषद-1/2/23) (मुंडकोपनिषद-3/2/3)
(This Parmatma is neither obtainable by spiritual preaching, nor by intellect and nor by severely listening to the knowledge of Vedas. Only the one who has been selected by Parmatma, becomes capable of obtaining Parmatma; because Parmatma Himself unsheathes His own form before that person). (Katha Upanishad-1/2/23) (Mundaka Upanishad-3/2/3).
गता: कला: पंचदश प्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्व एकीभवन्ति।। (मुंडकोपनिषद-3/2/7)
(उस महापुरुषका देहपात होता है तब पंद्रह कलायें और मन सहित सब इन्द्रियोंके देवता अपने अपने अभिमानी देवताओंमें जाकर स्थित हो जाते है, (उनके साथ उस जीवनमुक्त का कोंई संबंध नहीं रहता)। उसके बाद उसके समस्त कर्मों और ब्रह्मज्ञानी जीवात्मा सबके सब अविनाशी परमात्मामें एकरुप हो जाते है।)
यथा नद्य: स्यन्दमाना: समुद्रेअस्तं गच्छन्ति नामरुपेविहाय।
तथा विद्वान्नामरुपाद्विमुक्त: परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यं।।(मुंडकोपनिषद-3/2/8)
जेवी रीते वहेती नदीओं पोताना नामरुप छोडीने समुद्रमांविलिन थइ जायछे तेवी रीते ज्ञानी पुरुष नामरुपथीविमुक्त थइने दिव्य परात्पर ब्रह्मने समपिॅत थइ जायछे ।
ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति। (मुंडकोपनिषद-3/2/9)
(ब्रह्मज्ञाता ब्रह्म ही हो जाता है, उसके कुल में कोई ब्रह्मको नहीं जाननेवाला नहीं होता) (मुंडकोपनिषद-3/2/9)

NAADBINDU UPANISHAD
अधिष्ठाने तथा ज्ञाते प्रपंचे शून्यतां गते।
देहस्यापि प्रपंचत्वात्प्रारब्धावस्थिति: कुत:।।(नादबिंदुपनिषद-28)
जिस तरह अधिष्ठान (ब्रह्म) का ज्ञान हो जानेसे, (संसार) प्रपंच शून्यताको पा लेता है, (ऐसी हालतमें) देह भी प्रपंचरुप होनेके कारण प्रारब्ध कैसे बच सकता है?
अज्ञानजनबोधार्थं प्रारब्धमिति चोच्यते।
तत: कालवशादेव प्रारब्धे तु क्षयं गते।।
(नादबिंदुपनिषद-29)
अज्ञानग्रस्त लोगोंको बोध करानेके लिए, प्रारब्ध कर्मकी बात कही जाती है। (क्योंकि)बादमें कालवशाद ही प्रारब्ध कर्मों का भी क्षय हो जाता है।

NARAD PARIVRAJKA UPANISHAD
प्राणेगते यथा देह: सुखं द:खं न विन्दति।
तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत।।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-3/27)
(जैसे प्राणविहिन शरीरको सुख-दु;खका अहेसास नहीं होता है, वैसे ही जिसको प्राण होते हुए भी सुख-दु;खका अहेसास नहीं होता; वही संन्यास लेनेको योग्य है।)
आपो वै सर्वा देवता:।।(नारदपरिव्राजकोपनिषद-3/79)
(अवश्य सर्व देवता जलरुप हि है।)(नारदपरिव्राजकोपनिषद-3/79)
(Verily all the Devatas are embodied in Jala only.)(Narada Parivrajka Upanishad-3/79)
त्यक्त्वा लोकांश्च वेदांश्च विषयानिन्द्रियाणि च।
आत्मन्येव स्थिति यस्तु स याति परमां गतिम्।।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-4/2)
(जो सब लोकव्यवहार, वेदों, और विषयवासनाके भोगोंको छोड़कर एकमात्र अपने आत्मामें ही स्थिर स्थित हो जाता है, वह परम पदको प्राप्त होता है।)
आत्मवत्सर्वभूतानि पश्यन्।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-4/21)
देहाभिमानेन जीवो भवती।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-6/3)
(देह होने की भावना होने से जीव बन जाता है) (नारद परिव्राजकोपनिषद-6/3)
(By creating a sense of being body, one becomes Jiva.). (Narada Parivrajika Upanishad-6/3).
शरीराभिमानेन जीवत्वम्।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-6/4)
सोऽहमिति। (नारद परिव्राजकोपनिषद-6/4)
ओमिति ब्रह्मेति । (नारद परिव्राजकोपनिषद-8/1)
(ब्रह्माजीने नारदजीको कहा)(ॐ ही ब्रह्म है)
अथ ब्रह्मस्वरुपं कथमिति नारद: पप्रच्छ। तं होवाच पितामह: किं ब्रह्मस्वरुपमिति। अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति ये विदुस्ते पशवो न स्वभावपशवस्तमेवं ज्ञात्वा विद्वान्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-9/1) (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/8)
( बाद नारदजीने फिरसे पूछा: ब्रह्मका स्वरुप कैसा है? ब्रह्माजीने नारदजीको कहा: ब्रह्म अपने स्वरुपसे अन्य क्या है? ब्रह्म अलग है और मैं भी अलग हूँ, ऐसा जो मानता है वह पशु है। पशुयोनीमें जन्मा वोही पशु नहीं है। इसको ही जानकर विद्वानलोग जन्म-मृत्युके मार्गसे मूक्त हो जाते है। इस ज्ञानके अलावा मूक्तिका कोई अन्य मार्ग नहीं है।)

NIRALANBA UPANISHAD
चैतन्यं ब्रह्म । ब्रह्मैव स्वशक्तिं प्रकृत्यभिधेयामाश्रित्य लोकान्सृष्टवा प्रविश्यान्तर्यामीत्वेन ब्रह्मादिनां बुद्धिन्द्रियनियन्तृत्वादीश्वरः। (निरालंबोपनिषद-4)
(चैतन्य ब्रह्म हि है। अब ईश्वके स्वरुपका कथन करते है। यह ब्रह्म हि जब अपनी प्रकृति नामकी स्वशक्ति के सहारे लोकोंका सजॅन करके अंतर्यामीरुपसे उसमें प्रवेशकर ब्रह्मा, (विष्णु, महेश), आदी तथा बुद्धि और इन्द्रियों को नियंत्रित करते है, तब (वे) ईश्वर (कहलाते) है।)
(The very Consciousness is Brahmn. Now we say about Ishwara. When this Brahmn creates the Universe with the help of Nature, that is His Energy, and enters into His Creation as its intrinsic inbuilt mechanism and controls and administrates the entire Universe including Brahma, (Vishnu and Mahesh) etc, as well as Intellect and Sense organs; then (He) is called Ishwara.) (Niralanba Upanishad-4)
जीव इति च ब्रह्मविष्ण्वीशानेन्द्रादीनां नामरुपद्वारा स्थूलोअहमिति मिथ्याध्यासवशाज्जीवः। सोऽहमेकोऽपि देहारम्भकभ्दवशाद्बहुजीव:।। (निरालंबोपनिषद-5)
(जब इस ईश्वरको ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा इन्द्र आदि नाम और रुपके कारण “मैं स्थूल हूँ” ऐसा मिथ्याध्यास हो जाता है, तब उनको जीव कहते है। चैतन्य सोऽहमके रुपमें एक ही होनेपर भी शरीरोंकी भिन्नताके कारण जीव अनेकविध हो जाते है।)
प्रकृतिरिति च ब्रह्मण: सकाशान्नाविचित्रजगन्निर्माणसामर्थ्यबुद्धिरुपा ब्रह्मशक्तिरेव प्रकृति:।। (निरालंबोपनिषद-6)
(प्रकृति इसको कहते है, जो ब्रह्मके सान्निध्य मात्रसे भिन्न-भिन्न विचित्र जगतके निर्माणके सामर्थ्यकलारुप है। ब्रह्मकी जो शक्ति है, वही प्रकृति है।)
ब्रह्मैव परमात्मा । (निरालंबोपनिषद-7)
परमात्मैव ब्रह्मा स विष्णु: स इन्द्र: स शमन: स सूर्य: स चन्द्रस्ते सुरास्ते असुरास्ते पिशाचास्ते मनुष्यास्ता: स्त्रियस्ते पश्वादयस्तत्स्थावरं ते ब्राह्मणादय:।। (निरालंबोपनिषद-8)
(यही परमात्मा ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, यम, सूर्य, चन्द्र विगेरे देवताके रुपमें और यही असुर, पिशाच, नर-नारी और पशुओंके रुपमें प्रगट होते है, यही जड़ पदार्थ और ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य वगेरह भी है।)
सवॅं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । (निरालंबोपनिषद-9)
(यह पूरा विश्व परमात्मा ही है। परमात्मा से अलग यहाँ अन्य जैसा कुछ भी नहीं है।)(निरालंबोपनिषद-9).
(This entire universe is nothing but Parmatma, there is nothing other that is separate from Parmatma.). (Niralamba Upanishad-9).
जातिरिति च। न चमॅणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्थिनः।
न जातिरात्मनो जातिव्यॅवहारप्रकल्पिता । (निरालंबोपनिषद-10)
(जाती चामडीनी रक्तनी मांसनी हाडकानी के आत्मानीहोती नथी । जाती व्यवहार फक्त परिकल्पना ज छे । )
कर्मेति च क्रियमाणेन्द्रियै: कर्माण्यहं करोमीत्यध्यात्मनिष्ठतया कृतं कर्मैव कर्म।(निरालंबोपनिषद-11)
(“मैं (यह) करता हुँ”, ऐसे अपने भाव के साथ, जो कर्मेन्द्रियों के द्वारा किया गया है, वही कर्म है।)(निरालंबोपनिषद-11)
(The action is one which is done with one’s attribute that, “I am doing (this)” as well as which is done by the Karmendriyas.) (Niralamba Upanishad-11).
कर्मेति च क्रियमाणेन्द्रियै: कर्माण्यहं करोमीत्यध्यात्मनिष्ठतया कृतं कर्मैव कर्म। अकर्मेति च कर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यहंकारतया बन्धरुप जन्मादिकारणं नित्यनैमित्तिकयागव्रततपोदानादिषु फलाभिसंधानं यत्तदकर्म।।(निरालंबोपनिषद-11-12)
(“मैं (यह) करता हुँ”, ऐसे अपने भाव के साथ, जो कर्मेन्द्रियों के द्वारा किया गया है, वही कर्म है।कर्तृत्व-भोक्तृत्वके अहंकार द्वारा ओर फल प्राप्तिके हेतु, जो यज्ञ, व्रत, तप, दान, विगेरह; नित्य-नैमित्तिक कर्म (किये जाते है) वे कर्मफल हेतु बन्धनरुप और जन्म-कुल-आयुके कारणरुप कर्मोंको अकर्म कहते है।)
ज्ञानमिति देहेन्द्रियनिग्रहसदगुरुपासनश्रवणमनननिदिध्यासनैर्यद्यद्दृग्दृश्यस्वरुपं सर्वान्तरस्थं सर्वसमं घटपटादिपदाथॅमिवाविकारं विकारेषु चैतन्यं किंचिन्नास्तीतिसाक्षात्कारानुभवो ज्ञानम् । (निरालंबोपनिषद-13)
(घट-वस्त्रादि पदार्थों (में रहे माटी और सूत) की तरह सब प्राणीओंके भीतर समभावसे व्याप्त और सब परिवर्तनशील वस्तुओंमें अपरिवर्तनशीलरुप स्थित शुद्ध चैतन्यके अलावा यहाँ दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसा साक्षात्कारी अनुभवजन्य ज्ञान जो शरीर और इन्द्रियोंके निग्रहसे, सद्गुरूकी उपासनासे और श्रवण, मनन और निदिध्यासनसे (प्राप्त होता है) यही ज्ञान है।)
सत्संसगॅ स्वर्गः । असत्संसारविषयजनसंसगॅ एव नरकः। (निरालंबोपनिषद-17)
सतनो समागम ज स्वर्ग छे । संसार अने लोकोनाअसत विषयों साथेनो संसगॅ नरक छे ।
ज्ञान संकल्पो बंधः । (निरालंबोपनिषद-26) ज्ञानसंकल्प पण बंधन छे ।
मोक्षापेक्षोसंकल्पो बन्ध । (निरालंबोपनिषद-27) मोक्षसंकल्प पण बंधन छे ।
सवॅशरीरस्थचैतन्यब्रह्मप्रापको गुरुरुपास्य । (निरालंबोपनिषद-30)
बधां शरीरोमां रहेल चैतन्यरुप ब्रह्मने प्राप्त करावनार गुरुज उपास्य छे ।
विद्वानिति च सर्वान्तरस्थस्वसंविद्रुपविद्विद्वान्।।
(निरालंबोपनिषद-32)
सबके अंदर रहे (आत्मतत्त्वके साथ) जिसका प्रज्ञानका संबंध हो गया है, वह विद्वान है।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या । (निरालंबोपनिषद-35)
ब्रह्मैवाहमस्मि । (निरालंबोपनिषद-39) (मैं ब्रह्म ही हुँ ।)
सोअग्निपूतो भवति स वायुपूतो भवति पुनर्नाभिजाये । (निरालंबोपनिषद-40)
(त अग्नि समान पवित्र थायछे । ते वायु समान पवित्रथायछे।तेने पुनर्जन्म थतो नथी ।

PAASHUPATBRAHMNA UPANISHAD
तमोमायात्मको रुद्र: सात्विकमायात्मको विष्णू राजसमायात्मको ब्रह्मा।
(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद-पूर्वकांड-10)
(रुद्र तमोगुणी मायारुप है, विष्णु सत्त्वगुणी मायारुप है और ब्रह्मा रजोगुणी मायारुप है।)
राजसोंअशोअसौ ब्रह्मा तामसोंअशोअसौ रुद्रसात्विकोंअशोअसौ स एव विष्णुः । (मैत्रायण्युपनिषद-4/5)(
(उस परमात्माके रजोगुण अंशको ब्रह्मा, तमोगुण अंशको रुद्र और सत्त्वगुण अंशको विष्णु कहते है।) (मैत्राण्युपनिषद-4/5)(मैत्राण्युपनिषद-4/5)(योगचूडामण्युपनिषद-72)
नास्ति माया च वस्तुत:।(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद उत्तरकांड-44)
(વસ્તુત: માયાનું અસ્તિત્વ જ નથી)

PENGAL UPANISHAD
स होवाच याज्ञवल्क्य: सदेव सोम्येदमग्र आसीत्। तन्नित्यमुक्त्तमविक्रियं सत्यज्ञानानन्दं परिपूर्णं सनातनमेकमेवाद्वितियं ब्रह्म।। (पेंगलोपनिषद-1/2)
(ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा: हे वत्स (इस सृष्टि के पैदा होने से) पहेले यहाँ केवल सत ही था।वही नित्य, मुक्त, अविकारी, सत्य, ज्ञान, आनंद से परिपूर्ण, सनातन ब्रह्म है; जो केवल एक बिना किसी दुसरे के है।)(पेंगलोपनिषद-1/2)।
(Rishi Yagyavalkya said: O my son (before this Creation came into being,) there was only Existence. The same is eternal, liberated, changeless, existence, knowledge and full of bliss, beginningess Brahmn that is only one without any second.)(Pengala Upanishad-1/2).
प्रकृतित्वं तत: सृष्टं सत्त्वादिगुणसाम्यत:। (सरस्वती रहस्योपनिषद-47) (तत् पच्याद् सत्त्व, रजस, तमस गुणके साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) वाली यह प्रकृतिकी रचना संपन्न हुई।). “Then the creation of this Nature was accomplished, which has (a System that maintains) the equanimity of Sattva, Rajas, and Tamas”. (Saraswati Rahasya Upanishad-47)
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति:।। (सांख्यदर्शन-1/61). (प्रकृति; (तीनों गुण) सत्त्व, रजस और तमसकी साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) है।) (The Nature (is a System that maintains) the equality of (Three Gunas) Sattva, Rajas, and Tamas). (Sankhyadarshan-1/61.).
तस्मिन्मरुशुक्तिकास्थाणुस्फटिकादौ जलरौप्यपुरुषरेखादिवल्लोहितशुक्लकृष्णगुणमयी गुणसाम्यानिर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत्।तत्प्रतिबिम्बितं यत्तत्साक्षिचैतन्यमासीत्।। (पेंगलोपनिषद-1/3)
(जैसे रेगिस्तान में जल, सीप में चांदी, ठूंठ में पुरुष और स्फटिक में वक्ररेखा आदि का आभास होता है, वैसे ही ( जिसमें तीनों) गुणों की साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) था वैसी निर्दोष (सत्त्व, रजस और तमस) त्रिगुणात्मक मूलप्रकृति उस (ब्रह्म) में बसी लगती थी। जो उस (ब्रह्म) में प्रतिबिम्बित था यह साक्षि चैतन्य था।(पेंगलोपनिषद-1/3)।
[The blameless (primordial Nature) possessing (Sattva, Rajas, and Tamas) three Gunas that had (a mechanism of maintaining) the equanimity of (three) Gunas, was inkling sitting down in that(Parmatma). What was reflecting in that (Parmatma), was Universal Soul.). (Pengal Upanishad-1/3).
सकलं जगदाविर्भावयति। प्राणीकर्मवशादेष पटो यद्वत् प्रसारित: प्राणीकर्मक्षयात् पुनस्तिरोभावयति। तस्मिन्नेवाखिलं विश्वं संकोचितपटवद्वर्तते।।(पेंगलोपनिषद-1/4)
[(वह ब्रह्म) प्राणीओंके कर्मानुसार फल देने हेतु संपूर्ण जगतका आविर्भाव करके वस्त्रके पटकी तरह प्रसारते है, और प्राणीओंके कर्म नष्ट होनेपर फिरसे विश्व को (अपनेमें) सिमट भी लेते है। बादमें पूरा विश्व (उस ब्रह्म)में हि सिमटे हुए वस्त्रकी भाँति रहता है] (पेंगलोपनिषद-1/4)
[(That Parmatma) to deliver the Karmafal to the creatures according to their Karmas spreads forth the entire universe before us like a piece of cloth, and with the diminishing of the Karmas of the creatures, again causes it to disappear (in the self). Thereafter the entire universe remains in Parmatma like a folded piece of cloth.] (Pengal Upanishad-1/4).
सा पुनर्विकृतिं प्राप्य सत्त्वोद्रित्त्काऽव्यक्ताख्यावरणशक्त्तिरासीत्। तत्प्रतिबिम्बितं यत्तदीश्वरचैतन्यमासीत्।
स स्वाधीनमाय: सर्वज्ञ: सृष्टिस्थितिलयानामादिकर्ता जगदअंकुररुपो भवति स्वस्मिन्विलीनं सकलं जगदाविर्भावयति।
प्राणीकर्मवशादेष पटो यद्वत् प्रसारित: प्राणीकर्मक्षयात् पुनस्तिरोभावयति। तस्मन्नेवाखिलं विश्वं संकोचितपटवद्वर्तते।।(पेंगलोपनिषद-1/4) (वह फिरसे विकार को प्राप्त होकर स्त्त्वगुणप्रधान, आवरण शक्तिवाली अव्यक्त (प्रकृति) हुई। जो उस अव्यक्त (प्रकृति) में प्रतिबिम्बित था यह इश्वर चैतन्य था।अपने में स्वाधीनता प्राप्त सर्वज्ञ, सृष्टि, स्थिति और प्रलय आदिके कर्ता उस (ब्रह्म)में (प्रलयके वक़्त) जगत अंकुररुपमें होता है। जैसे वस्त्रके पट को प्रसारा जाता है, वैसे वह (ब्रह्म) प्राणीओंके कर्म बनने के कारण अपनेमें विलिन रहे संपूर्ण जगत को प्रकट करते है। प्राणीओं के कर्म नष्ट होनेपर फिरसे (जगत को) अपनेमें सिमट भी लेते है। बादमें पूरा विश्व (उस ब्रह्म)में हि सिमटे हुए वस्त्रकी भाँति रहता है)
(पेंगलोपनिषद-1/4)।
तस्मादात्मन आकाश: संभूत:। आाकाशाद्वायु:। वायोरग्नि:। अग्नेराप:। अद्भय: पृथिवी।तानि पंच तन्मात्राणि त्रिगुणानि भवन्ति। (पेंगलोपनिषद-1/6)
स्त्रष्टुकामो सूक्ष्मतन्मात्राणि भूतानि स्थूलीकर्तुं सोऽकामयत। (पेंगलोपनिषद-1/7)
(सृष्टिकी रचना हेतु (ईश्वरने) सूक्ष्म तन्मात्राओंको स्थूल पंतत्त्वोंमें स्थापित करनेकी कामना कि।)
ब्रह्मांडब्रह्मरन्ध्राणि समस्तव्यष्टिमस्तकान्विदार्य तदेवानुप्राविशत्। (पेंगलोपनिषद-1/11).
(वह (ब्रह्म) समस्त व्यष्टिके मस्तकको चिरके ब्रह्मांड-ब्रह्मरंध्रसे उसमें ही प्रवेश कर गये।)
मोहितो जीवत्वमगमत्। (पेंगलोपनिषद-1/12)
(मोहके कारण जीवत्वको प्राप्त हूआ ।)
तदेव स्थूलशरीरम्। कर्मेन्द्रियै: सह प्राणादिपंचकं प्राणमयकोश:। ज्ञानेन्द्रियै: सह मनो मनोमयकोश:। ज्ञानेन्द्रियै: सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोश:। एतत्कोशत्रयं लिंगशरीरम्। स्वरुपाज्ञानमानन्दमयकोश:। तत् कारणशरीरम्।। (पेंगलोपनिषद-2/4)
(यही स्थूल शरीर है। कर्मेन्द्रियोंके साथ पाँच प्राण मिलकर प्राणमयकोश, ज्ञानेन्द्रियोंके साथ मन मिलकर मनोमयकोश, और ज्ञानेन्द्रियोंके साथ बुद्धि मिलकर विज्ञानमयकोश बनता है। यही तीनों कोश मिलकर लिंग शरीर बनता है। जहाँ अपनेका बोध नहीं रहता वह आनन्दमयकोश है, उसको ही कारण शरीर कहते है।)
अंत:करणप्रतिबिंम्बितचैतन्यं यत्तदेवावस्थात्रयभाग्भवति। स जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्था: प्राप्य घटियन्त्रवदुद्विग्नो जातो मृत इव स्थितो भवति।। (पेंगलोपनिषद-2/10)
(अंत:करणमें जो चैतन्य प्रतिबिंबित होता है, वही अवस्था त्रय (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) का भागीदार होता है। वही जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाको प्राप्त होता है, वही रहेंटके समान उद्विग्न होता है, वही निरंतर जन्म मृत्युको प्राप्त होता रहता है।)
जाग्रदवस्था गतो जीव: क्रियाकर्ता भवति
लोकान्तरगत: कर्मार्जितफलं स एव भुंक्ते। (पेंगलोपनिषद-2/11)
(जाग्रदवस्था प्राप्त जीवों करताहंकारसे क्रिया करते है। वे ही अपने किये हुए कर्मोंके प्राप्त फलोंको परलोकमें भी भोगते है।)
सत्कर्मपरिपाकतो बहुनां जन्मनामन्ते नृणां मोक्षेच्छा जायते। (पेंगलोपनिषद-2/17)
(बहुत जन्मोंके बाद जब सदकार्योंका फल मिलता है, तब मोक्षकी इच्छा पेदा होती है।)
अध्यारोपापवादत: स्वरुपं निश्चयीकर्तुं शक्यते। (पेंगलोपनिषद-2/18)
(अध्यारोप और अपवादसे स्वरुपका निश्चय कर शक्ते है।)
अहं ब्रह्मास्मीति वाक्यार्थविचार: श्रवणं भवति। एकान्तेन श्रवणार्थानुसंधानं मननं भवति। श्रवणमनननिर्विचिकित्स्येऽर्थे वस्तुन्येकतानवत्तया चेत:स्थापनं निदिध्यासनं भवति। ध्यातृध्याने विहाय निवातस्थितदीपवद्ध्येयैकगोचरं चित्तं समाधिर्भवति।। (पेंगलोपनिषद-3/4)
(अहं ब्रह्मास्मि यह महावाक्यके अर्थ पर विचार करना वह श्रवण कहलाता है। श्रवण किये हुए विषयके अर्थपर एकांतमें अनुसंधान करना वह मनन कहलाता है। श्रवण और मनन द्वारा निश्चित किये हुए अर्थरुप वस्तुमें एकाग्रतापूर्वक चित्तका स्थापन करना वह निदिध्यासन कहलाता है। जब चित्तवृत्ति ध्याता और ध्यानके भावको छोड़कर, वायु विहीन स्थानमें रखे दीपककी ज्योतकी भांती केवल ध्येयमें ही स्थिर हो जाती है, तब उस अवस्थाको समाधि कहा जाता है।)
प्राक्परोक्षमपि करतलामलकवद्वाक्यप्रतिबद्धापरोक्षसाक्षात्कारं प्रसूयते। तदा जीवनमूक्तो भवति।। (पेंगलोपनिषद-3/5)(त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद-2/158) (वज्रसूचिकोपनिषद-9)
((इस स्थितिमें) पहेले जो तत्त्वमसि वग़ैरह शब्दोंके अर्थ परोक्ष दिखतेथे वही अब हस्तामलकवत विना अवरोध ज्ञात हो जाते है, और ब्रह्मका साक्षात्कार होता है, तब योगी जीवनमूक्त हो जाता है।)
आत्मानं रथिनं विद्धि शरिरं रथमेव च।
बुद्धि तु सारथि विद्धि मन: प्रग्रहमेव च ।। (पेंगलोपनिषद-4/3) (कठोपनिषद-1/3/3)
स्वात्मानं ज्ञात्वा वेदै: प्रयोजनं किं भवति। (पेंगलोपनिषद-4/13)
(आत्मज्ञान हो जाननेके बाद वेदोंसे क्या प्रयोजन रहता है?)
विद्वान्ब्रह्मज्ञानाग्निना कर्मबन्धं निर्दहेत्। (पेंगलोपनिषद-4/16)
(विद्वान पुरुष ब्रह्मज्ञानरुपी अग्निसे कर्मबन्धनको भस्म कर देता है।)
स बाह्यमभ्यन्तरनिश्चलात्मा ज्ञानोल्कया पश्यति चान्तरात्मा। (पेंगलोपनिषद-4/18)
(आत्मा बाहरसे और भीतरसे निश्चल है। आत्माको ज्ञानरुपी उल्कासे ही देखा जा सक्ता है।)
तपेद्वर्षसहस्त्राणि एकपादस्थितो नर:। एतस्य ध्यानयोगस्य कलां नार्हति षोडशीम्।। (पेंगलोपनिषद-4/21)
(अगर कोइ पुरुष एक पैर पर खड़ा रहकर एक हज़ार वर्षतक तप करता है, फीरभी वह ध्यानयोगकी सोड कलाओं मेंसे एककी भी बराबर वहीं आता।)
व्दै पदै बन्धमोक्षाय ममेति न ममेति च । (पेंगलोपनिषद-4/25)
मनसो ह्युन्मनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते।
(पेंगलोपनिषद-4/26)
(मन जब उन्मनी अवस्थाको प्राप्त हो जाता है, तब द्वैत समाप्त हो जाता है।)
यदा यात्युन्मनीभावस्तदा तत्परमं पदम्।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परं पदम्।।
(पेंगलोपनिषद-4/27)
(जब उन्मनीभाव प्राप्त हो जाता है, तब परम पद भी प्राप्त हो जाता है। उसके बाद जहाँ जहाँ मन जाता है, वो सब परम पद बन जाते है।)

PRASHNA UPANISHAD
आत्मन एष प्राणोजायते ।
यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं । (प्रश्नोपनिषद-3/3)
(आ प्राणनी उत्पत्ति आत्माथी थायछे । जे रीते पडछायो पुरुषथी ते रीते प्राण आत्माथी उत्पन्न थायछे। )
तस्मादेता: सप्तार्चिषो भवन्ति। (प्रश्नोपनिषद-3/5)
((यह प्राणोंसे) सप्तज्वालाओंका प्रादुर्भाव होता है)
ह्रदि ह्येष आत्मा । (प्रश्नोपनिषद-3/6)
(आ आत्माह्रदय प्रदेशमां रहेलछे)
तत्सर्वं परे देवे मनस्येकीभवति।प्राणाग्नय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति।।(प्रश्नोपनिषद-4/2)
(यहाँ (स्वप्न में) वह सर्व (इन्द्रियाँ) परम देव मन में एकत्र हो जाती है।तब यह शरीर नगरमें प्राणाग्नि हि जागृत रहता है।)
यथा वयांसि वासोवृक्षं संप्रतिष्ठन्ते एवं ह वै तत्सवॅं परआत्मनि संप्रतिष्ठते।। एष हि द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष: स परेऽक्षर आत्मनि संप्रतिष्ठते।। (प्रश्नोपनिषद-4/7 और 9)
(हे प्रिय! जिस प्रकार बहुत से पक्षी (सायंकालमें) अपने निवासरुप वृक्षपर (आकर) आरामसे ठहरते है; ठीक वैसे हि, (पृथिवी आदि से लेकर इन्द्रियों, उनके विषयों, मन, बुद्धि अहंकार और प्राण तक) सबके सब (सुषुप्ति कालमें) परम आत्मामें सुखपूर्वक आश्रय पाते है। अविनाशी परम आत्मा में जो सब आश्रित हुआ यह पुरुष हि द्रष्टा, स्पर्श करनेवाला, सुननेवाला, सूँघनेवाला, स्वाद लेनेवाला, मनन करनेवाला, बोधकरनेवाला विज्ञानात्मा है।)
(जे प्रमाणे पक्षी पोताना रहेठाण अेवा वृक्षपर जइनेबेसी जायछे तेवीज रीते (सुषुप्तिमा) आ सवॅ तत्त्व परम आत्मामां प्रतिष्ठित थइ जायछे )
परं चापरं च ब्रह्म यदोंकार:। (प्रश्नोपनिषद-5/2)
(यह ॐ परा एवं अपरा एवं ब्रह्म है । )
(पिप्पलादने सत्यकामको जवाब दिया।
जब सत्यकामने ॐ की आराधना कर शकतेहै ऐसा पूछा)
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्जयोतिराप: पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मंत्रा: कर्मलोका लोकेषु च नाम च।। (प्रश्नोपनिषद-6/4)
उस पुरुषने सबसे पहेले प्राणका सर्जन किया, बादमें प्राणसे श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रियाँ, मन, अन्नका सर्जन हुआ, अन्नसे विर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक और नाम पैदा हुए।इस (तरह सोलह कलाओं वाला पुरुष देह की रचना हुइ)
यथेमा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तंगच्छन्ति भिद्यते तासां नामरुपे समुद्र इत्येव प्रोच्यते ।(प्रश्नोपनिषद-6/5)

SARASWATIRAHASYA UPANISHAD
लोहितशुक्लकृष्णगुणमयी गुणसाम्यानिर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत्। (पेंगलोपनिषद-1/3)
(जिसका वर्णन नहीं हो सक्ता है, जिसमें सत्त्व, रजस और तमस तीनों गुण की साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) है वैसी मूलप्रकृति (ब्रह्ममेंसे) उत्पन्न हुइ।) “This primordial Nature, which is beyond the description in the words, which has (a System that maintains) the equanimity of Sattva, Rajas, and Tamas Gunas; was born (from the Parmatma)”. (Pengal Upanishad-1/3).
प्रकृतित्वं तत: सृष्टं सत्त्वादिगुणसाम्यत:। (सरस्वती रहस्योपनिषद-47) (तत् पच्याद् सत्त्व, रजस, तमस गुणके साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) वाली यह प्रकृतिकी रचना संपन्न हुई।). “Then the creation of this Nature was accomplished, which has (a System that maintains) the equanimity of Sattva, Rajas, and Tamas”. (Saraswati Rahasya Upanishad-47)
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति:।। (सांख्यदर्शन-1/61). (प्रकृति; (तीनों गुण) सत्त्व, रजस और तमसकी साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) है।) (The Nature (is a System that maintains) the equality of (Three Gunas) Sattva, Rajas, and Tamas). (Sankhyadarshan-1/61.).
जगत्कर्तुमकर्तु वा चान्यथा कर्तुमीशते। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-51)
(परमात्मा जगतकी रचना करने न करने और उनसे अलग कुछभी करने समर्थ है)
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरुपकम्। विक्षेपशक्तिर्लिंगादि ब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत्।।
अन्तर्द्रृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयो:। आवृणोत्यपरा शक्ति: सा संसारस्य कारणम्।। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-52-53)
(विक्षेप और आवरण नामक मायाकी दो शक्तियाँ है। विक्षेप शक्ति लींगदेहसे ब्रह्मांड पर्यन्त जगतकी संरचना करती है। आवरण नामक अपरा शक्ति अंदरके दृष्टा-दृश्यके भेदको और बहारके परमात्मा-सृष्टिके भेदको आवृत करती है। यह आवरण शक्ति ही संसारके बंधनका कारण है।)
अस्ति भाति प्रियं रुपं नाम चेत्यंशपंचकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरुपं जगद्रूपं ततो द्वयम् । (सरस्वतीरहस्योपनिषद-58)
(अस्ति (है), भाति (लगता है), प्रिय (आनंदस्वरुप) , रुप अौर नाम यह (अस्तित्व के) पाँच अंश कहे गये है । पहेले तीन ब्परमात्मारुप अौर पीछले दो जगतरुप कहे गये है।) (सरस्वतीरहस्योपनिषद-58)
(Being, Consciousness, Bliss, Form and Name are called to be the five components (of Existence). The first three are form of Parmatma whereas the later two are form of world). (Saraswati Rahasya Upanishad-58).
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-66)
(देहाभिमान नष्ट होनेसे अपनेमें ही परमात्माकी अनुभूति संप्राप्त होती है।)
भिद्यते ह्रदयग्रन्थि छिद्यन्ते सवॅसंशया: ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
(जब साधक प्रकृतिविषयक समझ को आत्मसात कर लेता है, तो उसके सब संशयों का निराकरण हो जाता है, उसके सब कर्मों क्षीण हो जाते है, उसका सूक्ष्म शरीर का विसर्जन हो जाता है, (जो तुरन्त हि उसको कैवल्य को उपलब्ध करा देता है।)(मुंडकोपनिषद-2/2/8)(महोपनिषद-4/82)(सरस्वतीरहस्योपनिषद-67)
[When the seeker assimilates the understanding about the Nature, then all his doubts get allayed, all his actions get waned, his Subtle Body gets disunited, (which instantly avails him to Keivalya)] (Mundaka Upanishad-2/2/8).
(Maha Upanishad-4/82). (Saraswatirahasya Upanishad-67)
मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो न हि। इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशय:।। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-68)
(मेरेमें जीवत्व-इशत्वका भेद कल्पित है, वास्तवमें नहीं है। यह जो जान लेता है, वह मूक्त ही है; इसमें कोई संशय नहीं है।)

SARVASAR UPANISHAD
आत्मेश्वरजीवोअनात्मनां देहादीनामात्मत्वेनाभिमन्यतेसोअभिमान आत्मनो बंन्धः। तन्निवृत्तिर्मोक्ष: ।(सवॅसारोपनिषद-2)
(आत्मा ही परमात्मा है। देह (इन्द्रियों, मन) आदि अनात्ममोंमें जब अपने द्वारा (“यह मैं हुँ” ऐसा) अभिमान होता है, यह अभिमान हि जीव है, (यह अभिमान हि) अपना बन्धन है। उसकी निवृत्ति ही मोक्ष है।)
(Atmaa itself is Parmatma. The attribute of Ego that is born in insentient (entities like) body, (Mind), etc, (purporting that “I am this”;) the said attribute of Ego is called Jiva; (the same attribute of Ego) is our bondage, its cessation is Salvation.) (Sarvasara Upanishad-2)
या तदभिमानं कारयति सा अविद्या । सोअभिमानो ययानिवतॅते सा विद्या । (सवॅसारोपनिषद-3)
(जो उस अभिमान को पैदा करती है, वह अविद्या है और जिसके द्वारा उस अिभमान की निवृत्ति होती है, वह विद्या है।) (सवॅसारोपनिषद-3)
(That which begets the said attribute of Ego in person is Avidya, and that which causes the cessation of said attribute of Ego in person, is Vidya.) (Sarvasara Upanishad-3)
ल्लिंगशरीरं ह्रदयग्रन्थिरित्युच्यते। (सवॅसारोपनिषद-7)
(लिंग शरीरको ही ह्रदयग्रंथी कहते है।)
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1)(सवॅसारोपनिषद-12)
(परमात्मा सत्य, ज्ञान, अनन्त रुप है।)
(तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1)(सवॅसारोपनिषद-12)
(Parmatma is embodied as Truth, Knowledge, infinity.) (Teittariya Upanishad-2/1/1) (Sarvasara Upanishad-12).
मृद्विकारेषु मृदिव स्वणॅविकारेषु स्वणॅमिव तंतुविकारेषुतंतुरिव पूणॅं व्यापकंचैतन्यमनन्तमित्युच्यते।(सवॅसारोपनिषद-12)
(माटीथी बनेल पात्रोमां माटी समान सोनाना घरेणामांसोना समान दोराथी बनेल वस्तुमां दोरा समान अे व्यापक चैतन्य सताने अनंत कहेछे । )
माया नाम अनादिरन्तवती प्रमाणाप्रमाणसाधारणा न सती नासती न सदसती स्वयमधिका विकाररहिता निरुप्यमाणा सतीतरलक्षनशून्या सा मायेत्युच्यते।अज्ञानं तुच्छाप्यसती कालत्रयेऽपि पामराणां वास्तवी च सत्त्वबुद्धिर्लौकिकानामिदमित्यनिवॅचनीया वक्तुं न शक्यते।। (सवॅसारोपनिषद-15)
(माया नाम अनादि है, विनष्टप्राय है। वह न सत है, न असत है और नहीं सतअसत है। वह स्वयं ही अधिका है, विकार रहिता है।जैसे कि अन्य लक्षणों से रहित है ऐसा निरुपण हो सकता है, उसे माया ऐसा कहा जाता है। यह मायाशक्ति तुच्छ, अज्ञानरुप और मिथ्या भी है, फिर भी मूढ़ों को जैसे कि वह तीनों कालों में (हंमेशा) वास्तविक है, ऐसी दिखती है।अत: “वह इस प्रकारकी है”, ऐसा सुनिश्चितया बताना शक्य नहीं है।) (सवॅसारोपनिषद-15)
(अे आ प्रकारनीछे अेवुं मायानुं स्वरुप बताववुं जड शक्यनथी)
मत्सान्निध्यात्प्रवतॅन्ते देहाद्या अजडा इव । (सवॅसारोपनिषद-18)
(मेरी (परमात्मा की) उपस्थितिसे देह (मन, बुद्धि, अहंकार) वग़ैरह जीवित हो वैसे वर्तते है।) (सवॅसारोपनिषद-18)
(Because of my (Parmatma) proximity the body (Mind, Intellect, Ego) etc, are behaving as if they are animate) (Sarvasaar Upanishad-18).
नाहं भवामि । अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो बुद्धियादीनां हिसवॅदा । नाहं कर्ता नैव भोक्ता प्रकृतैः साक्षिरुपकः । मत्सान्निध्यात्प्रवतॅन्ते देहाद्या अजडा इव । आत्माहंसवॅभूतानां विभुः साक्षी न संशयः।
ब्रह्मैवाहं सच्चिदानन्दरुपम् । (सवॅसारोपनिषद-16TO20)
(मुझे जन्म नहीं है। मैं बिना प्राण, मन और बुद्धि ही हंमेश शुद्धस्वरुप हुँ । मैं कर्ता या भोक्ता भी नहीं हुँ बल्कि स्वभावसे साक्षीरुप ही हुँ । मेरी उपस्थितिसे ही देह, मन वग़ैरह जीवित हो वैसे बर्तते है। मैं सब प्राणीओंमें व्याप्त साक्षीरुप आत्मा हुँ, इसमें कोइ शंका नहीं है। मैं सत् चित् आनंदरुप ब्रह्म हुं।)
नाहं देहो जन्ममृत्यू कुतो मे नाहं प्राणः क्षुत्पिपासे कुतोमे ।
नाहं चेतः शोकमोहौ कुतो मे नाहं कर्ता बन्धमोक्षौ कुतोमे ।
(सवॅसारोपनिषद-21) ( चेतः= मन)
ल्लिंगशरीरं ह्रद्ग्रन्थिरित्युच्यते । (सवॅसारोपनिषद-7)
जे लिंगशरीर छे तेज ह्रदयग्रन्थि कहेवायछे ।

SHANDILYA UPANISHAD
शरीरं षण्णवत्यगुंलात्मकं भवति। शरीरात्प्राणो द्वादशांगुलाधिको भवति।। (शाण्डिल्योपनिषद-1/4/2). (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/54)
(शरीर छीया नब्बे अंगुली प्रमाणका है। प्राण शरीरसे बारह अंगुली प्रमाण ज़्यादा बड़ा होता है।)
नाभेस्तिर्यगध ऊर्ध्वं कुण्डलिनी स्थानम्। अष्टप्रकृतिरुपाऽष्टधा कुण्डलीकृता कुण्डलिनी शक्तिर्भवति।। (शाण्डिल्योपनिषद-1/4/8).
(नाभीसे तीरछी नीचे उपर कुण्डलिनी क्षेत्र आया हुआ है। अष्ट प्रकृतिरुपा कुण्डलिनीशक्ति आठ कुंडली बनाकर रही हुइ है।)
सुषुम्नाया: सव्यभागे इड़ा तिष्ठति। दक्षिणभागे पिंगला। इडाया चन्द्रचरति। पिंगलाया रवि:। तमोरुपश्चंन्द्र:। रजोरुप रवि:।। (शाण्डिल्योपनिषद-1/4/11).
(सुषुम्णा नाड़ीके बाँयी और इड़ा नामकी और दाहिनी और पिंगला नाडी रही है। इड़ामें चन्द्र और पिंगलामें सूर्य संचरित होता है। चन्द्र तमोरुप और सूर्य रजोरुप है।)

SHARBHA UPANISHAD
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कदाचन।। (शरभोपनिषद-20)
(जहाँसे (ब्रह्मकी अनुभूतिसे) मनके साथ वाणीभी उसको न प्राप्त करके लौट आती है, उस आनंदस्वरुप ब्रह्मका जीसको बोध हुआ है, वह विद्वान कभी भयग्रस्त नहीं होता)

SHATYAAYNIYA UPANISHAD
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:।
(शातयायनीयोपनिषद-1)

SHARIRAK UPANISHAD
पृथिव्यादिमहाभूतानां समवायं शरीरं। (शारीरकोपनिषद-1)
(पृथ्वि आदी पाँच महाभूतोनो समुदाय आ शरीरछे । )
मनोबुद्धिरहंकारश्चित्तमित्यन्तःकरणचतुष्टयम् । (शारीरकोपनिषद-4)
(मन बुद्धि चित और अहंकार यह चारोंका समूह अंतःकरण कहलाता है। )
मनःस्थानं गलान्तं बुद्धेवॅदनमहंकारस्य ह्रदयं चित्तस्यनाभिरिति । (शारीरकोपनिषद-4)
(मनका स्थान कंठका अंतिम भाग, बुद्धिका स्थान मुख, चित्तका स्थान नाभी अौर अहंकारका स्थान ह्रदय कहलाता है।)
बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपंचकैर्मनसा धिया। शरीरं सप्तदशभि: सुसूक्ष्मं लिंगमुच्यते।। (शारीरकोपनिषद-16)
(ज्ञानेन्द्रिय (पाँच), कर्मेन्द्रि (पाँच), पांच प्राण, मन और बुद्धि यहसतरहका सत्रहका समूह सूक्ष्म शरीर लींग शरीर कहलाता है)

SHUKA RAHASYA UPANISHAD
चतुर्णामपि वेदानां यथोपनिषद: शिर:।
इयं रहस्योपनिषत्तथोपनिषदां शिर:।। (शुकरहस्योपनिषद-17)
एकमेवाद्वितियं ब्रह्म।(मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
(शुकरहस्योपनिषद-20).
(यहाँ केवल परमात्मा एक ही है, बिना किसी दुसरे के।)(मैत्रेय्युपनिषद-2/15)(शुकरहस्योपनिषद-20)।
(Parmatma alone is here, only one without any second) (Meitriya Upanishad-2/15). (Shukarahasya Upanishad-20).
जीवो ब्रह्मेति। (शुकरहस्योपनिषद-28)
(जीव ही ब्रह्म है)
येनेक्षते श्रृणोतीदं जिध्रति व्याकरोति च ।
स्वाद्वस्वादु विजानाति तत्प्रज्ञानमुदिरितम्। (शुकरहस्योपनिषद-31)
(प्राणी जिससे देखता है, सूनता है, सुगंध ग्रहण करता है, बोलता है, स्वाद-अस्वादका अनुभव करता है, उसे प्रज्ञान कहते है।)
चतुर्मुखेन्द्रदेवेषु मनुष्याश्वगवादिषु। चैतन्यमेकं ब्रह्मात: प्रज्ञानं ब्रह्म मय्यपि।। (शुकरहस्योपनिषद-32)
(चतुर्मुख ब्रह्मा, इन्द्रदेव, सब देवों , मनुष्य , अश्व, गाय वगेरे सब पशुओंमें एकही चैतन्य सत्ता ब्रह्म रही हुइ है। वही प्रज्ञान ब्रह्म मेरेमें भी समाहित है। )
एकमेवाद्वितीयम् । (शुकरहस्योपनिषद-35)
अहंकारादिदेहान्तं प्रत्यगात्मेति गीयते।।(शुकरहस्योपनिषद-37)
(अहंकारसे लेकर शरीरतक को प्रत्यक् आत्मा कहा जाता है।)
अनात्मदृष्टेरविवेकनिद्रामहं मम स्वप्नगतिं गतोऽहम्। (शुकरहस्योपनिषद-39)
(मैं अनात्म पदार्थोमें दृष्टिसेलीन होनेके कारण अविवेककी निद्रामे “मैं” और “मेरा” से संमोहित होकर स्वप्नवत व्यवहार कर रहा हुँ।)
कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः ।
कायॅकारणतां हित्वा पूणॅबोधोअवशिष्यते । (शुकरहस्योपनिषद-42)
(कायॅ उपाधिसे यह जीव है और कारण उपाधिसे ईश्वर है। कायॅकारण उपाधिआेंका त्याग कर देनेसे पूणॅज्ञानरुप ब्रह्म ही शेष रहते है।)
કાર્યનો કર્તાભાવ તો જીવ
કાર્યનું કારણ ઈશ્વર છે.
श्रवणं तु गुरो: पूर्वं मननं तदनन्तरम्।
निदिध्यासनमित्येतत् पूर्णबोधस्य कारणम्।। (शुकरहस्योपनिषद-43)
(साधकको पूर्ण बोध तब हो सकता है, जब वह पहेले गुरुका उपदेश सूनें, बाद मनन करें और बाद निदिध्यासन (अनुभूतिकी साधना) करें।)
अन्यविद्यापरिज्ञानमवश्यं नश्वरं भवेत्।
ब्रह्मविद्यापरिज्ञानं ब्रह्मप्राप्तिकरं स्थितम्।। (शुकरहस्योपनिषद-44)
(अन्य विद्याका अच्छी तरहसे प्राप्त किया हुआ ज्ञान, अवश्य नश्वर है; किंतु ब्रह्मविद्याका अच्छी तरह प्राप्त किया हुआ ज्ञान ब्रह्म प्राप्तिमें समर्थ है।)

SHWETASHWATARA UPANISHAD
हरि: ऊँ ब्रह्मवादिनो वदन्ति- किं कारणं ब्रह्म कुत:स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा:। अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वताॅमहे ब्रह्मविदोव्यवस्थाम्।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-1/1)
(जगतका कारण जो ब्रह्म है वो ब्रह्म क्या है? कैसाहै? हम कहाँसे उत्पन्न हुएहै? किससे जीतेहै? और अंतमें हम िकसमे रहतेहै? किसके नियमके तहत रहकरहम सुख-दु:खकी इस व्यवस्थाको मानतेहै?)
भ्राम्यते चक्रे पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा।(श्वेताश्वतरोपनिषद-1/6)
(अपनेको और ईश्वरको अलग समजके िजवन चक्रमेंघूमते रहतेहै ।)
वह्नेयॅथा योनिगतस्य मूतिॅनॅ दृश्यते नैव च लिन्गनाश:।
स भूय एवेन्धनयोनिगृह्यस्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-1/13)
(जैसे (काष्ठ के) गभॅ में छीपे अग्नि का रुप (काष्ठ में) देखा नहीं जाता है, फीरभी सूक्ष्मरुपसे (काष्ठ में)अग्नि नहीं है ऐसा कहा भी नहीं जाता है; क्योंकि जब (काष्ठ को) इन्धन के रुपमें (जलाये जाता है तो काष्ठ के) गभॅमें छीपे अग्निको फीर से काष्ठ में से ) प्राप्त भी किया जाता है।यह दोनों (रुपकोकी) तरह परमात्मा (देह में होते हुए भी उसके रुप को देखा नहीं जाता है अौर सूक्ष्मरुपसे परमात्मा देह में नहीं है ऐसा कहा भी नहीं जाता है, क्योंकि वह) ध्यान के रास्ते ॐ द्वारा देह में महसूस किया जाता हैा) (श्वेताश्वतरोपनिषद-1/13)
(As the fire, hidden in the abode (of the wood) cannot be seen (in the wood) and yet subtly it cannot be denied that there is no fire (in the wood), because when (the wood) is burnt as a fuel, the fire hidden in the abode (of the wood) is again grasped (from the wood). Same as these both (similes, though) Parmatma (is an integral part of body, He cannot be seen, and yet subtly it cannot be denied that there is no Parmatma in the body, because He) is realized from the body when meditated with ॐ). (Shvetashvataropanishad-1/13)
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थु।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-2/5)
(दिव्यलोकमें रहनेवाले सभी परमात्माके पुत्रों मेरी बातसुने।)
अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राभियुज्यते।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र संजायते मन:।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-2/6)
(जहाँ अग्निका मंथन होता है, जहाँ प्राणवायुका विधिवत निरोध होता है, जहाँ सोमरसका प्रचुर आनंद प्रगट होता है, वहाँ मन हंमेशा शुद्ध हो जाता है।)
य एको जालवानीशत ईशनीभि: सर्वांल्लोकानीशत ईशनीभि:।
य एवैक उद्भवे संभवे च य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/1) (एतद् विदु: अमृता: ते भवन्ति)
( जो एक मायापति, अपनी प्रभुता संपन्न शक्तियोंद्वारा संपूर्ण लोकोंपर शासन करता है, जो अकेला ही सृष्टिकी उत्पत्ति और विकासके लिये समर्थ है, उस (परम पुरुष)को जो विद्वान जान लेता है वह अमर हो जाते है।)
अथ ब्रह्मस्वरुपं कमिति नारद: पप्रच्छ। तं होवाच पितामह: किं ब्रह्मस्वरुपमिति। अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति ये विदुस्ते पशवो न स्वभावपशवस्तमेवं ज्ञात्वा विद्वान्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (नारद परिव्राजकोपनिषद-9/1) (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/8)
( बाद नारदजीने फिरसे पूछा: ब्रह्मका स्वरुप कैसा है? ब्रह्माजीने नारदजीको कहा: ब्रह्म अपने स्वरुपसे अन्य क्या है? ब्रह्म अलग है और मैं भी अलग हूँ, ऐसा जो मानता है वह पशु है। पशुयोनीमें जन्मा वोही पशु नहीं है। इसको ही जानकर विद्वानलोग जन्म-मृत्युके मार्गसे मूक्त हो जाते है। इस ज्ञानके अलावा मूक्तिका कोई अन्य मार्ग नहीं है।)
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु: स श्रृणोत्यकणॅ:।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रयं पुरुषंमहान्तम् ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/19)
हाथपग न होवाछतां ज़डपथी दोडीने पकड़ी लेछे आँखनहोवाछतां जुअेछे । कान न होवाछतां सांभलेछे । तेजाणवा योग्य बधुं जाणेछे पण तेने जाणनार कोइ नथी। ते परम ब्रह्म तरीके ओलखायछे । )
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वी: प्रजा सृजमानां सरुपा:।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्य:।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/5)
(अपने ही जैसी बहुत प्रजाको उत्पन्न करनेवाली लोहित (लाल-रजस्), शुक्ल (सफ़ेद-सत्व), और कृष्ण (काला-तमस) वर्णवाली अनादि प्रकृति (अजा-बकरी)को एक जीव (अज-बकरा) स्विकार करते भोगता है, और दूसरा आत्मा (अज-बकरा) भोगनेयोग्य प्रकृतिको छोड़देता है।)
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/6) (मुंडकोपनिषद-3/1/1)
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तुमहेश्वरम्।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-4/10)
(प्रकृतिको तुम माया समजो और महेश्वरको मायापति। उसकेही अंगभूतोंसे यह समग्र विश्व व्याप्त है।) (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/10)
(You should find the Nature as Maya (illusion) and Maheshwar as conjurer. This entire universe prevails with their components.) (Shwetashwatar Upanishad-4/10.)
न तस्य प्रतिमा अस्ति। (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/19)
(उस (परमात्मा) की कोई प्रतिमा नहीं है)
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्। (श्वेताश्वतरोपनिषद-4/20) (कठोपनिषद -2/3/9)
(Na chakshusa pasyati kaschaneinam-Kathopanishad-2/3/9)(None can see That(Brahman) with eyes).
प्राणाधिप: संचरति स्वकर्मभि:।।माया(श्वेताश्वतरोपनिषद-5/7)
(प्राणोंका अधिपति (जीवात्मा) अपने कर्मोंके अनुसार विविध योनीयोंमें गमन करता रहता है।)
संकल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहैर्ग्रासांबुवृष्ट्यात्मविवृद्धिजन्म।
कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रुपाण्यभिसंप्रद्यते।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-5/11)
(जैसे अन्न और जल के सेवन से शरीर की वृद्धि होती है, वैसे हि संकल्प, स्पर्श, दृष्टि और मोह से जीवात्मा का जन्म और (अनेक योनियों में) विस्तार होता है।जीवात्मा अपने किये हुए कर्मोंके फलानुसार भिन्न भिन्न स्थानोंमें भिन्न भिन्न रुपोंको वारंवार लेता है।)
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/8)
(उस परमात्माका कोई कार्य एवं शरीर-इन्द्रिय वग़ैरह नहीं है।)
नैव च तस्य लिंगम्। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/9)
(उस (परमात्मा) का कोई लिंग (स्त्री, पुरुष या नपुंसक) नहीं है।)
एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़:सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-6/11)
(सब प्राणीओंमें एकही परमात्मा गुप्त रहा हुआ है, वही वहसर्वव्यापी और सभी प्राणीओंके अंतरात्मा है।)
यो विदधाति कामान् । (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/13) (कठोपनिषद-2/2/13).
जो(परमात्मा) प्राणियोंको अपने कर्मोंके फल देनेवाला है।)
एको हँसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्नि: सलिले संनिविष्ट:।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/15)
(यह शरीरमध्ये एक ही हंस (परमात्मा) है, जो पानीमें छीपे अग्निके भाँति अगोचर है। उसको जानकर साधक मृत्युरुपबंधनको पार कर देता है, इससे अलग मोक्षप्राप्तिका अन्य कोई मार्ग नहीं है।)
Water is made of Hydrogen and Oxygen. Hydrogen is inflammable. Rishis knew this thousands of years back.
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/18) (गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद-22)
(जो परमात्मा सबसे पहेले ब्रह्माको उत्पन्न करता है और उनको वेदोंका ज्ञान प्रदान करता है, मैं मोक्षप्राप्तिकी अभिलाषासे; बुद्धिको प्रकाशित करनेवाले उसदेवकी शरण स्विकारता हूँ ।)
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/14)
The entire universe is lighted by its light
यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवा:।
तदा देवमविज्ञाय दु:खस्यान्तो भविष्यति।। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/20)
जब मनुष्य आकाशको चमड़ेकी भाँति लपेट शकेगा (जो अशक्य है) तब वह परमात्माको जाने बिना भी दु:खका अंत (जो भी अशक्य है) हो शकेगा।)
(Only when men shall (succeed to) wrap round the sky as if it were a simple skin,
Only then will there be an end to sorrow without knowing Parmatma.)

SKANDA UPANISHAD
तुषेण बद्धो व्रिहि: स्यात्तुषाभावेन तन्डुल:। (स्कंदोपनिषद-6)
जैसे भूसी से बद्ध है, तो डांगर है; अगर बिना भूसी के है, तो चावल है।)(स्कंदोपनिषद-6)
(If fastened with the husk, then it is paddy, if without the husk then it is rice) (Skanda Upanishad-6).
जीव: शिव: शिवो जीव: स जीव: केवल: शिव:।
तुषेण बद्धो व्रिहि: स्यात्तुषाभावेन तन्डुल: । (स्कंदोपनिषद-6)
(जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। जीव जब कैवल्य प्राप्त होता है तो शिव ही बन जाता है; जैसे भूसी से बद्ध होती है तो डांगर और अगर बिना भूसी के होती है तो चावल कहलाती है।)
देहो देवालय: प्रोक्त:।।(स्कंदोपनिषद-10)
(तत्त्वदर्शियों द्वारा) देह को हि देवालय कहा गया है।) (स्कंदोपनिषद-10)
(The body is said to be the abode of God (by one who is seer of reality)
(Skanda Upanishad-10)
अभेददशॅनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मन: ।
स्नानं मनोमलत्यागं शौचमिन्द़िय निग्रह:।।(मैत्रेय्युपनिषद-2/2) (स्कंदोपनिषद-11)
[(सृष्टिमें ब्रह्मका) अभेदरुप दर्शन होना ही ज्ञान है। मनका विषय रहित हो जाना हि ध्यान है। मनके (द्वन्द्वात्मक) मल का त्याग हो जाना ही स्नान है। इन्द्रियोंका (पूरा) वशमें होना ही पवित्रता है।](मैत्रेय्युपनिषद-2/2) (स्कंदोपनिषद-11)
[The identical perception (in Creation of Parmatma) is Knowledge. The Mind becoming devoid of subject is Meditation. The renunciation of (dualistic) filth of Mind is Bath and the (complete) restraint on the sense organs is sacredness). (Meitriya Upanishad-2/2) (Skanda Upanishad-11).

SVASANVEDYA UPANISHAD
तेषामेव पुनर्भवनं नो इहास्ति। स यथा मृत्पिंडे घटानां तन्तौ पटानां तथैवेति भवति।।(स्वसंवेद्योपनिषद1A)
[(जो ब्रह्मलीन हुए है) उसका इस जगत में पुनर्जन्म नहीं होता।उसकी स्थिति, जैसे माटी के पिंड में कुंभकी और तंतुओंमें कपड़े की होती है, वैसी ही होती है।) (स्वसंवेद्योपनिषद1A)
[Those ( who have been absorbed in Parmatma,) don’t have rebirth in this world. Their position is just like as the earthen pot has in the lump of soil and the cloth has in the yarns](Svasanvedya Upanishad-1A)
यदस्ति तदस्ति यन्नास्ति नास्ति तत्। (स्वसंवेद्योपनिषद1B)
(जीसका अस्तित्व है, उनका ही है। जीसका अस्तित्व नही है, उसका नहीं है)
न सुकृतं न दुष्कृतम्। (स्वसंवेद्योपनिषद-1B)
(पुण्य और पाप भी नहीं है)
कर्माद्वैतं न कायॅं भावाद्वैतं तु कायॅं । (स्वसंवेद्योपनिषद-1D)
(कर्मोंमें नहीं बल्कि भावमें अद्वैत करना चाहिये)(स्वसंवेद्योपनिषद-1D)
(Nonduality must be observed not in action but in aspect.) (Svasanvedya Upanishad-1D).
(कर्मोंमें द्वैत करना चाहिये और भावमें द्वैत नहीं करना चाहिये। कर्मों सब करो मगर भाव एक हि रखो।)
(कर्म बूरा नहीं होता, भावना कर्मको बूरा बनाती है। किसी एक प्रकारका कर्म हि करना चाहिये, ऐसा नहीं रखना लेकिन भाव (अकर्ताका या अद्वैतका) एक हि रखना चाहिये।)

TEITTIRIYA UPANISHAD
ओमिति ब्रह्म। ओमितीदंसवॅम्। (तैत्तिरीय उपनिषद-1/8/1)
(ॐ ही ब्रह्म छे । ॐ ही प्रत्यक्ष जगत है)
यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि। (तैत्तिरीयोपनिषद-1/11/2)
(जो दोषरहित कर्म कहे गये है, उनका ही आचरण करना चाहिये। अन्यका नहीं।)
ह्रिया देयम्। (तैत्तिरीयोपनिषद-1/11/3)
(दान शरमसे (गुप्तरुपसे) देना चाहिये)
श्रद्धया देयम्। (तैत्तिरीयोपनिषद-1/11/3)
(दान श्रद्धासे देना चाहिये)
स्वाध्यायान्मा प्रमद:। (तैत्तिरीय उपनिषद-1/11/4) (स्वाध्यायमां आलस न कर । )
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: संभूत: आकाशाद्वायु: वायोरग्नि:। अग्नेराप:। अद्भय: पृथिवी। पृथिव्याओषधय:ओषधिभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरुष:। स वा एषपुरुषोऽन्नरसमय:। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1) (पेंगलोपनिषद-1/6)(निश्चयज तब इस परमात्मा में से आकाश उठा थी।आकाशमेंसे वायु, वायुमेंसे अग्नि, अग्निमेंसे जल, पाणीमेंसे पृथ्वि, पृथ्वीमेंसे औषधियाँ, औषधियोंमेंसे अन्न, अन्नमेंसे पुरुष।यह पुरुष निश्चय ही अन्नरसमय है।)(तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1). (पेंगलोपनिषद-1/6)(Certainly then the Akaash was arisen from the Parmatma. The Air from the Akaash, the Fire from the Air, the Water from the Air, the Earth from the Water. All the vegetation were arisen from the Earth, the grain from the vegetation, the man is result of grain, thus certainly this man is an extract of Grain.)(Teittiriya Upanishad-2/1/1).(सवॅसारोपनिषद-12)
(परमात्मा सत्य, ज्ञान, अनन्त रुप है।)
(तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1)(सवॅसारोपनिषद-12)
(Parmatma is Truth, Knowledge, infinite.) (Teittariya Upanishad-2/1/1) (Sarvasara Upanishad-12)
ब्रह्मविदाप्नोति परम्। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1) (ब्रह्मवेत्ता परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। )
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1)(सवॅसारोपनिषद-12)
(परमात्मा सत्य, ज्ञान, अनन्त रुप है।)
(तैत्तिरीयोपनिषद-2/1/1)(सवॅसारोपनिषद-12)
(Parmatma is embodied as Truth, Knowledge, infinity.) (Teittariya Upanishad-2/1/1) (Sarvasara Upanishad-12).
प्राणो हि भूतानामायु:।।(तैत्तिरीयोपनिषद-2/3/1)
(प्राण हि सब प्राणीओं का आयुष्य है।)
यतो वाचो निवतॅन्ते अप्राप्य मनसा सह ।(तैत्तिरीयोपनिषद-2/4/1)
(जहाँ से मनके सहित वाणि (वग़ैरह सब इन्द्रियाँ परमात्मा को) न पाकर हारकर लौट आती है।)
(तैत्तिरीयोपनिषद-2/4/1)
[From where the Mind along with the Speech (etc all Indriyas) returns defeated without availing (Parmatma)].
(Teittiriya Upanishad-2/4/1).
यतो वाचो निवतॅन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान न बिभेति कदाचन्।।(तैत्तिरीयोपनिषद-2/4/1)
(जहाँ से मनके सहित वाणि (वग़ैरह सब इन्द्रियाँ परमात्मा को) न पाकर हारकर लौट आती है।ब्रह्मविद्या को जाननेवाला का आनन्द (उसे) कभी भयभीत नहीं होने देता।) (तैत्तिरीयोपनिषद-2/4/1)
(From where the Mind along with the Speech (etc all Indriyas) returns defeated without availing (Parmatma). The bliss of Knower of Knowledge of Brahmn never lets (him) be subjected to the fear.) (Teittiriya Upanishad-2/4/1).
(ज्यां (ब्रह्मना वणॅन करवामां) थी मन सहित वाणी असमथॅ बनी पाछी फरेछे तेब्रह्मना आनंदनो अनुभव करनार विद्वान क्यारेय भयग्रस्तथतो नथी । )
अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद। सन्तमेनं ततो विदुरिति।।(तैत्तिरीयोपनिषद-2/6/1)
(जो ब्रह्म है, ऐसा अगर जानता है उसको संत कहा जाता है।)
तत्सृष्टा तदेवानुप्राविशत्।
(तैत्तिरीय उपनिषद-2/6/1)
(उसकीरचना करके उसमेही प्रवेश करगया)
तत्सत्यमित्याचक्षते । (तैत्तिरीय उपनिषद-2/6/1) ([तत्सत्यम् इति आचक्षते । ] (जो कुछ अनुभवमें आता है, वह सत्य ही है।)
असन्नेव स भवति । असद्ब्रह्मेति वेद चेत्। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/6/1)
असत् एव स भवति |असद् ब्रह्म इति वेद चेत्|
(जो ब्रह्मका अस्तित्व नहीं है एेसा मानेंगे वो असत ही हो जायेंगे। )
सोअकामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति।। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/6/1)
(उस परमात्माने अनेक रुपमें प्रगट होनेकी इच्छा की)
असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत । (तैत्तिरीयोपनिषद-2/7/1)
(इससे पहेले यहाँ असत् ही था, उसमेंसे सत् उत्पन्न हुआ।)
(There was in-existence, existence came out of it)
रसो वै स:।।(तैत्तिरीयोपनिषद-2/7/1)
(अवश्य वह (परमात्मा) रसरुप हि है।)(तैत्तिरीयोपनिषद-2/7/1)
(Verily (Parmatma) is no other than the delight)(Teittiriya Upanishad-2/7/1).
भीषाऽस्माद्वातः पवते । भीषोदेति सूयॅ:।भीषाऽस्मादग्निश्चेन्द्रश्च। मृत्युर्धावति पंचम इति । (तैत्तिरीयोपनिषद-2/8/1)
तेना भयथी वायु वायछे भयथी सूयॅ उगेछे अने तेनाभयथीज अग्नि इंन्द्र अने पांचमुं मृत्यु दोडेछे ।
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य:।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचम:।। (कठोपनिषद-2/3/3)
श्रोत्रिस्य चाकामहतस्य आनन्द:। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/8/1)
(जो ब्रह्मज्ञानी और कामनारहित है, वही आनन्दका अधिकारी है।)
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जिवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति।।
( तैत्तिरीयोपनिषद-3/1/1)
(जिसमेसे यह सब प्राणियोंजन्मतेहै, और जन्म लेकर जिससे वो जीतेहै, औरप्रलयके वक़्त जिसमें जाकर लय हो जातेहै, उसकोजाननेकी जिज्ञासा करो । वह ब्रह्म है । )
अन्नं न निन्द्यात् तद्व्रतम् | (तैत्तिरीय उपनिषद-3/7/1)
(अन्ननी नींदा न करवी । आ व्रत छे । )
अकुवॅन् विहितं कमॅ। (तैत्तिरीय उपनिषद-3/9/1) (विहितकमॅ करवा जोइअे । )
न कंचन वसतौ प्रत्याचक्षित। (तैत्तिरीयोपनिषद-3/10/1)
( घरपे आये अतिथिका तिरस्कार न करना चाहिये)

TRISHIKHIBRAHMANA UPANISHAD
ब्रह्मणोऽव्यक्तम् । अव्यक्तान्महत् । महतोऽहंकार:।अहंकारात्पंचतन्मात्राणि । पंचतन्मात्रेभ्य: पंचमहाभूतानि। पंचमहाभूतेभ्योऽखिलं जगत ।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-1/3)
(ब्रह्ममेंसे अव्यक्त, अव्यक्तमेंसे महत, महतमेंसे अहंकार, अहंकारमेंसे पाँच तन्मात्रायें, पाँच तन्मात्राओंसे पाँचमहाभूतों, पाँच महाभूतोमेंसे, यह समग्र जगत उत्पन्न हुआ है।)
सत्त्वान्तर्वर्तिनो देवा: कर्त्रहंकारचेतना:।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/7)
और उस (ह्रदय) की अंदर वह देवता (जीवात्मा) रहा हुआ है, जीसकी अंदर कर्तापणाका अभिमान दिखने मिलता है)
(अहंकारका स्थान ह्रदय बताया है। यही अहंकारसे कर्तापणाका भाव पैदा होता है। इसीलिये जीवात्मा ह्रदयमें है ऐसा कहा जाता होगा।)
प्रत्यगानन्दरुपात्मा मूध्निॅ स्थाने परे पदे । (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/9)
प्रत्यक आनन्दमय आत्मानु परम पद मूर्धा स्थानछे ।
सविकारस्तथा जीवो निर्विकारस्तथा शिव:। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/12)
अहंकाराभिमानेन जीवः । (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/16)
नानायोनिशतं गत्वा शेतेऽसौ वासनावशात्। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/17)
[(वह जीव) विविध सैंकड़ों योनियोंमें जाकर, वहाँ संस्कार (वासनाओं) से वशीभूत होकर (अज्ञाननिद्रामें) सोया हुआ (स्वप्नवत हि) जीता रहता है।) (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/17)
[(That Jiva), by going in hundreds of diverse species, there lives a (dreamlike) life in a sleeping state, as subjugated by the Habitual Inertia or Sanskaar (desires)]. (Trishikhabrahmina Upanishad-2/17)
સંસ્કાર હેઠળ હોવું એટલે નિદ્રામાં હોવું
शिखा ज्ञानमयी वृत्तिर्यमाद्यष्टाँगसाधनै:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/23)
(यम-नियमादि अष्टाँगयोगकी साधनासे ज्ञानमयी शिखा उत्पन्न होती है।)
देहेन्द्रियेषु वैराग्यं यम इत्युच्यते बुधै:।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/28)
(देह और इन्द्रियोंके प्रति पूर्ण वैराग्यको प्रबुद्धों यम कहते है।)
The men of wisdom define Yama as the total restraint on body and organs. (Trishikhibrahmana Upanishad-2/28).
अनुरक्ति: परे तत्त्वे सततं नियम: स्मृत:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/29)
(परमात्म तत्त्वमें निरंतर सहज अनुराग रहे, उसको हि नियम कहते है।)
“Niyam means spontaneous and continuous affection for Supreme Self”. (Trishikhibrahmana Upanishad-2/29).
सर्ववस्तुन्युदासीनभावमासनमुत्तमम्।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/29)
(सर्व दृश्य पदार्थों प्रति चित्तमें हंमेश सहज उदासीन भाव रहे, उसको हि श्रेष्ठ आसन कहते है।) “Spontaneous and ever indifferent response of a person to all mundane things and beings is called the best Asana”. (Trishikhibrahmana Upanishad-2/29).
जगत्सर्वमिदं मिथ्याप्रतीति: प्राणसंयम:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/30)
(यह जगत सब प्रकारसे मिथ्या प्रतीत होने लगे, वहि प्राणायाम है।)
“Pranayama is when this entire world is felt by you as unreal in every sense of word”)
चित्तस्यान्तर्मुखीभाव: प्रत्याहारस्तु सत्तम।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/30)
(चित्तके अंतर्मुखी भावको हि अत्युत्तम प्रत्याहार कहा गया है।)
“The ever inwardly inclination of Subconscious Mind is called the best Pratyahaar”. (Trishikhibrahmana Upanishad-2/30).
चित्तस्य निश्चलीभावो धारणा धारणं विदु:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/31)
(चित्तका अचल भाव धारण करलेना हि धारणा जानी जाती है।)
“The Subconscious Mind, ever holding its original aspect of steadiness (in subjectlessness) is called Dharana”. (Trishikhibrahmana Upanishad-2/31)
सोऽहं चिन्मात्रमेवेति चिन्तनं ध्यानमुच्यते।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/31)
(परमात्मा मैं हि हुँ, ऐसे अविरत चिन्तनको (ध्येयको) हि ध्यान कहते है।)
ध्यानस्य विस्मृति: सम्यक्समाधिरभिधीयते।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/32)
(ध्यान (और ध्याता) की विस्मृति (होकर केवल ज्योतिरुप ध्येय हि बचता है तब उस स्थिति) को सम्यक् समाधि कहते है।)
देहमानं स्वांगुलिभि: षण्णवत्यअंगुलायतम्। प्राण: शरीरादधिको द्वादशाअंगुलमानत:। । (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/54) (शांडिल्योपनिषद-1/4/2)
(मनुष्य देहका माप अपनी 96 अंगुलीओं के बराबर होता है।शरीरसे 12 अंगुलीओं ज़्यादा माप प्राणका होता है)
देहस्थमनिलं देहसमुद्भूतेन वह्निना। न्यूनं समं वा योगेन कुर्वन्ब्रह्मविदिष्यते।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/55)
(शरीरमें स्थित वायुका (प्राणायाम द्वारा) शरीरमें उत्पन्न हुए अग्निके साथ योग करके उनको न्यून, सम या योग करके ब्रह्मको जाना जा सकता है।)
तस्योर्ध्वे कुण्डलीस्थानं नाभेस्तिर्यगथोर्ध्वत:।। अष्टप्रकृतिरुपा सा चाष्टधा कुण्डलीकृता।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/62-63)
योगकालेन मरुता साग्निना बोधिता सती।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/65)
(योगके अभ्याससे समय आनेपर वायु और अग्निके योगसे वह जाग्रत होती है।)
नासाग्रन्यस्तनयनो दन्तैर्दन्तानसंस्पृशन।।
रसनां तालुनि न्यस्य स्वस्थचित्तो निरामय:।
आकुंचितशिर: किंचिन्निबन्धन्योगमुद्रया हस्तौ।।
प्राणायाम समाचरेत्।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/92-94)
(नासिकाके अग्रभागपर दृष्टिको जमाकर, दाँतोसे दाँतका स्पर्श न करते हुए, जिह्वाको तालुनिमें लगाकर, स्वस्थ चित्त और निरामय भावसे, शिरको थोड़ासा संकुचन करके, दोनों हाथोंको योगमुद्रामें बाँधकर प्राणायामका अभ्यास करना चाहिये।)
पूरितं कुम्भयेत्पश्चाच्चतु:षष्टया तु मात्रया। द्वात्रिंशन्मात्रया सम्यग्रेचयेत्पिंगलानिलम्।। एवं पुन: पुन: कार्यं व्युत्क्रमानुक्रमेण तु।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/97-98)
(इसतरह यह चार विधियोंसे वायुको गतिशील करनेकी क्रियाको प्राणायाम कहते है। दाहिने हाथसे नासिकाके छिद्रको दबाकर वायुको पिंगलासे बहार निकालो। त्यारबाद सोलह मात्रामें इड़ा (बाँयी) नासिकासे वायुको भितर खेंचो। बाद 64 मात्रासे कुंभक करो। बाद 32 मात्रासे वायुको पिंगला (दाहिने) नासिका द्वारा बहार निकालो। बादमें 16 मात्रातक वायुको बिना लिये रोकेरखो।
इसतरह बारंबार सीधे उल्टे क्रमसे नियमित अभ्यास करिये।)
स्वरुपव्याप्तरुपस्य ध्यानं कैवल्यसिद्धिदम्।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/148)
(अपने अंत:करणमें व्याप्त परमात्म तत्त्वका ध्यान कैवल्य सिद्धिकी प्राप्ति कराता है।)
ध्यायतो योगिनस्तस्य मुक्ति: करतले स्थिता।। (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/158) (पेंगलोपनिषद-3/5) (व्रजसूचिकोपनिषद-9)
((परब्रह्मका)ध्यान करनेवाले योगीको मूक्ति अपने हाथमें है।)
समाधि: स तु विज्ञेय: सर्ववृत्तिविवर्जित:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/162)
(सर्व वृत्तियोंके त्यागको समाधि जानी जाती है।)

VRUJSUCHIKA UPANISHAD
कर्माभिप्रेरिता: सन्तो जना: क्रिया: कुर्वन्तीति। (वज्रसूचिकोपनिषद-7)
(हे संतों सुनें! लोगों कर्मों (के परिणामरुप मिले संस्कार)से प्रेरित होकर हि क्रियाएँ करते होते है।) (वज्रसूचिकोपनिषद-7)
(O Saints listen! The people are doing deeds as inspired by the (Sanskaar that is attained as a result of the) actions). (Vrajsuchika Upanishad-7).
करतलामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य । (वज्रसूचिकोपनिषद-9) (त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/158) (पेंगलोपनिषद-3/5)
अपरोक्ष अनुभूति (मूक्ति) हथेलीमें रखा आमला (देखना) सरल है, (उतनी सरल है)) Experiencing Realisation to of God is as easy as to behold an Aamla in hand-Vrajsoochikopanishad-9.
तस्मान्न जीवो ब्राह्मण। तस्मान्न देहो ब्राह्मण। तस्मान्नजातीर्ब्राह्मण। तस्मान्न ज्ञानं ब्राह्मण। तस्मान्न कर्म ब्राह्मण। तस्मान्न धार्मिको ब्राह्मण।

YAGYAVALKYA UPANISHAD
यो भवेत्पूवॅसंन्यासी तुल्यो वै धमॅतो यदि ।
तस्मै प्रणामः कतॅव्यो नेतराय कदाचन । (याज्ञवल्क्योपनिषद-10)
जेणे पहेला संन्यास ग्रहण करेल होय अथवा धमॅतुल्य होय तेनेज प्रणाम करवा जोइए बीजाने क्यारेय नहिं ।

YOGACHUDAMANI UPANISHAD
ह्रदि प्राण: स्थितो नित्यमपानो गुदमण्डले।। समानो नाभिदेशे तु उदान: कण्ठमध्यग:। व्यान: शरीरे तु। (योगचूडामण्युपनिषद-23-24)
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत्पुन:।
हंसहंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा।
षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्त्राण्येकविंशति:।।
(ध्यानबिंदुपनिषद-61-62) (योगचूडामण्युपनिषद-31-32)
(‘ह’कार ध्वनिसे प्राण बहार निकलता है और ‘स’कार ध्वनिसे फिर अंदर पिरवेशता है। हंस हंस इस प्रकार मंत्रजप जीव हंमेशा जपता रहता है। जिसकी संख्या दिन-रातमें मिलकर 21600 होती है।)
स पुनर्द्विविधो बिन्दु: पाण्डरो लोहितस्तथा।पाण्डरं शुक्लमित्याहुर्लोहिताख्यं महाराज:।।
(योग चूड़ामणि उपनिषद-60)
बिंदुओं के फिरसे दो प्रकार है: सफ़ेद और लाल।सफ़ेद को शुक्र और लाल को महारज कहा गया है।
रविस्थानस्थितं रज:। शशिस्थानस्थितं शुक्लं। तयोरैक्यं सुदुर्लभम्।।(योग चूड़ामणि उपनिषद-61)
रविस्थान में रज का निवास है, शशिस्थान में शुक्ल का निवास है; दोनों का संयोग बहुत दुर्लभ है।
बिन्दुर्ब्रह्म रज: शक्तिर्बिन्दुरिन्दु रजो रवि:।उभयो: संगमादेव प्राप्यते परमं पदम्।।
(योग चूड़ामणि उपनिषद-62)
बिंदु परमात्मा है, रज शक्ति है; बिन्दु चंद्ररुप है, रज सूर्यरुप है। दोनों का मिलन होने से ही परम पद प्राप्त होता है।
वायुना शक्तिचालेन प्रेरितं च यथा रज:। याति बिन्दु: सदैकत्वं भवेद्दिव्यवपुस्तदा।।
(योग चूड़ामणि उपनिषद-63)
सर्वदाऽनविच्छिन्नं परं ब्रह्म तस्माज्जाता परा शक्ति: स्वयंज्योतिरात्मिका।आत्मन आकाश: संभूत:।आकाशाद्वायु:।वायोरग्नि:।आग्नेराप:।अद्भय: पृथिवि।।(योगचूडामण्युपनिषद-72)
राजसो ब्रह्मा सात्विको विष्णुस्तामसो रुद्र इति एते त्रयो गुणयुक्ता:।।(योगचूडामण्युपनिषद-72)
(मैत्राण्युपनिषद-4/5)(पाशुपतब्राह्मणोपनिषद-पूर्वकांड-10)
ब्रह्मा धाता च सृष्टौ विष्णुश्च स्थितौ रुद्रश्च नाशे बभूव:।।(योगचूडामण्युपनिषद-72)
इन्द्रियैर्बध्यते जीव आत्मा चैव न बध्यते।।(योगचूडामण्युपनिषद-84)
शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि यो जपेत्प्रणवं सदा। न स लिप्यति पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।(योगचूडामण्युपनिषद-88)
अपानवह्निसहितं शक्त्या समं चालितम्।आत्मध्यानयुतस्त्वनेन विधिना विन्यस्य मूर्ध्नि स्थिरम्।।(योगचूडामण्युपनिषद-107)
અપાનને અગ્નિમાં મેળવીને ઉર્ધ્વગામી બનાવી શક્તિચાલિની મુદ્રા દ્વારા કુંડલિની માર્ગમાં દૃઢતાપૂર્વક ઉપર બ્રહ્મરંધ્રમાં આત્માના ધ્યાન સાથે સ્થાપિત કરવો.
पवनं वक्त्रेण वापूरितम्। बध्वा वक्षसि बह्वपानसहितं मूर्ध्नि स्थिरं धारयेदेवं याति विशेषतत्त्वसमतां योगीश्वरास्तन्मना:।।(योगचूडामण्युपनिषद-114)
મુખથી વાયુને ખેંચવો. ફરીથી નીચેથી અપાન વાયુને ઉર્ધ્વગામી કરવો. પછી બંને વાયુને હ્રદયપ્રદેશમાં રોકવા. ફરી ઉર્ધ્વગામી બનાવીને મૂર્ધનિમા સ્થિર કરીને (મનને) ધારણ કરવો. આ ક્રિયાથી યોગીઓને વિશેષ સમત્વભાવ પ્રાપ્ત થાય છે.

YOGKUNDLI UPANISHAD
अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वगं कुरुते बलात्।आकुंचनेन तं प्राहुर्मूलबन्धोऽयमुच्यते।। (योगकुंडल्युपनिषद-1/42)
आकुंचनेन तं प्राहुर्मूलबन्धोऽयमुच्यते। अपानश्चोर्ध्वगो भूत्वा वह्निना सह गच्छति।।(योगकुण्डल्युपनिषद-1/64)

प्राणस्थानं ततो वह्नि: प्राणापानौ च सत्वरम्। मिलित्वा कुण्डली याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृति:।। तेनाग्निना च संतप्ता पवनेनैव चालिता।
प्रसार्य स्वशरीरं तु सुषुम्ना वदनान्तरे।।
(योगकुण्डल्युपनिषद-1/65-66)
प्रकृत्यष्टकरुपं च स्थानं गच्छति कुण्डली। क्रोडीकृत्य शिवं याति क्रोडीकृत्य विलियते।।(योगकुण्डल्युपनिषद-1/74)
(गुदाके आकुचनके द्वारा (अपानको उर्ध्व गामी बनानेकी प्रक्रियाको मूलबन्ध कहते है। अपान उर्ध्व गामी होकर अग्नि के साथ संयुक्त होकर जब वह अग्नि प्राण के स्थान में पहोंचता है, तब प्राण और अपान दोनों मिलकर सर्पाकृति में रही कुण्डली की पास आते है। तब उस अग्निसे संतप्त होकर और (प्राणायामके) वायु (के आघात) से ही चालित होकर कुण्डली अपना शरीर पसार के सुषुम्ना के मुखके छेड़े में से उर्ध्वगमन कर के (ब्रह्मग्रंथी, विष्णुग्रंथी और रुद्रग्रंथी को भेदकर) यह अष्टधाप्रकृतिरुप (पंच तत्त्वों और मन, बुद्धि अहंकार) और (अष्टधाप्रकृतिरुप) स्थानवाली कुंडलिनी शक्ति गती कर के शिव की ओर आती है और शिव को आलिंगन कर के शिव में एकाकार हो जाती है।)
इत्यधोर्ध्वरज: शुक्लं शिवे तदनु मारुत:।(योगकुंडल्युपनिषद-1/75)
इस तरह नीचे रही रज और ऊर्ध्व मां रहा शुक्र वायुके वेग से शिव में लीन हो जाते है।
इति तं स्वरुपा हि मती रज्जुभुजंगवत्।
(योगकुंडल्युपनिषद-1/79)
उस (साधक) को अपने स्वरुप की समज मीलजाती है, जैसे रस्सीमें दिखते सर्प की भाँति।
मेलनमंत्र: ह्रीं भं सं मं पं सं क्षम्। (योगकुण्डल्युपनिषद-3/1)
मनसा मन आलोक्य तत्त्यजेत्परमं पदम्। मन एव हि बिन्दुश्च उत्पत्तिस्थितिकारणम्।। (योगकुण्डल्युपनिषद-3/5)
(मनसे मनका अवलोकन करते हुए उसमेंसे मूक्त हो जाना उसीको परम पद कहा है। मन हि बिंदु (परमात्मा) और (जगत प्रपंचकी) उत्पत्ति स्थितिका कारन है।)

YOGATATVA UPANISHAD
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवति ध्रुवम्।
योगों हि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्ष कर्मणि।।
(योगतत्वोपनिषद-14,15)
(बिना योगका ज्ञान कैसे मोक्ष प्राप्त करा सकता है? बिना ज्ञानका योग भी केवल कर्मसे ही मोक्ष प्रदान करने सक्षम नहीं है।)
अज्ञानादेव संसारो ज्ञानादेव विमुच्यते।ज्ञानस्वरुपमेवादौ ज्ञानं ज्ञेयैकसाधनम्।(योगतत्वोपनिषद-16)
(यह संसार अज्ञानसे (बंधनरुप) है, ज्ञानसे ही (संसारसे) मूक्ति है। ज्ञानस्वरुप हि आदि है, ज्ञानसे हि ज्ञेय प्राप्त हो सकता है।)
अल्पबुद्धिरिमं मंत्रयोगं सेवते साधकाधमः । (योगतत्वोपनिषद-22)
(मंत्र(जप करवा रुप) योग अल्प बुद्धिवाले करते है ऐसे साधक अधम कोटीके होते है। )
ततो दक्षिणहस्तस्य अंगुष्ठेनैव पिंगलाम्।
निरुध्य पूरयेद्वायुमिडया तु शनै: शनै:।
(योगतत्वोपनिषद-36,37)
(त्यारबाद दाहिने हाथके अंगुठेसे पिंगलाको दाबकर, धीरे धीरे इड़ाके द्वारा वायुको (उदरकी) अंदर पूरना।)
इडया वायुमारोप्य शनै: षोडशमात्रया।कुम्भयेत्पूरितं पश्र्चाच्चतु:षष्ट्या तु मात्रया।। रेचयेत्पिंगलानाड्या द्वात्रिंशन्मात्रया पुन:। पुन: पिंगलयापूर्य पूर्ववत्सुसमाहित:।। (योगतत्वोपनिषद-41-42)
(प्रथम इड़ा द्वारा 16 मात्रामें वायुको धीरेसे खेंचे, बाद 64 मात्रामें कुंभक करें, बाद पिंगलानाडी द्वारा 32 मात्रामें रेचक करें। त्यारबाद दूसरी बार पिंगला द्वारा वायुको खिंचकर पहेलेकी तरह हि पूरी क्रिया पूर्ण करें।)
सर्वविघ्नहरो मन्त्र: प्रणव: सर्वदोषहा। (योगतत्वोपनिषद-64)
(ॐ मंत्र सर्वप्रकारके विघ्न और दोष हरनार है)
तत: परिचयावस्था जायतेऽभ्यासयोगत:।।
वायु: परिचितो यत्नादग्निना सह कुण्डलीम्।भावयित्वा सुषुम्नायां प्रविशेदनिरोधत:।।
(योगतत्वोपनिषद-81-82)
(तब अभ्यासयोगसे कुंभकावस्था पैदा हो जाती है।प्रयत्नों से इकठ्ठा किया वायुकी अग्नि के साथ कुंडलिनी सुषुम्ना नाड़ी में विरोध रहित प्रवेश करती है, ऐसी भावना (कल्पना) कि जाय।)
आपोऽर्धचन्द्रं शुक्लं च वंबीजं परिकिर्तितम्।।(योगतत्त्वोपनिषद-82)
जल स्थानमें अर्द्धचंद्रके रुप में वं बीज का होना माना गया है।
यस्माज्जातो भगात्पूर्वं तस्मिन्नेव भगे रमन्।या माता सा पुनर्भार्या या भार्या मातरेव हि।
एवं संसारचक्रेण कूपचक्रे घटा इव।।
(योगतत्वोपनिषद-132-133)
[जिस पूर्व बीज (योनि)के कारणरुप (मनुष्य इस जन्ममें) पैदा हुआ है, उस बीज (योनि)में (वह अब) क्रिडा नहीं करता।जैसे कि जो माता (सत्त्वगुण) होती है वह (बादके जन्ममें) फिरसे पत्नि (रजसगुण या तमसगुण बन जाती है और) जो पत्नि होती है, वह (बादके जन्ममें) माता। वैसे हि संसारचक्र (के क़िस्से) में होता है, रेंटचक्रमें रहे घटोंकी तरह।](योगतत्वोपनिषद-132-133)
[One doesn’t frolic in that seed, because of which past seed he has been born (in this life). As who is mother (Sattva Guna in this life) now, again becomes wife (Rajas or Tamas Guna in later life). Same happens in (the case of) Wheel of Sansaar, as (it happens) with the pots in the wheel for raising water from the well.] (Yogatattva Upanishad-132-133)
स्थिता: सर्वे त्रयाक्षरे। (योगतत्वोपनिषद-135) बधुं ((ॐ) यह तीन अक्षरमें सब स्थित रहा हुआ है। )
हरिः ॐ तत्सत् । हरिः ॐ तत्सत् । हरिः ॐ तत्सत् ।

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